पांच साल पहले का उनका भाषण भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने वाला और देश को नए सपने दिखाने वाला था, तो पांच साल बाद का उनका भाषण आत्म-प्रशंसा, अपनी सरकार के कामकाज को लेकर बढ-चढकर किए गए दावों तथा विपक्ष के प्रति चिडचिडाहट, झल्लाहट और हताशा से भरपूर रहा, जिसमें उनके पास न तो अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं को देने के लिए कुछ था और न ही देश को देने के लिए। अपनी सरकार के फैसलों पर उठ रहे सवालों से मुंह चुराते हुए उन्होंने रुदन भरे अंदाज में कहा कि विपक्ष उनको हराने के लिए एकजूट हो रहा है। उनका यह बयान न सिर्फ उनकी हताश और पराजित मानसिकता का परिचय देता है बल्कि लोकतंत्र के बारे में दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के शासन प्रमुख की हास्यास्पद समझ को भी उजागर करता है। सवाल है कि आखिर लोकतंत्र में विपक्ष सत्तारूढ दल को चुनाव के जरिए सत्ता से बाहर करने की कोशिश नहीं करेगा तो फिर क्या करेगा?
प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान बताता है कि उन्हें आगामी चुनाव के संदर्भ में दीवार पर लिखी इबारत साफ-साफ समझ आ रही है। हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का संदेश बहुत साफ है कि मोदी सरकार से लोगों का मोहभंग हो रहा है और तीन महीने बाद होने वाले आमचुनाव में उनका सत्ता में बने रहना आसान नहीं है। राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन में मोदी के पूरे भाषण के दौरान लगातार हार का डर नजर आया। उन्होंने कार्यकर्ताओं आम चुनाव की तैयारी में जुट जाने का आह्वान करते हुए साफ कहा- ‘सिर्फ यह मान लेने काम नहीं चलेगा कि मोदी आएगा तो सब ठीक हो जाएगा और हम जीत जाएंगे।’ उनका यह कथन बताता है कि उनका आत्मविश्वास अब तेजी से ढलान पर है।
लगभग डेढ घंटे के भाषण में वे एक थके हुए नेता की तरह नेहरू -गांधी परिवार को जी भर कर कोसने अलावा वे उन्हीं मुद्दों पर सफाई देते नजर आए, जिन्हें राहुल गांधी पिछले कई दिनों से उठा रहे हैं। जाहिर है कि ऐसा करके मोदी ने बता दिया कि वे अगले चुनाव में राहुल गांधी को अपने प्रतिद्वंद्वी के के रूप में देखने लगे हैं और यह मानने लगे हैं कि महागठबंधन बना तो भाजपा के लिए उसकी चुनौती का मुकाबला करना आसान नहीं होगा। यही वजह है कि वे ‘मजबूर सरकार बनाम मजबूत सरकार’ का जुमला उछालकर देश को डराने की कोशिश करते नजर आए।
उनका इशारा 2004 से 2014 तक सत्ता में रही कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार की ओर रहा। वे डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को मजबूर और अपनी सरकार को मजबूत बता रहे थे। लेकिन ऐसा करते वक्त यह भूल गए कि उन दस वर्षों में देश की आर्थिक विकास दर आठ फीसद से ज्यादा थी, जो कि आजाद भारत के अब तक के इतिहास में सबसे तेज विकास दर रही। इतना ही नहीं, उन्हीं 10 वर्षों के दौर में 10 फीसदी से ज्यादा भारतीय गरीबी रेखा से बाहर भी आए। साथ ही मनरेगा जैसी योजनाओं देश के कृषि क्षेत्र का विकास हुआ और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार के नए अवसर पैदा हुए। कुल मिलाकर देश उन दस वर्षों के दौरान तेजी से विकास के रास्ते पर आगे बढा।
