वैसे पिछले काफी समय से शिवसेना जिस प्रकार एनडीए का अहम हिस्सा रहते हुए भी भाजपा के खिलाफ मुखर रही और बार-बार अपने तीखे तेवरों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपाध्यक्ष अमित शाह को भी आड़े हाथों लेती रही, उससे राजनीतिक हलकों में कयास लगाए जाते रहे कि शायद अब दोनों का गठबंधन न हो पाए किन्तु राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं।
गत वर्ष जनवरी माह में शिवसेना ने कहा था कि 2019 के लोकसभा और फिर विधानसभा चुनावों में वह भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ेगी लेकिन उसके बाद 11 अप्रैल 2018 को एक समारोह में शिवसेना सांसद संजय राउत के सवालों के जवाब में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने स्पष्ट करते हुए कहा था कि शिवसेना ने भाजपा के साथ सौतन की तरह व्यवहार किया किन्तु 2019 के चुनाव में शिवसेना के समक्ष भाजपा के साथ हाथ मिलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उससे एक ओर जहां भाजपा-शिवसेना के दरकते रिश्तों को लेकर नई बहस शुरू हो गई थी, वहीं काफी हद तक यह भी स्पष्ट हो गया था कि तमाम विरोधाभासों बयानों के बावजूद चुनावों से पहले दोनों दलों का गठबंधन तय है। शिवसेना की ओर से कहा जाता रहा कि भाजपा विगत तीन वर्षों से सहयोगी होने के बावजूद शिवसेना का मनोबल गिराने का कार्य कर रही है और भाजपा द्वारा शिवसेना को उचित सम्मान न दिए जाने के कारण ही इस दोस्ती में दरार पैदा हुई है, जिस कारण इस रिश्ते को कायम रखना संभव नहीं। जिस प्रकार काफी समय से तीखे तेवर अपनाते हुए शिवसेना भाजपा को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रही थी लेकिन अलग चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद प्रदेश और केन्द्र दोनों ही जगह भाजपा की सहयोगी की भूमिका में सत्ता सुख भी भोगती रही, उससे यही संकेत मिलते रहे कि अंततः चुनाव आते-आते दोनों फिर एक साथ चुनाव मैदान में उतर सकते हैं।
शिवसेना महाराष्ट्र का एक ऐसा राजनीतिक दल है, जिसका गठन मुख्यतः मराठी तथा हिन्दुत्व विचारधारा को लेकर हुआ था और उसे मतदाताओं को ‘मराठी मानुष’ और ‘जय महाराष्ट्र’ के दायरे में समेटने में सफलता मिली। गैर मराठी लोगों के विरोध के चलते ही महाराष्ट्र में इस पार्टी का उदय बड़ी तेजी से हुआ। गैर मराठियों के खिलाफ विषवमन के चलते पार्टी बाल ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में गहरी पैठ बनाने में सफल हुई और इसने न केवल आमजन बल्कि उद्योग जगत तथा मजदूर संगठनों तक को मराठी और गैर-मराठी के नाम पर बांटकर अपनी राजनीति चमकाई। शिवसेना के सदस्य शिव सैनिक कहे जाते है, जो प्रायः गैर मराठी लोगों पर हमले करते रहे हैं। इस पार्टी का गठन 19 जून 1966 को बाल ठाकरे द्वारा किया गया था और पहली बार उन्होंने 1989 में भाजपा के साथ लोकसभा तथा महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन किया था। 1995-1999 के बीच महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार भी बनी और वह 1998 से ही एनडीए का एक प्रमुख घटक रही है। 17 नवम्बर 2012 को बाल ठाकरे के निधन के बाद उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने पार्टी की बागडोर संभाली।
जहां तक वर्तमान में महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना के वर्चस्व की बात है तो उसे महाराष्ट्र में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में देखा जाता रहा है। पार्टी की पिछड़े वर्गों तथा मुम्बई और मराठवाड़ा क्षेत्र में आज भी काफी पकड़ है किन्तु इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उसके पास जो विशाल जनाधार पार्टी संस्थापक बालासाहेब ठाकरे के समय था, वह उनके निधन के बाद सिकुड़ा है। प्रदेश में आज भी शिवसेना के समर्थक बड़ी तादाद में हैं किन्तु पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे बालासाहेब के जाने के बाद से ऐसा कोई करिश्मा नहीं कर पाए, जिससे पार्टी से जुड़े लोगों में नए जोश, नई उमंग और नए उत्साह का संचार हो सके बल्कि पार्टी से जुड़े अधिकांश लोग वही हैं, जो बालासाहेब के विचारों के प्रति निष्ठावान रहे हैं। हकीकत यही है कि आज पार्टी के पास बालासाहेब के कद का कोई नेता नहीं है। शिवसेना का जनाधार किस कदर सिकुड़ा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2014 से लेकर अब तक प्रदेश में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें उसका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा। पंचायत चुनाव हों या नगर पंचायत, नगर परिषद अथवा महानगरपालिका चुनाव, हर कहीं शिवसेना से अधिक सफलता भाजपा को मिली। