उस पृष्ठभूमि में ही नरेन्द्र मोदी का उदय है। उनका कोई परिवार नहीं था और यह माना जाता है कि परिवार ही व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है, इसलिए माना गया था कि श्री मोदी भ्रष्ट नहीं हो सकते। उनके ऊपर भ्रष्टाचार के कोई आरोप भी नहीं लगे थे। इसलिए उनकी ईमानदारी पर किसी को शक भी नहीं हो सकता था। उनकी छवि एक काम करने वाले एक मुख्यमंत्री की भी थी, इसलिए लोगों को लगा कि वे प्रधानमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आकांक्षाओं को पूरा कर सकेंगे।

लोग प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद मोदी से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक्शन चाहते थे, लेकिन लोगों को निराशा हाथ लगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग और जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, उन पर उनकी चुप्पी बहुत ही खलने वाली थी। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में बहुत भ्रष्टाचार हुए थे, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई का किसी तरह का संकेत मोदी सरकार नहीं दे रही थी। राॅबर्ट वाड्रा पर कार्रवाई करने के बदले कमिटी और कमिशन गठित करने का पुराना खेल हरियाणा सरकार खेल रही थी।

छह महीने में ही स्पष्ट हो गया कि प्रधानमंत्री मोदी की भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने में कोई दिलचस्पी नहीं। सिर्फ चुनाव जीतने के लिए वे अपने विरोधी नेताओं का उल्लेख चुनावी भाषणों के दौरान जरूर करते थे, लेकिन कार्रवाई नहीं करते थे। इसका असर 2015 में हुए दिल्ली के विधानसभा चुनावों में दिखाई पड़ा। भ्रष्टचार के खिलाफ आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल थे। मोदी से निराश दिल्ली के लोगों ने भारी पैमाने पर केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के पक्ष में वोट डाला और 70 में से 67 सीटें केजरीवाल की पार्टी जीत गई।

दिल्ली की हार के बाद भी मोदी सरकार को अपने जनादेश का मतलब समझ में नहीं आया अथवा समझकर भी वह भ्रष्टाचार के मसले पर किसी तरह की सक्रियता दिखाने के मूड में नहीं थी। लोकपाल की नियुक्ति में भी उसकी दिलचस्पी नहीं थी, जबकि यूपीए सरकार के दौरान ही लोकपाल कानून बन चुका था। मोदी सरकार को सिर्फ उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करनी थी और नियुक्ति को अंजाम दे देना था। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी को लगा कि भ्रष्टाचार देश की कोई समस्या ही नहीं है और यह अब उनके खिलाफ चुनावी मुद्दा बन ही नहीं सकता, क्योंकि उनके विरोधी तो भ्रष्टाचार से सने हैं।

लेकिन भला हो राहुल गांधी का, जिन्होंने राफेल मुद्दे को उठाकर प्रधानमंत्री मोदी पर ही भ्रष्ट होने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। हालांकि अन्य पार्टियों के नेताओं के लिए राफेल कोई मुद्दा नहीं था, लेकिन राहुल गांधी ने इस मुद्दे को पब्लिक मेमोरी से खत्म होने नहीं दिया और जब कभी मौका मिला, इसकी जांच की मांग करते रहे और लोगों को बताते रहे कि कैसे 58 हजार करोड़ रुपये के सौदे में 30 हजार करोड़ अनिल अंबानी के पास वापस आने की व्यवस्था की गई। विमान की बढ़ी कीमतों का मुद्दा उन्होंने उठाया और यह भी कहा कि दशकों से हथियार उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड के बदले एक अनुभवहीन कागजी अनिल अंबानी की कंपनी को ठेका दे दिया गया।

राहुल गांधी ने राफेल को मुद्दा बनाते हुए मोदी पर निजी हमले तेज कर दिये और "चौकीदार चोर है" का मुहावरा गढ़ डाला। यह मुहावरा नरेन्द्र मोदी पर सीधे चोट करने के लिए था और इससे मोदी का तिलमिलाना स्वाभाविक था। यह स्पष्ट हो गया कि 2019 का चुनाव भी 2014 की तरह ही भ्रष्टाचार के मसले पर होना है, पर इस बार भ्रष्टाचार का यह मसला मोदी और उनकी पार्टी के खिलाफ जाता दिख रहा था। मोदी और भाजपा के पास भी अपने विरोधियों के खिलाफ कहने के लिए बहुत कुछ था, लेकिन सत्ता में रहकर वे अपने विरोधियों पर भ्रष्ट होने का आरोप मात्र लगाकर लोगों का विश्वास नहीं जीत सकते थे।

सत्ता अपने विरोधियों पर आरोप लगाने के लिए नहीं मिलती। आरोप लगाने का काम विपक्ष का होता है। जो सत्ता में होते हैं, उनका काम भ्रष्टाचार के खिलाफ एक्शन लेने का होता है और इस बिन्दु पर मोदी के पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था। पनामा पेपर्स में अनेक लोगों के नाम आए। उस पर भी सरकार ने कुछ नहीं किया। उन्हीें पेपर्स के कारण पड़ोसी पाकिस्तान में नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री का पद चला गया, लेकिन भारत में पनामा पेपर्स पर जांच किस स्थिति में है, अभी तक किसी को पता नहीं।

बहरहाल, "चौकीदार चोर है" के करारे हमले के बाद अब मोदी सरकार की नींद टूटी है और वह भ्रष्टाचार के मामले पर सक्रिय हुई है। इसके कारण वह सारदा घोटाले पर सक्रिय हुई है। लालू यादव से जुड़े आईआरसीटीसी घोटाले पर भी चार्जशीट दाखिल किया जा चुका है और मायावती व अखिलेश से संबंधित कुछ छापामारी भी हुई है। राबर्ट वाड्रा से पूछताछ हुई है और पी चिदंबरम और उनके बेटे भी जांच की गिरफ्त में हैं।

यह सब हो रहा है आमचुनावों के कारण। भ्रष्टाचार एक बार फिर मुद्दा बना है और इसे बनाया है राहुल गांधी ने। अब प्रधानमंत्री को यह बताना है कि वे भ्रष्टाचार पर बहुत गंभीर हैं और भ्रष्ट नेताओं को भी सजा दिलाने की मंशा रखते हैं। पता नहीं, उनकी प्रतिबद्धता का स्तर कितना है, लेकिन जब यह सब चुनावों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, तो सवाल उठता है कि क्या मोदी अपनी इस सक्रियता से वोट बटोर सकेंगे? (संवाद)