बदहाल भारतीय कामगार

अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री के राज में गरीबों का बंटाधार

यह घोर निराशा की बात है कि अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री के कार्यकाल में भारत में गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य यह कि डा. मनमोहन सिंह देश के विकास के नाम पर अभी भी पीठ थपथपाते हैं। कहते हैं कि उनकी आर्थिक नीतियां ही सही हैं। यह अलग बात है कि उनके ही पैनल ने आत्महत्या कर रहे किसानों को एक साल पहले दिये गये 17000 करोड़ रुपये के पैकेज में अब जाकर गड़बड़ियों का खुलासा किया। कुछ ही दिनों पहले एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण में बताया गया कि अकेले चिकित्सा महंगी होने के कारण (अन्य वस्तुओं और सेवाओं की आसमान छूती कीमतों को छोड़ भी दें तो) 16 प्रति शत लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गये। फिर अब एक राष्ट्रीय आयोग ने कहा कि देश के 79 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के कामगारों को 20 रुपये प्रति दिन से भी कम मजदूरी पर गुजारा करना पड़ रहा है। इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है किसी शासक की गरीबों के प्रति उदासीनता का, जो गरीबों के नाम पर योजनाएं बनाते और बनवाते हैं तथा अमीरों को फायदा दिलवाते हैं ? अमीरों को इतना फायदा दिलवाया गया कि उनकी बढ़ी हुई आमदनी को गरीबों की आमदनी से जोड़ देने पर देश की विकास दर 9 प्रति शत के आस – पास हो गयी। दाने – दाने को तरसते गरीबों की पीड़ा प्रधान मंत्री के विकास के शोर में उस तरह दब गयी जिस तरह कृष्ण के शंखनाद में युद्धिष्ठिर के शब्द “नरो वा कि कुंजरो” किसी को सुनायी नहीं दिये। वह महाभारत का छल था। आखिर हमारे देश के प्रधान मंत्री किसे छलना चाहते हैं ? हमारे शासक वर्ग और उनके समर्थक कौन सा महाभारत लड़ रहे हैं और उनके दुश्मन कौन हैं ? वे अपना शासन नहीं बचा सकते। किसी की भी नहीं बची – न रावण की और न राम की, जैसा कि राजा भोज ने बाल्यकाल में ही अपने चाचा के निर्देश पर हत्या के लिए उन्हें ले जाने वाले लोगों से कहा था। सम्पदा और शासन के आकांक्षियों ने आखिर इन गरीबों का बेड़ा गर्क क्यों कर रखा है! जब 2004 में आम चुनाव हो रहे थे तो कांग्रेस ने सबको रोजगार का वायदा किया था। साझे न्यूनतम कार्यक्रम के तहत संप्रग की सरकार ने काफी हिल – हुज्जत के बाद सबको रोजगार गारंटी कार्यक्रम लागू भी किया। पर असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने तो पूरी कलई ही खोल दी है। मनमोहन सिंह का इरादा एक अर्थशास्त्री के रुप में, एक वित्त मंत्री के रुप में और एक प्रधान मंत्री के रुप में पहले से ही स्पष्ट है। वह कभी भी सीधी – सीधी बात नहीं करते और मुलम्मा चढ़ाकर बात करना उनकी आदतों में शामिल है। धनवानों को उनके शासन में खुली छूट है। सेवाओं और वस्तुओं आदि के मूल्य मनमाने ढंग से वसूलने की छूट है इस तर्क के आधार पर कि इससे विकास होगा। सरकार की जनता के प्रति एक जिम्मेदारी होती है जिसके आधार पर चिकित्सा, शिक्षा आदि की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। लगता है यह उन्हें रास नहीं आता। आखिर कोई भी कम कीमत अदा कर क्यों पढ़े, क्यों स्वस्थ रहे, और यहां तक कि क्यों पानी भी पीये ! सबकुछ तर्कसंगतीकरण के नाम पर महंगे कर दिये गये। संगठित क्षेत्र और सरकार के संस्थानों में अधिक लोगों का रोजगार करना उन्हें रास नहीं आया और नीतियां ऐसी बनीं कि बड़ी संख्या में लोगों के रोजगार छीन लिए गये, इस आधार पर कि ऐसा नहीं करने पर ये नियोक्ता बर्बाद हो जायेंगे।
