बदलाव की पहली झलक गुजरात के चुनावों में दिखाई पड़ी थी। राहुल ने वहां हो रहे सामाजिक परिवर्तनों को पहचानने में देरी नहीं की। वहां की दबंग पटेल जाति से लेकर ओबीसी और दलित समाज में कई बदलाव आ गए हैं। ये बदलाव नई आर्थिक व्यवस्था की वजह से हुए हैं। लघु और मध्यम उद्योगों में पटेलों का बोलबाला खत्म हो गया है और बेरोजगारी ने उन्हें आरक्षण की मांग के लिए मजबूर कर दिया। हार्दिक पटेल इस आंदोलन के नेता बन गए। राहुल ने बिना देरी के उनसे अपने संबंध बनाये। ऐसा ही उन्होंने ओबीसी और दलित समाज के नए नेतृत्व के साथ किया। उन्होंने ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को साथ कर लिया।
गुजरात के अभियान में ही दिखाई दे गया कि वह कांग्रेस को समाज में उभर रही नई शक्तियों के साथ जोड़ना चाहते हैं। कांग्रेस का पुराना रवैया ठीक इसके विपरीत रहा है। राज्यों में उभरने वाले नए नेताओं को उसने कभी स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस में यह तरीका इंदिरा गांधी ने विकसित किया था और राजीव गांधी तथा सोनिया गांधी के समय में भी यह बदस्तूर जारी रहा। राहुल ने इस परंपरा में परिवर्तन ला दिया है और सामूहिक नेतृत्व की ओर कदम बढा दिया है। इसके लिए पार्टी के भीतर न्यूनतम लोकतंत्र लाना जरूरी था। गुजरात के चुनावों में उन्होंने अशोक गहलोत जैसे पुराने नेता का साथ लिया था और पार्टी के स्थानीय नेतृत्व को भी भरोसे में। यही रवैया उन्होंने कर्नाटक के चुनावों में अपनाया। वहां भी चुनाव बाद ही सही, उन्होंने देवेगौड़ा की पार्टी जनता दल सेकुलर की अहमियत को समझा ।
राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्य प्रदेश के चुनावों में उन्होंने पार्टी के भीतरी लोकतंत्र को और मजबूत किया। इसके लिए जरूरी था कि उम्मीदवार आदि चुनने में राज्य के नेताओं को सही ढंग से मदद की जाए। उन्होंने भूपेश बघेल को पूरी ताकत दी और ताम्रध्वज साहू को साथ में जोड़ दिया। अजित जोगी के कांग्रेस से जाने के बाद यह आसान हो गया था। इसी तरह, उन्होंने राजस्थान में सचिन पायलट को उभरने का पूरा मौका दिया।
पार्टी के भीतरी लोकतंत्र की परीक्षा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री चुनने के दौरान हुई। कांग्रेस में पहली बार नेताओें के साथ-साथ कार्यकर्ताओं की पसंद को जानने की कोशिश भी हुई। राजस्थान मेें तो कार्यकर्ता सड़क पर भी उतरे। कांग्रेस के बारे में यही परंपरा रही है कि किसी नेता ने अगर अपने पक्ष में हंगामा कराया या बयान दिलाया तो उसका नाम कटा ही समझो। राजस्थान और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री ढूंढना काफी कठिन था क्योंकि दोनों जगह दो- दो बराबर के दावे वाले उम्मीदवार थे। राहुल ने बातचीत के जरिए एक-दूसरे को स्वीकार कराया।
इस पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है कि राहुल गांधी ने पार्टी की उन आर्थिक नीतियों को बदलना शुरू कर दिया है जो विदेशी पूंजी और प्राइवेट कंपनियों को सिर पर बिठा कर चलने वाली हैं। इन नीतियों ने देश में विषमता बढाई। विकास दर बढाने की होड़ में इसने संसाधन की लूट को बढावा दिया। आज देश के एक प्रतिशत अमीरों ने 73 प्रतिशत धन हथिया लिया है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले साल हर दो मिनट पर एक अरबपति पैदा हुआ। इसके विपरीत मजदूरों की आमदनी साल में सिर्फ दो प्रतिशत बढी है। इन नीतियोें की शुरूआत कांगे्रस की नरसिंहा राव सरकार ने की थी। ं।
