पिछले दिनों पांच राज्यों मे हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे यदि कोई संदेश दे रहे हैं, तो वे संदेश सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ ही हैं। इन पांच राज्यों मे से तीन में तो भाजपा की ही सरकारें थीं। इन तीनों राज्यों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। यह सच है कि विधानसभा और लोकसभा के मुद्दे अलग अलग होते हैं, लेकिन भाजपा की हार का एक मतलब तो यह भी है कि आगामी लोकसभा चुनाव में इन तीनों राज्यों में उसकी लोकसभा की सीटें घट जाएंगी। इन तीनों राज्यों में लोकसभा की कुल 65 सीटें हैं, जिनमें से 62 पर पिछले आमचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार ही जीते थे। जाहिर है, भाजपा को इन राज्यों में नुकसान ही उठाना पड़ेगा। अनुत्तरित सवाल सिर्फ यह रह गया है कि उसे नुकसान कितना होगा।

तेलंगाना और मिजोरम में भी भाजपा ने बड़े जोर-शोर से चुनाव लड़ा था, लेकिन दोनों राज्यों में उसे मात्र एक-एक सीट से ही संतोष करना पड़ा। लिहाजा भाजपा के नये क्षेत्रों में प्रसार अब थम गया है, हालांकि उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों में उसकी अपने सहयोगियों के साथ जीत भी हासिल हुई थी और जोड़तोड़ का इस्तेमाल कर उसने जीत से भी बड़ी जीत हासिल करते हुए कुछ राज्यों में अपनी सरकारें बना लीं।

हिन्दी के तीन प्रदेशों में अपनी सत्ता गंवाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार उसके लिए खास मायने रखते हैं। उत्तर प्रदेश में उसकी हार या जीत उसके अपने प्रदर्शन पर कम और उसके विरोधियों की एकता अथवा फूट पर ज्यादा निर्भर करता है। यदि वहां समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस का पूर्ण गठबंधन हो जाता है, तो फिर 25 सीटें जीतना भी नरेन्द्र मोदी की पार्टी के लिए मुश्किल हो जाएगा। पर फिलहास उस तरह की एकता अभी तक वहां नहीं हो पाई है और वहां गठबंधन कौन सा रूप लेता है, इसका पता नये साल में ही लगेगा। तबतक भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश की अपनी रणनीति तैयार करने के लिए इंतजार करना होगा।

बिहार में भारतीय जनता पार्टी ने जदयू और लोक जनश्क्ति पार्टी से पूर्ण तालमेल बैठाते हुए गठबंधन कर लिया है। लेकिन जिन शर्तों पर यह तालमेल बैठा है, वह भाजपा के लिए शर्मनाक है। उसके पास इस समय लोकसभा की 22 सीटें है और घोषित तालमेल के तहत वह मात्र 17 सीटों पर ही चुनाव लड़ेगी। यानी वहां चुनाव के पहले ही भाजपा ने अपनी 5 सीटें गंवा दी है। उधर राजद के नेतृत्व में वहा महागठबंधन बनना लगभग तय है और दोनों गठबंधनों के बीच जबर्दस्त मुकाबला होगा। नतीजा आने के पहले यह कहना कठिन होगा कि कौन गठबंधन किस पर भारी पड़ेगा, लेकिन एक बात तो तय है और वह यह है कि वहां भाजपा की सीटें घटेंगी और उसके सहयोग से जीते जदयू और लोजपा के सांसद चुनाव के बाद उसके साथ रह ही जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं।

बिहार के पड़ोसी झारखंड के कोलेबिरा विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में कांग्रेस ने चुनाव जीतकर भाजपा को वही संदेश दिया है, जो उसे छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में मिला था। कांग्रेस की वहां शानदार जीत इसलिए भी उल्लेखनीय है कि वहां उसे झारखंड मुक्ति मोर्चा का समर्थन नहीं मिल रहा था। मोर्चा झारखंड पार्टी की उम्मीदवार को समर्थन कर रहा था। झारखंड के मुख्य विपक्षी दल के समर्थन के बावजूद एक बड़ी जीत हासिल कर कांग्रेस ने भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती पेश कर दी है। झारखंड की 14 लोकसभा सीटों मंे इस समय 12 पर भाजपा के ही सांसद हैं। जाहिर है, भाजपा को वहां अपनी मौजूदा सीटें बचाने के लिए भी काफी मशक्कत करना पड़ेगा।

हिन्दी प्रदेशों से ही भाजपा ने सर्वाधिक सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में जीती थी और आज हालत यह है कि लगभग सभी हिन्दी प्रदेशों में उसके लिए स्थिति 2014 के मुकाबले खराब है। इन प्रदेशों में कुल मिलाकर उसे सीटों का नुकसान ही होगा, इतना तो यह है। यह नुकसान कितना होगा, इसके बारे में लोग अलग अलग राय रख सकते हैं।

हिन्दी प्रदेशों के बाद महाराष्ट्र एक ऐसा प्रदेश है, जो सबसे ज्यादा सांसद लोकसभा में भेजता है। वहां लोकसभा की 48 सीटें है, जिनमें से अधिकांश पर भाजपा और उसकी सहयोगी शिवसेना का कब्जा है। पिछली लोकसभा के चुनाव दोनों ने मिलकर लड़ा था। उसके बाद दोनों में खटपट हो गई और विधानसभा चुनाव अलग अलग लड़े। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने शिवसेना पर भारी बढ़त प्राप्त कर ली, लेकिन बहुमत का आंकड़ा न छू पाने के कारण उसे शिवसेना को अपनी सरकार में शामिल करना पड़ा। शिवसेना कह चुकी है कि आगामी लोकसभा चुनाव वह अकेली लड़ेगी। यदि ऐसा होता है, तो यह भाजपा के लिए एक बहुत ही बुरा सपने जैसा होगा, लेकिन शिवसेना ब्लैकमेल के लिए जानी जाती है और अंत में वही फैसला करती है, जिसमें उसका फायदा होता है। इसलिए बहुत संभावना है कि वह चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ेगी। लेकिन क्या भाजपा शिवसेना गठबंधन 2014 की सफलता को दुहरा पाएगा?

कर्नाटक की अधिकांश लोकसभा सीटें भाजपा के पास ही है। 28 में 17 सीटें उसके पास है। लेकिन यदि कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर मिलकर चुनाव लड़ता है, जिसकी संभावना प्रबल है, तो फिर भाजपा का खेल वहां भी बिगड़ेगा।

कुल मिलाकर अभी गणित भाजपा के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वह सत्ता में है और चुनावी एजेंडा तय करने की स्थिति मंे है। इसलिए यह कह देना कि सत्ता उसके हाथ से निकल ही जाएगी, जल्दबाजी का काम होगा। (संवाद)