भाजपा को पराजित करने के इरादे से अखिलेश ने किसी मुद्दे पर अपना स्वतंत्र स्टैंड तक लेना छोड़ दिया है और जो मायावती निर्णय लती हैं, उन्हीं को वे भी अपना रहे हैं। मिसाल के तौर पर, जब भी मायावती ने कांग्रेस या बीजेपी की आलोचना की, तो अखिलेश ने भी माया के स्वर में स्वर मिलाते हुए वैसा ही किया। जब मायावती ने हिन्दी पट्टी के सभी तीन राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से इंकार कर दिया तो अखिलेश ने भी वैसा ही किया।

और जब परिणाम घोषित किए गए तो मायावती और अखिलेश ने जनादेश का स्वागत किया और कांग्रेस द्वारा पार्टी से समर्थन मांगने से पहले ही सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को अपना समर्थन घोषित कर दिया। अब अखिलेश ने चुनाव के बाद के परिदृश्य पर चर्चा करने और 2019 लोकसभा चुनावों का सामना करने की रणनीति विकसित करने के लिए पार्टी सांसदों, विधायकों और महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की एक बैठक बुलाई। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि वह भाजपा को सत्ता से दूर रखने के बड़े उद्देश्य के लिए बीएसपी को और सीटों का त्याग करने को तैयार हैं।

लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अखिलेश कांग्रेस, आरएलडी और अन्य पार्टियों या उनके साथ सीट साझा करने के बारे में बात करने को तैयार नहीं हैं। वह मध्यस्थों के माध्यम से मायावती के संपर्क में लगातार बने हुए हैं। ऐसी खबरें भी हैं कि अखिलेश ने हाल ही में हवाई अड्डे पर बसपा नेता के साथ बैठक की थी।

2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी और अन्य राज्यों में बीजेपी से लड़ने की रणनीति विकसित करने के लिए मायावती लगातार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से संपर्क में हैं। वह पार्टी कार्यकत्ताओं की जड़ता मिटाने और पार्टी को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए पार्टी संगठन को ओवरहाल करने की भी योजना बना रही है। जमीनी स्तर से ऊपर तक अवांछित तत्वों की पहचान करने और उन्हें हटाने के लिए लगातार कसरत चल रही है।

इसी तरह, मायावती लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की पहचान करने के मामले में अन्य दलों से काफी आगे चल रही हैं। लेकिन चुनाव परिणामों की घोषणा से एक दिन पहले दिल्ली में विपक्षी दलों के कथित महागठबंधन की बैठक में शामिल होने से उन्होंने इनकार कर दिया था।

विधानसभा के परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि बीएसपी ने तीन राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया होता, तो बीजेपी की हार और बड़ी हो जाती। तब मायावती की पार्टी को भी ज्यादा सीटें मिलतीं। अब यह देखा जाना बाकी है कि क्या बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष गैर-कांग्रेस गैर भाजपा पार्टियों के साथ गठबंधन करेंगी या महागठबंधन में शामिल होकर कांग्रेस के साथ भी तालमेल करेंगी।

मायावती का राजनैतिक अतीत ऐसा रहा है कि उनके बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। वह अपने हितों को साधने के लिए किसी से भी हाथ मिला लेती हैं। तीन बार तो भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनी हैं और भाजपा सरकार को अतीत में समर्थन भी किया है। यही कारण है कि अखिलेश और अन्य पार्टियांे के नेता अभी भी सशंकित हैं कि मायावती आने वाले दिनों में कौन सा निर्णय लेती हैं।

लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि अखिलेश और मायावती हाथ मिलाकर आरएलडी और अन्य पार्टियों को अपने साथ गठबंधन या तालमेल में समायोजित करते हैं, तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में 2014 के लोकसभा चुनावों में जीती 71 सीटों के करीब पहुंचना असंभव हो जाएगा। (संवाद)