2013 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन के बाद अरविंदर सिंह लवली को प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया था, जिन्होंने पदभार संभालते ही पार्टी की मुख्य कार्यकारिणी सहित सभी कमेटियों को भंग कर दिया था। कुछ समय बाद अजय माकन को प्रदेश कांग्रेस की कमान थमा दी गई किन्तु उनके कार्यकाल में पार्टी बुरी तरह से गुटबाजी की शिकार रही और किसी भी कमेटी का गठन नहीं हो सका। गत 16 जनवरी को प्रदेशाध्यक्ष पद पर शीला दीक्षित की ताजपोशी के लिए आयोजित भव्य समारोह में तीनों कार्यकारी अध्यक्षों की मौजूदगी तथा कई दिग्गज नेताओं की उपस्थिति के जरिये बड़े स्तर पर शक्ति प्रदर्शन कर पार्टी ने एकजुटता का संदेश देने का प्रयास किया है और माना जा रहा है कि करीब छह वर्षों से भंग प्रदेश कांग्रेस कमेटी का भी अब शीघ्र गठन किया जाएगा।
पार्टी 2013 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 7 सीटें जीती थी जबकि 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव में तो उसका दिल्ली से पूरी तरह सूपड़ा ही साफ हो गया था। ऐसे में 80 वर्षीया वयोवृद्ध शीला दीक्षित को करीब-करीब मृतप्रायः हो चुकी प्रदेश कांग्रेस की कमान बहुत सोच-समझकर दी गई है। हालांकि 2013 के चुनावों के बाद आलाकमान ने लवली तथा माकन सरीखे नेताओं पर भरोसा जताया किन्तु आखिरकार उसे महसूस हुआ कि अगर दिल्ली की लड़ाई में उसे दमखम के साथ वापस लौटना है तो उसके समक्ष शीला से बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं हो सकता। कटु सत्य यही है कि 2013 में शीला के नेतृत्व में कांग्रेस की हार के बाद से पार्टी अब तक उस सदमे से उबर नहीं सकी। शीला 1998 से 2013 तक लगातार 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही और उन डेढ़ दशकों में दिल्ली में कराए गए विकास कार्यों की बदौलत उन्हें एक अलग पहचान भी मिली। 1991, 1996 तथा 1998 के लोकसभा चुनाव और 1993 के विधानसभा व 1997 के नगर निगम चुनाव में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था किन्तु 1998 में शीला दीक्षित ने जब दिल्ली कांग्रेस की कमान संभाली तो दिल्ली की सत्ता पर पूरे 15 वर्षों तक काबिज रही। वह देश की सबसे सफल मुख्यमंत्रियों में से एक मानी जाती हैं और उनकी छवि एक कुशल प्रशासक तथा पार्टी में सभी को साथ लेकर चलने वाली नेता की रही है। दिल्ली का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर बदलने का श्रेय शीला को ही जाता है और संभवतः इसी कारण आलाकमान ने दिल्ली में पार्टी के बेहद बुरे दौर में शीला पर ही भरोसा जताया है। इस बारे में वह कहती भी हैं कि आलाकमान को लगता है कि मुझे दिल्ली का अनुभव है और इसीलिए उन्होंने इस जिम्मेदारी के लिए मुझे चुना।
1998 में दिल्ली में भाजपा सत्तारूढ़ थी और सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री थी लेकिन देश की राजधानी की बदतर कानून व्यवस्था, महंगाई और आसमान छूती प्याज की कीमतों ने भाजपा के खिलाफ ऐसा माहौल पैदा किया कि सत्ता खिसककर कांग्रेस की झोली में चली गई। यह शीला का राजनीतिक कौशल ही कहा जाएगा कि देशभर में जिस समय कांग्रेस के विरूद्ध हवा बही, उस दौर में भी शीला दिल्ली की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल रही। 2013 में काॅमनवैल्थ गेम्स और टैंकर स्कैम जैसे घोटालों में नाम सामने आने के बाद डेढ़ दशकों तक दिल्ली पर एकछत्र राज करती रही कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल की ‘आप’ ने ऐसी पटखनी दी कि उसके बाद वो उस झटके से उबर नहीं सकी और पार्टी की उस हार के बाद सक्रिय राजनीति से शीला दीक्षित की विदाई हो गई। उसके बाद उन्हें एक रिटायर्ड राजनेता की भांति 11 मार्च 2014 को केरल का राज्यपाल बनाकर राजभवन भेज दिया गया किन्तु उसी वर्ष मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के पश्चात् उन्होंने 25 अगस्त 2014 को ही राज्यपाल पद त्यागकर दिल्ली का रूख किया। दो साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस द्वारा उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया लेकिन सपा से काग्रेस के गठबंधन के बाद शीला दीक्षित की उस चुनाव में कोई उपयोगिता नहीं रह गई। वह एक बार फिर राजनैतिक बियावान में चली गईं।
