राज्य सरकार की क्या बात, खुद केन्द्र सरकार ने भी 1991 में आर्थिक आधार पर तथाकथित सवर्णो को 10 फीसदी आरक्षण दिए थे। उस समय मंडल का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित था। दोनों मामलों की सुनवाई एक साथ सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने की थी। पीठ ने सर्वसम्मति से आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण को खारिज कर दिया। इसका कारण बताते हुए यह कहा गया कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था ही नहीं है। उसमें स्पष्ट लिखा गया है कि नागरिकों के पिछड़े वर्ग को ही आरक्षण दिया जाएगा और पिछड़ेपन का आधार सामाजिक और शैक्षिक बताया गया है, आर्थिक नहीं। इसलिए आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण असंवैधानिक माना गया।
इसके अतिरिक्त खुद सप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे रखी है कि आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता। इसके कारण ही ओबीसी को मात्र 27 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है, जबकि मंडल आयोग के अनुसार पिछड़ों की आबादी 52 फीसदी है और सिफारिश भी 52 फीसदी आरक्षण देने की की गई थी। हां, यह कहा गया था कि 50 फीसदी सीमा को ध्यान में रखते हुए ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण फिलहाल दे दिया जाए और बाद में 50 फीसदी की सीमा को हटाकर उनका आरक्षण 52 फीसदी की दिया जाय।
लेकिन किसी सरकार ने 50 फीसदी की सीमा को हटाने के लिए संविधान में संशोधन नहीं किया और न ही आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए किसी प्रकार की संवैधानिक व्यवस्था की। इसका असर यह हुआ कि भिन्न निन्न आंदोलनों के दबाव मे सरकार ने जब जब आंदोलनकारी समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की, कोर्ट में वह व्यवस्था खारिज हो गई।
क्या मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दिए जा रहे 10 फीसदी आरक्षण का भी वही हश्र होगा? यह सवाल उठना लाजिमी है। तो इस सवाल का जवाब यही हो सकता है कि यदि संविधान में किसी तरह के बदलाव किए बिना यह फैसला किसी कानून के द्वारा अमल में लाने की कोशिश की जाती है, तो वह कोशिश विफल हो जाएगी। उस निर्णय को अदालत में चुनौती मिलने के बाद अदालत पहले वाले फैसले को दुहराते हुए उसे खारिज कर देगी। लेकिन यदि सरकार ने पहले से ही सावधानी बरती तो संभवतः सुप्रीम कोर्ट भी कुछ नहीं कर पाएगा।
केन्द्र सरकार की सावधानी यही हो सकती है कि वह संविधान की धारा 15 और 16 में बदलाव कर समाज के अनारक्षित तबकों के गरीब लोगों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर दे। यानी आर्थिक आधार पर आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था हो जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट इस आधार पर इसे खारिज नहीं कर पाएगा कि सरकार का वह निर्णय असंवैधानिक है।
दूसरी अड़चन 50 फीसदी की सीमा है। यह सीमा संविधान ने तय नहीं की है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई सीमा है और इसे संविधान की धारा 15 और 16 की व्याख्या करके ही तय किया गया है। कोर्ट का कहना है कि इन दोनों धाराओ मे जाति, धर्म, वर्ग, ल्रिग इत्यादि के आधार पर किसी तरह भेदभाव न किए जाने की व्यवस्था है और अपवाद के रूप में पिछड़े वर्गाें के लिए इस समतावादी व्यवस्था के उल्ल्ंाघन का प्रावधान है। मतलब नियम यह है कि भेदभाव नहीं होगा और अपभाद है कि नागरिकों के पिछड़े वर्गो के लिए भेदभाव किया जा सकता है। कोर्ट का कहना है कि यदि 50 फीसदी से अधिक का आरक्षण होता है, तो अपवाद ही नियम बन जाएगा और नियम है जो अपवाद हो जाएगा। इसलिए अपवाद को अपवाद बना रहने के लिए आरक्षण केा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता।
फिलहाल संविधान की यह व्यवस्था भी संविधान का हिस्सा बन गई है और इसे खारिज करने के लिए संविधान में संशोधन कर स्पष्ट किया जा सकता है कि यह सीमा 60 फीसदी की जाती है या 50 फीसदी से ऊपर जो आरक्षण दिया जा रहा है वह संविधान के उस नियम का हिस्सा है, जो समान अवसर का अधिकार देता है और भेदभाव के खिलाफ है, क्योंकि इस तरह के आरक्षण में धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र, रेस इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया है, बल्कि भेदभाव आर्थिक आधार पर किया गया है।
यह तो निश्चित है कि सुप्रीम कोर्ट मे इस निर्णय को चुनौती दी जाएगी और उसमे कहा जाएगा कि 50 फीसदी की सीमा का उल्लंधन संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट मे इसके पक्ष और खिलाफ मे तर्क दिए जाएंगे। फैसला तो अंततः सुप्रीम कोर्ट ही करेगी, लेकिन मंडल मुकदमे मे ओबीसी आरक्षण की पैरवी करने वाले वकील रामजेठमलानी ने अपने एक भाषण में एक बार कहा था कि आरक्षण की 50 फीसदी सीमा के टूटने से संविधान का मूल ढांचा टूटना साबित नहीं हो पाएगा, क्योंकि मूल ढांचा क्या है, इसका निर्घारण जज अपने मत के अनुसार नहीं कर पाएंगे और उन्हे संविधान में ही देखना होगा कि क्या 50 फीसदी की सीमा मूल ढांचे का हिस्सा है या नहीं। चूंकि ऐसा कहीं सविधान मे ंनहीं लिखा हुआ है, इसलिए कोर्ट कुछ भी नहीं कर पाएगा। (संवाद)
आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण
क्या सुप्रीम कोर्ट में यह टिक पाएगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-01-08 09:32
मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर अनारक्षित तबकों को दिए जा रहे आरक्षण को लेकर एक सवाल यह खड़ा किया जा रहा है कि यह सुप्रीम कोर्ट में टिक ही नहीं पाएगा, क्योंकि पहले भी इस तरह के निर्णय कोर्ट द्वारा खारिज कर दिए गए हैं। अनेक राज्यों ने समय समय पर आंदोलनों के दबाव में आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले किए और हमेशा सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों ने उन्हें खारिज कर दिया। अनेक बार अनारक्षित जातियों को ओबीसी श्रेणी का कहकर भी आरक्षण देने की कोशिश की गई, लेकिन वे सारी कोशिशें भी नाकाम रहीं।