उदारीकरण के समय से ही आर्थिक सुधारों का शोर रहा है। इसका असर ऐसा था कि मोदी सरकार के आने के बाद से संसद की बहसों में अर्थ से संबंधित हर नीति की घोषणा के बाद आनंद शर्मा जैसे नेता यही कहते पाए जाते थे कि यह तो हमारी नीति की नकल है। यहां तक कि कांग्रेस ने जीएसटी का समर्थन किया। उसे सिर्फ इसे लागू करने को लेकर एतराज था।
राहुुल ने बिना कहे इस कांग्रेस की नीति पलट दी। नोटबंदी पर भी उनका हमला उदारीकरण के समर्थकों की तरह नहीं है। राहुल ने इसे गरीब व्यापारियों, किसानों तथा छोटे उद्योगों को उजाड़ने वाला तथा आम लोगों को परेशान करने वाला कदम बता कर इसके खिलाफ अभियान चलाया।
राहुल का ‘‘चैकीदार चोर है’’ का नारा सिर्फ सांकेतिक और मोदी को भ्रष्ट बताने वाला नारा नहीं है, बल्कि बैंकिंग व्यवस्था और सरकार की कारपोरेट समर्थक नीतियों को उजागर करने वाला है। वह रफाल सौदे से लेकर नीरव मोदी के मामले को जोड़ कर यही बताते हैं कि मोदी भारत के नागरिकों से पैसा चुरा कर अंबानी और अडानी की जेब में डाल रहे हैं। यह भ्रष्टाचार के आम आरोप से अलग है। इसमें आरोप सिर्फ व्यक्तिगत नहीं होकर एक जनविरोधी साजिश में तब्दील हो जाते हैं। मनमोहन सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा के अभियान का निशाना व्यक्ति होते थे, नीतियां नहीं। राहुल व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के व्यापक आर्थिक परिणामों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। यह असल में, उदारीकरण की आर्थिक नीतियोें पर हमला है।
किसानों की कर्जमाफी को लेकर भी उनका नजरिया उदारीकरण- विरोधी है। राहुल ने अपनी पार्टी की घोषित और मनमोहन- चिदंबरम पोषित नीतियों को छोड़ कर किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे को कारपोरेट को टैक्स छूट देने के मुद्दे को जोड़ दिया है। (संवाद)
तेजी से बदल रही है कांग्रेस
राहुल ने राजनीति के फोकस को बदल दिया है
अनिल सिन्हा - 2018-12-31 11:17
हम लोग तेजी से 2019 के लोक सभा चुनाव की ओर बढ़ रहे हैं और देश की राजनीति में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। पिछले दिनों में हमने बहस का एक ऐसा ढांच विकसित कर लिया है कि समाज, अर्थ और राजनीति- सभी क्षेत्रों की पड़ताल कुछ चुने हुए सवालों को ही लेकर होती है। यही कांग्रेस में हो रहे बदलाव को भी लेकर हुआ है। हम यह देख नहीं पा रहे हैं की राहुल गांधी ने कांग्रेस की राजनीति में कितने बदलाव ला दिए हैं। इनके असर में देश की राजनीति भी बदल रही है। यह सच है कि कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति ठहर चुकी थी। इसे लोकतांत्रिक बनाना लगभग नामुमकिन ही था। मीडिया का बड़ा हिस्सा इन बदलावों पर नजर डालने के लिए अभी भी तैयार नहीं है। लोग मानें या न मानें, राहुल ने बरसों से तंग रही कांग्रेस की राजनीति को फैला दिया है और देश की राजनीति के फोकस को भी बदल दिया है।