वैसे तो बसपा का मुख्य जनाधार उत्तर प्रदेश में ही है, लेकिन वह वोट प्रतिशत के लिहाज से अन्य हिंदी भाषी राज्यों खासकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में भी अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराती रही है। इसके अलावा पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे खासी दलित आबादी वाले सूबों में भी उसका ठीक-ठाक जनाधार है।

बसपा के बारे में यह जगजाहिर है कि गठबंधन की राजनीति में दूसरी पार्टियों से अपनी शर्तें मनवाने, भरपूर मोलभाव करने और साझेदार दलों से अपने जनाधार के समर्थन की भरपूर कीमत वसूलने में इस पार्टी का कोई सानी नहीं है। इस बार भी उसने विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर हुई बातचीत में ऐसा ही किया। बसपा से जुडे सूत्रों के मुताबिक मायावती को लग रहा था कि चुनावी राजनीति के लिहाजा से कांग्रेस इस समय अपने इतिहास के सबसे नाजुक दौर से गुजर रही है। संख्या के लिहाज से वह लोकसभा में तो दयनीय स्थिति में है ही, साथ ही देश के अधिकांश राज्यों में भी एक-एक करके वह सत्ता से बेदखल हो चुकी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में भी वह पिछले डेढ दशक से सत्ता से बाहर है तथा राजस्थान में इस समय वह विपक्ष में है।

मायावती इस हकीकत को भी जान रही थीं कि पिछले चार वर्षों के दौरान हर तरफ से लुटी-पिटी कांग्रेस के लिए अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इन तीनों राज्यों के चुनाव जीवन-मरण से जुडे हैं। अगर इन राज्यों में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद भाजपा फिर सत्ता मे लौट आती है तो लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की सारी संभावनाएं लगभग खत्म हो जाएंगी। उन्हें लग रहा था कि यही मौका है जब वह कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा झुका कर उससे तालमेल या गठबंधन की स्थिति में अपनी पार्टी के लिए अधिकतम सीटें छुडवा सकती हैं। यही सोचकर मायावती ने मध्य प्रदेश की 230 में से 50, राजस्थान की 200 में से 45 तथा छत्तीसगढ की 90 में 25 सीटें बसपा के लिए मांगी। मायावती की यह मांग कांग्रेस के लिए न तो दलीय हितों और न ही व्यावहारिक राजनीतिक के तकाजों के अनुरूप थी, लिहाजा गठबंधन नहीं हो सका।

बसपा ने मध्य प्रदेश में 2013 के विधानसभा चुनाव में भी 230 में से 227 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन उस चुनाव में उसके महज चार उम्मीदवार ही जीत सके थे और उसे कुल 06.42 फीसद वोट मिले थे। इस बार भी बसपा ने सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किए। सूबे के रीवा, सतना, दमोह, भिंड, मुरैना आदि जिलों में उसका खासा प्रभाव रहा है। इस बार भी भाजपा के खिलाफा सत्ता विरोधी लहर और दलित समुदाय में भाजपा के खिलाफ देशव्यापी आक्रोश के चलते अपने मजबूत जनाधार वाले इन जिलों में बेहतर नतीजे मिलने की उम्मीद थी। बसपा की मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष प्रदीप अहिरवार ने चुनाव से कांग्रेस से गठबंधन संबंधी बातचीत टूट जाने के बाद दावा भी किया था मध्य प्रदेश में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा और बसपा 34 वर्ष के इतिहास में अब तक बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने बूते 30 से 35 सीटें जीत कर सत्ता की चाबी अपने पास रखेगी। लेकिन उनके इस दावे की चुनाव नतीजों ने हवा निकाल दी। उसके प्रभाव वाले सभी जिलों खासकर विंध्य इलाके में रीवा, सतना और दमोह जिले में न सिर्फ उसका सफाया हो गया, बल्कि कांग्रेस को भी भाजपा के मुकाबले करारी हार का सामना करना पडा।

बसपा ने मध्य प्रदेश वाली कहानी राजस्थान में भी दोहराई और सभी 200 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। बीते कुछ चुनावों में उसका राज्य के धौलपुर, भरतपुर, दौसा और गंगानगर जिले की कुछ विधानसभा सीटों पर काफी अच्छा प्रदर्शन रहता आया है। जिन सीटों पर वह जीत दर्ज नहीं कर सकी वहां उसने परिणाम तय करने में अहम भूमिका निभाई। 2013 के विधानसभा चुनाव में भी उसने सीटे तो महज तीन ही जीती थीं लेकिन सात सीटों पर कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेल दिया था। राज्य में उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन 2008 के विधानसभा चुनाव में रहा था जब उसने 7.60 फीसद वोटों के वोटों के साथ छह सीटों पर जीत दर्ज की थी। अपने इसी पुराने प्रदर्शन के बूते उसे उम्मीद थी कि इस बार भी वह सत्ता विरोधी लहर और दलित आक्रोश के बूते बेहतर प्रदर्शन कर इतनी सीटें जीत लेगी कि सत्ता की चाबी उसके पास रहे। लेकिन उसका यह मंसूबा पूरा नहीं हो सका। सीटों के लिहाज से वह अपने 2008 के प्रदर्शन से आगे नहीं जा सकी और उसे महज छह सीटों से ही संतोष करना पडा। उसके वोट प्रतिशत में भी भारी गिरावट आई और वह महज 3 फीसद वोट ही हासिल कर सकी।

कांग्रेस और बसपा में गठबंधन न हो पाने की एक वजह यह भी थी कि मायावती चुनावी राजनीति में अपनी पार्टी के जनाधार की ताकत और अहमियत का अहसास इस साल की शुरूआत में उत्तर प्रदेश में तीन संसदीय सीटों गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनाव में करा चुकी थीं। गोरखपुर और फूलपुर में बसपा ने समाजवादी पार्टी को तथा कैराना में राष्ट्रीय लोकदल को समर्थन दिया था। तीनों ही जगह भाजपा को करारी हार का सामना करना पडा। उपचुनाव के इन नतीजों ने भी मायावती की मोलभाव करने की क्षमता मे इजाफा किया था और वह कांग्रेस से अपनी शर्तें मनवाना चाहती थीं।

दरअसल, मायावती निगाहें 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी थीं। वे विधानसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर लोकसभा चुनाव में बनने वाले संभावित व्यापक गठबंधन में भी अपनी पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दावेदारी करने की स्थिति में आना चाहती थीं, ताकि चुनाव के बाद अगर त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बने तो वे प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक सके। देश की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की तरह मायावती की भी यह राजनीतिक हसरत किसी से छुपी नहीं हैं। लेकिन तीन राज्यों में उन्हें मिले निराशाजनक नतीजों ने उनकी अधूरी हसरतों का अंत कर दिया। (संवाद)