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना ने महज 6 माह बाद विधानसभा चुनाव में अकेले ताकत आजमाने का निर्णय लिया था किन्तु सिर्फ 63 सीटों पर सिमट गई थी जबकि 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में भाजपा 122 सीटें पाने में सफल रही थी। चुनाव के बाद भाजपा ने शिवसेना के सहयोग से ही प्रदेश में सरकार बनाई, जिसमें आज भी शिवसेना के 5 कैबिनेट तथा 12 राज्यमंत्री हैं और केन्द्र में भी वह भाजपा सरकार की भागीदार है।
शिवसेना भले ही पिछले काफी समय से गठबंधन खत्म करने जैसी बातें करती रही हो और बार-बार भाजपा से अलग होने की चेतावनियां देती रही हो लेकिन विभिन्न अवसरों पर मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने साफ किया कि शिवसेना के समक्ष भाजपा के साथ हाथ मिलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दरअसल महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो विधानसभा में सरकार बनाने के लिए भाजपा और शिवसेना दोनों को ही एक-दूसरे के सहयोग की जरूरत है। दरअसल महाराष्ट्र में भाजपा की सबसे बड़ी मजबूरी यही है कि वह शिवसेना के सहारे के बगैर यहां मजबूती हासिल नहीं कर सकती। शिवसेना के साथ गठबंधन की औपचारिक घोषणा के बाद हालांकि भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है लेकिन इससे शिवसेना के कार्यकर्ताओं में रोष उत्पन्न हो गया है। दरअसल कार्यकर्ताओं का कहना है कि वो लंबे समय से राम मंदिर, नोटबंदी, किसान आत्महत्या, बेरोजगारी सरीखे मुद्दों को लेकर जिस पार्टी का लगातार विरोध कर रहे थे, अब किस मुंह से जनता के बीच उसी के लिए समर्थन मांगने जाएंगे और कैसे मतदाताओं के मन में यह विश्वास पैदा करेंगे कि हम उनके साथ हैं। लंबे अरसे तक भाजपा-विरोध की राजनीति करने के बावजूद शिवसेना ने चुनाव से ठीक पहले एकाएक जिस तरह से पलटी मारी है, उससे पहले से ही उसकी नैतिकता पर उठते रहे सवाल उसकी सेहत पर भारी पड़ सकते हैं। बहरहाल, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि शिवसेना ने महाराष्ट्र तथा केन्द्र सरकार में सत्ता की साझीदार रहते हुए दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपानीत सरकारों की कार्यशैली पर जो गंभीर सवाल उठाए, उनसे अब यह गठबंधन किस प्रकार निपटेगा! (संवाद)
भाजपा-शिवसेना की दोस्ती के निहितार्थ
दोनों में सौतन का रिश्ता है
योगेश कुमार गोयल - 2019-02-20 12:20
भाजपा और शिवसेना आखिरकार लोकसभा चुनाव के ऐलान से ठीक पहले एक-दूसरे के साथ आ ही गए। शिवसेना के साथ चुनाव से पहले पुनः गठबंधन करने में सफल हुई भाजपा के लिए यह एक बड़ी सफलता है। महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं और समझौते के तहत भाजपा को 25 और शिवसेना को 23 सीटें मिली हैं जबकि 288 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव में दोनों दल 140-140 सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हुए हैं जबकि 8 सीटें दूसरे सहयोगियों के लिए छोड़ी गई हैं। हालांकि शिवसेना की लंबे समय से मांग थी कि उसे अधिक सीटें दी जाएं और मुख्यमंत्री पद भी उसी की झोली में आए किन्तु भाजपा शिवसेना के दबाव के समक्ष न झुकते हुए भी गठबंधन करने में कामयाब रही। पिछले लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने केवल 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था जबकि इस बार उसके खाते में 23 सीटें आई हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 24 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 23 सीटें जीती थी जबकि शिवसेना 22 सीटों पर लड़कर 18 सीटें जीतने में सफल हुई थी।