जहां तक भ्रष्टाचार और घोटालों की बात है, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी के बाकी नेता चाहे जो दावा करें, जो स्थिति यूपीए शासन के दौरान थी, कमोबेश वही स्थिति आज भी है। रॉफेल लडाकू विमान सौदे पर उठ रहे सवालों को लेकर उनकी सरकार समाधानकारक जवाब देने में नाकाम रही है। खुद मोदी भी उन सवालों का जवाब देने से बचते रहे हैं। इस सिलसिले में उनकी सरकार ने जिस तरह सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे में गलत जानकारी दी और सीबीआई के निदेशक को उन्होंने जिस तरह मनमाने तरीके से हटाया उससे भी उनकी नीयत पर संदेह गहराया है। सिर्फ सीबीआई ही नहीं, बल्कि रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग, सतर्कता आयोग, सूचना आयोग और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करने के मामले में भी उन्होंने पूर्ववर्ती सभी सरकारों को पीछे छोड दिया। यहां तक कि सेना का राजनीतिकरण करने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया।
इस सबके चलते ही पिछले दिनों पांच राज्यों के चुनाव में मोदी लहर का मिथक बुरी तरह खंडित हो चुका है। इन चुनावों में मिली हार के बाद भाजपा में जो बौखलाहट नजर आने लगी है, उसकी व्यापक प्रदर्शन राष्ट्रीय परिषद के दो दिनी अधिवेशन में भी साफ देखने को मिला। इस अधिवेशन में आए तमाम कार्यकर्ता ‘नमो अगेन’ लिखी टोपी पहने हुए थे। पूरा अधिवेशन स्थल ‘अबकी बार फिर मोदी सरकार’ के पोस्टरों-बैनरों से पटा हुआ था। इसके अलावा ‘2019 में जाइए सब कुछ भूल, याद रखिए सिर्फ मोदी और कमल का फूल’ जैसे नारे गूंज रहे थे। लेकिन फिर भी आम चुनाव में जीत का भरोसा नजर नही आ रहा था। देश भर से आए हजारों कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, अरुण जेटली, नितिन गडकरी जैसे तमाम नेताओं ने यही समझाने की कोशिश की कि 2019 में किसी भी तरह भाजपा को जिताना है, वर्ना अनर्थ हो जाएगा।
कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी के पास अपनी उपलब्धि बताने के लिए कुछ नहीं है। इस सबके बीच जब मोदी ‘मजबूर बनाम मजबूत सरकार’ का जुमला उछालते हैं और कुछ दिनों पहले तक पचास साल तक सत्ता में बने रहने का दम भरने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह आगामी आमचुनाव को पानीपत का तीसरा युद्ध बताते हैं तो इससे उनकी हताशा, घबराहट और पराजित मानसिकता की ही झलक मिलती है। (संवाद)
भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन से निकले संकेत
प्रधान मंत्री का भाषण भी निराशा भरा था
अनिल जैन - 2019-01-17 10:27
दिल्ली के रामलीला मैदान में ठीक पांच साल पहले भी इसी जनवरी के महीने में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद का अधिवेशन हुआ था। उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर उनके सूर्योदय का दौर विधिवत प्रारंभ हो चुका था। उस अधिवेशन के माध्यम से उन्होंने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की हैसियत से अपना जो विजन देश के सामने रखा था, उसे सुनकर उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने का विरोध करने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था- ‘आज नरेंद्र भाई को सुनकर ऐसा लगा जैसे हम विवेकानंद को सुन रहे हैं।’ हालांकि आडवाणी की इस प्रतिक्रिया में वास्तविकता का कम और चापलूसी तथा परिस्थितियों के आगे समर्पण का भाव ही ज्यादा था। अब पांच साल बाद उसी रामलीला मैदान में हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण को सुनने के बाद उन्हें विवेकानंद की उपमा देने या उनके भाषण की अतिश्योक्तिपूर्ण तारीफ करने की स्थिति में कोई नहीं है।