गौरतलब है कि राहुल गांधी ने पिछले दिनों छत्तीसगढ में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में आती है तो हर व्यक्ति की न्यूनतम आमदनी सुनिश्चित की जाएगी। राहुल की इस घोषणा को जहां कांग्रेस में भाजपा के खिलाफ ‘मास्टर स्ट्रोक’ या ‘गेम चेंजर शॉट’ कहा जा रहा है, वहीं बसपा अध्यक्ष ने राहुल के इस वायदे की विश्वसनीयता पर सवाल उठा कर इसे गरीबों के साथ ‘क्रूर मजाक’ और ‘छलावा’ करार दे दिया है। मायावती ने राहुल के न्यूनतम आमदनी गारंटी वाले बयान की तुलना 2014 में किए गए भाजपा के ‘अच्छे दिन’ के जुमले से भी कर डाली। बसपा सुप्रीमो ने भाजपा और कांग्रेस को तराजू के एक ही पलडे में रखते हुए कहा कि विश्वसनीयता के मामले में दोनों पार्टियों का रिकॉर्ड बेहद खराब है।

दरअसल मायावती इस समय अपने राजनीतिक जीवन के बेहद चुनौती भरे दौर से गुजर रही हैं। इस समय लोकसभा में उनकी पार्टी प्रतिनिधित्वविहीन है और उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी उनकी पार्टी के महज 19 विधायक हैं। अन्य राज्यों की विधानसभा में भी बसपा प्रतिनिधित्व पहले से कम हुआ है और प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी गिरावट आई है, जिसके चलते उसकी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की मान्यता खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है। इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव मायावती के अब तक के राजनीतिक जीवन का सबसे निर्णायक चुनाव रहने वाला है। उत्तर प्रदेश में इस चुनाव के नतीजे और उनकी पार्टी को मिलने वाली सीटों से ही उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य निर्धारित होगा।

यद्यपि सपा-बसपा ने अपने गठबंधन में कांग्रेस को जगह नहीं दी, लेकिन राहुल गांधी ने कोई तल्खी न दिखाते हुए इस पर बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दी। उन्होंने गठबंधन का स्वागत किया तथा ऐलान किया कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने दम पर चुनाव लडेगी। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन का मुकाबला वैसे तो सीधे तौर पर भाजपा से होना है, लेकिन पिछले तीन दशक से सूबे की राजनीति में हाशिए पर पडी कांग्रेस ने जिस तरह प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में उतार कर लोकसभा चुनाव के लिए उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है, उससे साफ है कि कांग्रेस भी यह चुनाव ‘करो या मरो‘ की शैली में लडने जा रही है। राहुल गांधी ने कहा भी है कि कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश में फ्रंट फुट पर खेलेगी।

साढे तीन-चार दशक पहले जब इंदिरा गांधी के समय तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी तब दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण उसके मुख्य वोट बैंक हुआ करते थे। लेकिन अस्सी के दशक में बसपा के उभार ने कांग्रेस से उसका दलित जनाधार छीन लिया। राम मंदिर आंदोलन की लहर में ब्राह्मण कांग्रेस का साथ छोड कर भाजपा के साथ बह गए और बाबरी मस्जिद ध्वंस की वजह मुसलमान कांग्रेस को छोडकर सपा के साथ चले गए।

मायावती को लगता है कि ‘न्यूनतम आमदनी गारंटी’ वाले राहुल गांधी के वायदे से उत्तर प्रदेश में उनका दलित जनाधार प्रभावित हो सकता है, इसलिए उन्होंने इस वायदे की खिल्ली उडाने और राहुल पर निशाना साधने में जरा भी देरी नहीं की। ऐसा करते हुए उन्होंने प्रकारांतर से अपने जनाधार वर्ग को भी सचेत किया है कि वह किसी तरह की झांसेबाजी या लालच में न फंसे। उन्होंने एक तरह से भाजपा को भी संदेश दिया है कि उन्होंने सपा के साथ गठबंधन जरुर किया है लेकिन कांग्रेस से संबंधों को लेकर वह सपा से अलग लाइन भी ले सकती हैं। राहुल गांधी के ‘न्यूनतम आमदनी गारंटी’ वाले वायदे पर भाजपा ने भी मायावती से मिलती-जुलती प्रतिक्रिया जताई है। गौरतलब है कि इस बारे में अखिलेश यादव या उनकी पार्टी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। अलबत्ता अखिलेश ने प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने का स्वागत जरूर किया है।

दरअसल राजनीति में हकीकत से ज्यादा सपने करामात दिखाते हैं। मायावती का भी देश की पहली दलित प्रधानमंत्री बनने का सपना पुराना है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का नारा भी दिया था। तब वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। उन्हें उम्मीद थी कि त्रिशंकु लोकसभा आएगी और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी करने का अवसर मिलेगा। लेकिन कांग्रेस फिर से सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी और मायावती की हसरत अधूरी रह गई थी। 2013 में तो उन्होंने अपनी पार्टी द्वारा आयोजित ब्राह्मण महासम्मेलन में मंत्रोच्चार, शंख, घंटे, घडियाल और नारों के बीच खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया था। उन्हें उम्मीद थी कि दलित-ब्राह्मण गठजोड चुनाव में रंग लाएगा लेकिन चुनाव के नतीजे आए तो उनकी पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया।

अब एक बार फिर आगामी चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनने के कयासों के मद्देनजर वे अपने इस सपने को भरपूर हवा देना चाहती हैं। मायावती ने विपक्षी दलों में अपनी स्वीकार्यता बनाने-बढाने के मकसद से कई मौकों पर लचीला रवैया अपनाया। इस सिलसिले में पिछले साल उत्तर प्रदेश में लोकसभा की तीन सीटों के लिए उपचुनाव में उन्होंने दो सीटों पर समाजवादी पार्टी को और एक पर राष्ट्रीय लोकदल को बिना शर्त समर्थन दिया।राजनीति संभावनाओं का खेल है और परस्पर विरोधाभासों को साधने की कला भी। अगर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के संभावित गठबंधन को अगले चुनाव में कामयाबी नहीं मिलती है और त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनती है तो मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकती हैं। त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में भाजपा भी मायावती को साधने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगी। वह मायावती को समर्थन दे भी सकती है और उनसे समर्थन ले भी सकती है। आखिर मायावती उत्तर प्रदेश में तीन बार भाजपा के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बनी (संवाद)