देश जानना चाहता है कि इस मसले पर सोनिया गांधी एवं प्रियंका वाडरा की राय किस आधार पर ली गई जिनकी संगठन में कोई मुख्य भूमिका नहीं है। इस तरह के उभरते परिवेश लोकतंत्र पर परिवारतंत्र के हावी होने का संकेत दे रहे है जिसे राष्ट्रहित में कदापि नहीं कहा सकता । इस तरह के उभरते परिवेश का संगठन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जिसे देश की जनता किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगी। इस तरह के परिवेश केवल कांग्रेस खेमे में ही नहीं देखे जा सकते। इस तरह के परिवेश से यहां के प्रायः सभी राजनीतिक दल ग्रसित है जहां जनता द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधियों का नेता आलाकमान तय करते है। इस दिशा में संघ परिवार एवं वामपंथी दलो के सुप्रीमों के हस्तक्षेप को आसानी से देखा जा सकता हेै। खेर जो भी हो इस तरह का परिवेश लोकतंत्र एवं देश के हित में कदापि नहीं हो सकता ।

इन राज्यों के विधानसभा चुनाव के तुरन्त बाद ही देश में लोकसभा के चुनाव होने वाले है जहां केन्द्र में भी परिवर्तन की सुगबुगाहट नजर आ रही है। पर अभी हाल में हुये विधानसभा चुनाव में देश की सबसे बडी एवं पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये तीन राज्यों के विधायक जब अपने नेता का ही चुनाव लोकतांत्रिक ढंग से नहीं कर पाये तो आगे भविष्य में जहां इस दल के साथ अनेक दल महागठबंधन बनाकर खड़े है, अपना नेता कैसे तय कर पायेंगे। इस तरह के हालात कहीे फिर से उसी के हाथ सŸाा न सौंप दे जो आमजनता को स्वीकार नहीं। अर्थात राजस्थान, छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव के उपरान्त सŸाा विरोधी लहर, के कारण कांग्रेस को मिले जनाधार का एकमत होकर लोकतांत्रिक तरीके से अपना नेता का चुनाव नहीं कर पाना आगामी चुनाव में जनमानस पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है । इस तरह के तथ्य को कांग्रेस को समझना होगा ।

सत्ता के कार्यो से नाराज देश की जनता सŸाा परिवर्तन तो चाहती है पर इस परिवर्तन की आड़ में लोकतंत्र का हनन होना भी देखना नहीं चाहती । उसे कतई पसंद नहीं कि नेता चयन के मामले में देश में परिवाद, उग्रवाद को जन्म मिले। जिस तरीके से चुनाव उपरान्त राजस्थान छŸाीसगढ़, मध्यप्रदेश में दल नेता के चुनाव का परिदृृश्य उभर कर सामने आ रहा है जहां दल के नेता चुने जाने के लिये अपना दबाव बनाने के क्रम में जगह -जगह समर्थकों द्वारा आगजनी, तोडफोड़, आपस में ही मारपीट की घटनाएं उजागर हो रही है, लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं। इस तरह की व्यवस्था से उभरे दल के नेता कौन सा स्वरूप तय कर पायेंगे एवं कैसी व्यवस्था दे पायेंगे, विचार किया जा सकता । बेहतर होता पर्यवेक्षक की उपस्थिति में लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये तीन राज्यों के विधायक अपने नेता का चुनाव लोकतांत्रिक ढंग सेे गुप्त मतदान प्रक्रिया द्वारा करते तो देश में इसका संदेश आमजन के पास बेहतर ढंग से पहुंचता जिसका आगामी चुनाव पर भी इसका राजनीतिक लाभ निश्चित रूप से मिलता। पर कांग्रेस इस तरह के परिवेश को उभारकर अपने आप को ही कमजोर कर रही है एवं अपने विपक्ष को मजबूत होने का अवसर दे रही है।

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम उपरान्त मिजोरम में मिजोरम फ्रांट दल के नेता जोरमथंगा एवं तेलंगाना में टीआरएस दल के नेता के. चन्द्रशेखर राव ने तत्काल शपथ लेकर सरकार गठित कर ली पर राजस्थान, छŸाीसगढ़ , मध्यप्रदेश में जहां सरकार बनाने के लिये जनादेश कांग्रेस को मिला वहां दलीय नेता के चयन में पार्टी को काफी मशक्कत करनी पड़ी। राजस्थान, छŸाीसगढ़ , मध्यप्रदेश में बहुमत मिलने के बाद कांग्रेस के चयनित विधायक जब अपसी सहमति से अपना नेता नहीं चुन सके तो मामला कांग्रेस मुख्यालय दिल्ली दरबार को पहुंच गया जहां नेता चुनने की जिम्मेवारी कांग्रेस अध्यक्ष के कंधों पर आ गई। इस प्रक्रिया में मुख्यमंत्री के दावेदार रूप में राजस्थान से अशोक गहलोत एवं सचिन पायलट, मघ्यप्रदेश से कमलनाथ एवं ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा छŸाीसगढ़ से टीएस सिंहदेव, भूपेश बघेल एवं ताम्र ध्वज साहू का नाम दिल्ली दरबार तक पहुंचा जहां मुख्यमंत्री के लिये मघ्यप्रदेश से कमलनाथ, राजस्थान से अशोक गहलोत एवं छत्तीसगढ़ से भूपेश बघेल तथा उपमुख्यमंत्री के लिये राजस्थान से सचिन पायलट नाम पर अंतिम मोहर लगी। इस प्रक्रिया में मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल अपने नेताओं के पक्ष में कांग्रेस कार्यकताओं ने जमकर हंगामा भी किया जिसमें सर्वाधिक रूप से विरोध राजस्थान में सचिन पायलट के समर्थकों के बीच देखा गया, जिन्होंने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने की स्थिति में आगामी लोकसभा चुनाव में विरोध प्रकट कर कांग्र्रेस को सबक सिखाने की बात कर डाली। इस तरह का उभरा परिवेश निश्चित तौर पर कांग्रेस के भविष्य के लिये चुनौतिपूर्ण है जहां कुछ माह उपरान्त ही लोकसभा चुनाव का उसे सामना करना है। (संवाद)