अब कांग्रेस नेतृत्व को दिल्ली के लिए एक ऐसे अध्यक्ष की तलाश थी, जो न केवल अपनी सकारात्मक छवि के चलते आम लोगों में लोकप्रिय हो बल्कि कई धड़ों में बंटी पार्टी को एकजुट कर उसमें नई जान फूंकने का माद्दा भी रखता हो और इसी वजह से प्रदेश कांग्रेस की कमान शीला को सौंपी गई है। शीला को ऐसे समय यह जिम्मेदारी सौंपी गई है, जब पार्टी का लोकसभा और विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और पार्टी संगठन पूरी तरह बेजान हो चुका है। ऐसे में शीला के समक्ष कितनी बड़ी चुनौतियां मुंह बाये सामने खड़ी हैं, अनुमान लगाना कठिन नहीं है। शीला दीक्षित और उनकी टीम के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में सभी को साथ लेकर चलने और बेजान संगठन में जान फूंकने की है। चुनाव से पहले इन दो-तीन महीनों में सुस्त पड़े नेताओं और निष्क्रिय कार्यंकर्ताओं को सक्रिय कर उनमें जोश भरना और लड़खड़ाती कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा करना शीला के लिए बेहद दुश्कर कार्य है। हालांकि वह कहती हैं कि दिल्ली में कांग्रेस का पुराना दौर फिर से लौटेगा और पार्टी फिर से खड़ी होगी किन्तु आम चुनावों से ठीक पहले इतने अल्प समय में वह ऐसा क्या करिश्मा कर पाएंगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। दिल्ली में निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग कांग्रेस का परम्परागत वोटबैंक माना जाता रहा है किन्तु बीते वर्षों में यह ‘आप’ की ओर शिफ्ट हो चुका है। इस वोटबैंक को इतने कम समय में वापस कांग्रेस की ओर मोड़ना शीला के लिए इतना सहज नहीं होगा।
हालांकि लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के ‘आप’ के साथ गठबंधन की चर्चाएं जोर पकड़ रही हैं। अभी तक दिल्ली कांग्रेस की कमान संभालते रहे अजय माकन पार्टी के ‘आप’ के साथ गठबंधन के सदैव खिलाफ रहे हैं और शीला ने भी अपनी ताजपोशी के वक्त साफ शब्दों में कहा है कि सिख दंगों को लेकर राजीव गांधी से भारत रत्न वापस लेने का जो प्रस्ताव विधानसभा में आप द्वारा पेश किया गया, उसके बाद उसके साथ गठबंधन का कोई मतलब ही नहीं बनता किन्तु राजनीति में कब क्या हो जाए, दावे के साथ भविष्यवाणी करना बेहद मुश्किल है क्योंकि राजनीति में न कोई किसी का स्थायी दुश्मन होता है और न स्थायी दोस्त। बहरहाल, सही मायनों में शीला दीक्षित को प्रदेशाध्यक्ष पद के रूप में कांटों भरा ऐसा ताज मिला है, जिसमें चुनौतियां ही चुनौतियां समायी हैं और उनके नेतृत्व में कांग्रेस आसन्न आम चुनावों में अगर कुछ कमाल कर दिखा पाती है तो यह उसके लिए किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। (संवाद)
दिल्ली कांग्रेस में शीला दीक्षित की ताजपोशी के निहितार्थ
लौटेगा दिल्ली में कांग्रेस का पुराना दौर?
योगेश कुमार गोयल - 2019-01-18 12:25
लोकसभा चुनाव से चंद माह पहले दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद से अजय माकन का इस्तीफा, उसके बाद 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित की प्रदेशाध्यक्ष पद पर ‘शीला दीक्षित आई है, बदलाव की आंधी आई है’ नारों के साथ ताजपोशी और साथ ही तीन कार्यकारी अध्यक्षों हारून युसूफ, राजेश लिलोठिया तथा देवेन्द्र यादव की नियुक्ति, राजनीतिक हलकों में यह सब आम चुनाव के मद्देनजर पार्टी आलाकमान द्वारा जातीय और धार्मिक समीकरण साधने का प्रयास माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद अगले साल के शुरू में ही विधानसभा चुनाव भी होने हैं, इस लिहाज से प्रदेश में पार्टी संगठन को पुनर्जीवित करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनके संकेत स्पष्ट हैं। अलग-अलग समुदायों से तीन कार्यकारी अध्यक्षों के जरिये पार्टी ने सभी जातियों और वर्गों के मतदाताओं को साधने का दांव खेला है।