जब उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की संभावना प्रबल दिखाई पड़ रही थी, तो मोदी सरकार की वापसी के आसार धूमिल हो गए थे। उत्तर प्रदेश के लिए महागठबंधन का मतलब था सपा, बसपा, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन। इनमें भी सपा और बसपा का गठबंधन सबसे ज्यादा मायने रखता था, क्योंकि इन दोनों पार्टियों की संयुक्त ताकत 40 फीसदी से ज्यादा मत पाने का माद्दा रखती है। इस गठबंघन के साथ यदि कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल भी आ जाए, तो इस महागठबंधन के पास 50 फीसदी के लगभग मत पाने की शक्ति आ जाती है।

जाहिर है, यदि यह महागठबंधन बन जाता, तो फिर भारतीय जनता पार्टी की हार भी उतनी ही करारी होती, जितनी शानदार उसकी 2014 की जीत थी। तब स्थिति बिलकुल पलट जाती। महागठबंधन को 71 सीटें और शायद भाजपा 7 सीटों तक ही सीमित रह जाती। लेकिन वैसा हुआ नहीं। सबसे पहले तो मायावती ने यह सुनिश्चित किया कि कांग्रेस को इस गठबंधन से बाहर रखा जाय। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अपने गठबंधन के साथ रखने के लिए मायावती ने यह शर्त लगा दी थी कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी कांग्रेस उसके साथ गठबंधन करे। कांग्रेस उन राज्यों में भी माया की पार्टी के साथ गठबंधन करना चाहती थी, लेकिन मायावती ने जरूरत से ज्यादा सीटों की मांग कर दी, जो कांग्रेस को मंजूर नहीं हो सकता था।

तैश में आकर मायावती ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रस्तावित महागठबंधन से बाहर कर दिया। इसका एक कारण यह भी है कि मायावती कांग्रेस के फिर से मजबूत होने से डरती भी है। उत्तर प्रदेश के दलित कांग्रेस के परंपरागत समर्थक रहे हैं। मंडल आयोग की सिफारिशें 1990 में लागू किए जाने के बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका के कारण वे कांग्रेस विरोधी हो गए। वे जनता दल की ओर झुके और बाद में कांशीराम के नेतृत्व वाली बसपा की ओर, जिसकी दूसरी बड़ी नेता मायावती थीं। अब मायावती ही बसपा की सुप्रीमो हैं, लेकिन जिस दलित आक्रामकता के बल पर कांशीराम ने दलितों को कां्रगेस और बाद में जनता दल से तोड़ा था, उस दलित आक्रामकता की तिलांजलि मायावती ने दी है। अब उनका दलित आधार पहले जैसा मजबूत नहीं रहा और उत्तर प्रदेश के दलित एक बार फिर हाथी छोड़कर कांग्रेस के हाथ के ओर जा सकते हैं।

यही कारण है कि मायावती नहीं चाहेगी कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक बार फिर मजबूत हो। इसलिए उन्होंने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस द्वारा भाव नहीं दिए जाने का हवाला देते हुए देश सबसे बड़ी पार्टी से न केवल दूरी बना ली, बल्कि भाजपा के साथ साथ वह कांग्रेस विरोधी बयान भी देती रही। दूसरी ओर अखिलेश यादव चाहते थे कि कांग्रेस को भी गठबंधन में शामिल कर लिया जाय ताकि भाजपा को करारी शिकस्त दी जा सके। इसके लिए अखिलेश और भी त्याग करने को तैयार थे। वैसे वे मायावती के लिए पहले ही काफी त्याग कर चुके थे। उत्तर प्रदेश में माया की पार्टी की अपेक्षा अखिलेश की पार्टी ज्यादा मजबूत है। लोकसभा में समाजवादी पार्टी के 7 सांसद हैं, जबकि बसपा का एक भी नहीं। उत्तर प्रदेश विधानसभा में सपा के 47 विधायक हैं, जबकि बसपा के सिर्फ 18 है। बिना किसी गठबंधन के अखिलेश अपना चुनाव जीतने की क्षमता रखते हैं, लेकिन मायावती अपनी पार्टी के बूते उत्तर प्रदेश के किसी भी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं जीत सकतीं।

इन तथ्यों के बावजूद अखिलेश यादव ने मायावती की पार्टी को 38 सीटें दे दीं और अपनी पार्टी के लिए 37 सीटें पाकर ही संतुष्ट हो गए। लेकिन मायावती का एजेंडा वह नहीं है, तो अखिलेश यादव का है। अखिलेश यादव का एजेंडा भारतीय जनता पार्टी को पराजित करना है, जबकि मायावती के लिए यह मायने नहीं रखता कि भाजपा की सरकार बने या कांग्रेस की, उनके लिए मायने यह रखता है कि जो सरकार बनेगी, उसमें उनके लिए क्या होगा। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो मायावती के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण अपनी और अपनी पार्टी की राजनीति को बचाना है न कि किसी अन्य पार्टी को हराना या जिताना। और कांग्रेस के मजबूत होने से बसपा उत्तर प्रदेश में कमजोर होती है, इसलिए कांग्रेस की हार माया के लिए ज्यादा जरूरी है न कि भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर करना।

मायावती की इस राजनीति से फायदा भाजपा को ही होने वाला है। कांग्रेस द्वारा भारी संख्या में उतारे जाने से भाजपा विरोधी मुस्लिम मतों का विभाजप अवश्वयंभावी है और मुस्लिम वहां करीब 20 फीसदी हैं। और सवाल सिर्फ मुस्लिम मतों का विभाजन ही नहीं है, समाजवादी पार्टी के अपने कोर वोट में विभाजन की नौबत भी आ खड़ी हुई है। मायावती के लिए त्याग करने वाले अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल के लिए त्याग करने को तैयार नहीं हुए। जिस तरह मायावती को कांग्रेस के बढ़ने से डर लगता है, उसी तरह अखिलेश को चाचा शिवपाल के बढ़ने से डर लगता है, इसलिए उन्हें सूई की नोक के बराबर जमीन देने को अखिलेश तैयार नहीं हुए।

अब वही शिवपाल बसपा उम्मीदवारों की हार के कारण बनेंगे। जिन 38 सीटों को अखिलेश ने मायावती के लिए छोड़ दिया है, उन पर शिवपाल समाजवादी पार्टी के नेताओं को खड़ा कर सकते हैं और इस तरह सपा- बसपा गठबंधन भी जमीन पर शायद नहीं उतर पाए। उधर सपा के संस्थापक अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव नरेन्द्र मोदी को आशीर्वाद दे चुके हैं और सपा के दफ्तर में जाकर वे अखिलेश यादव को कोसते रहते हैं। इसके कारण एक तरफ तो मुसलमानों में भ्रम पैदा होगा और वे ज्यादा से ज्यादा कांग्रेस की ओर भागेंगे और दूसरी तरफ शिवपाल की पार्टी मजबूत होगी। और कुल मिलाकर भाजपा केा फायदा होगा। (संवाद)