नियोक्ताओं को फलत: छूट मिलती चली गयी और कामगार वर्ग परेशान होता रहा। वे नियोक्ता सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र के भी थे और निजी क्षेत्र के भी। लाखों लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया गया। अनेकों को समय से पहले रिटायर कर दिया गया और अनेकों की छंटनी कर दी गयी। संगठित क्षेत्र में बचे लाखों नौकरीपेशा लोगों को साफ कह दिया गया कि वे 30 साल के सुरक्षित नौकरी सुविधा छोड़कर असुरक्षित चंद वर्षों के ठेके पर आ जायें। अनेकों को लालच दिया गया और अनेक जबरन ठेके पर कर दिये गये। काम करने की अवधि कानूनी और नैतिक रुप से मान्य अवधि से काफी बढ़ा दी गयी।
यह तो थी संगठित क्षेत्र में रोजगार की स्थिति। असंगठित क्षेत्र में रोजगार की स्थिति तो और भी खराब हो गयी। नौकरियां या काम पूरी तरह असुरक्षित है। निर्धारित वैध अवधि से काफी ज्यादा समय तक काम करवाने के बाद भी न्यूनतम मेहनताना नहीं दिया जा रहा है।
आयोग की रपट के अनुसार देश के कुल श्रम बल का 86 प्रति शत कामगार इस समय असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं जिनकी लगभग 39.49 करोड़ की संख्या अत्यंत दयनीय स्थिति में काम कर रहे हैं तथा उनके पास जीवन यापन के सीमित अवसर ही रह गये हैं।
रपट में यह भी कहा गया कि असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे 79 प्रति शत कामगार 20 रुपये प्रति दिन से भी कम पर काम कर रहे हैं और उसी में गुजारा कर रहे हैं। आयोग के इस आंकड़े से स्पष्ट है कि गरीबी के मामले में सरकार द्वारा दिये जाने वाले आंकड़े सरासर झूठ हैं। देश के लोगों को यह बताया जाना घाव पर नमक छिड़कने के बराबर है कि देश काफी सम्पन्न हो रहा है। कुछ लोगों को सम्पन्न बनाकर यह कहना कि देश सम्पन्न हो रहा है महज एक शोर है जिसमें गरीबों की कराह की आवाज सिर्फ दब जाती है।
आगे आयोग ने जो तथ्य दिये वे और भी चौंकाने वाले हैं। उसके अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों में 88 प्रति शत, अन्य पिछड़ी जातियों में 80 प्रति शत और मुसलमानों में 85 प्रति शत कामगार 20 रुपये प्रति दिन से कम मेहनताना पाने वाले वर्ग में शामिल हैं। उधर सरकार यह कहते हुए नहीं अघाती कि वह अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों समेत कमजोर वर्ग की हितैषी है और उनके लिए काफी कुछ कर रही है। जनता को धोखा देने के लिए शासक वर्ग ने इन्हें आरक्षण और अन्य सुविधाएं देने की घोषणा भर कर रखी है। राजनीतिक लाभ लेने के लिए ऐसा किया गया लेकिन वास्तविकता में आम लोगों का बुरा हाल ही आयोग की रपट से सहज सामने आ जाता है।
रपट में कहा गया कि 2004 – 05 में 83.6 करोड़ लोगों की आय, लगभग 77 प्रति शत की, 20 रुपये प्रति दिन से कम थी।
आयोग ने कहा कि 84 प्रति शत छोटे और सीमांत किसान परिवारों को उनकी आय से ज्यादा खर्च करने को विवश कर दिया गया है जिसके कारण वे कर्ज में हैं। कुल 90 प्रति शत कृषि कामगार भूमिहीन हैं या उनके पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है।
गैर कृषि क्षेत्र की हालत भी अच्छी नहीं है। बताया गया कि 21 से 46 प्रति शत तक पुरुष और 57 से 83 प्रति शत तक महिला कामगारों को न्यूनतम मेहनताना नहीं मिलता।
ऐसी स्थिति में आम लोगों में निराशा और आक्रोश स्वाभाविक है। देश का प्रधान मंत्री अर्थशास्त्री हो और सरकार के साथ वाम राजनीतिक पार्टियां हों तब हमारे कामगारों की यह बदहाली ! निश्चित तौर पर शासन अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहा।
इस प्रधान मंत्री के बारे में एक बात साफ है। ये जनता के चुने गये प्रत्यक्ष प्रतिनिधि नहीं हैं बल्कि कुछ खास लोगों के चुने गये प्रतिनिधि हैं। इनका चयन और निर्वाचन खास लोगों और खास मतदाताओं ने किया है आम मतदाताओं ने नहीं। सवाल उठता है कि कहीं मनमोहन सिंह सिर्फ खास लोगों के प्रति ही जवाबदेही का निर्वाह तो नहीं करते ? कहीं वे मन में यह सोचकर काम तो नहीं कर रहे कि आम लोगों ने उन्हें नहीं निर्वाचित किया तो भला वे आम लोगों के लिए क्यों काम करें ?