आरक्षण की राजनीति करने वाली पार्टियों और उनके नेताओं को सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला और रोस्टर सिस्टम समझ में नहीं आ रहा था। लिहाजा, वे बहुत दिनों तक चुप रहे। लेकिन उस आंदोलन में चुनावी लाभ उन्हें अब दिखने लगा है। इसलिए अब कुछ राजनेता इस विवाद मे कूद पड़े हैं और कुछ कूदने वाले हैं। जाहिर है, यदि यथास्थिति बनी रही, तो इससे सत्ताधारी दलों को नुकसान होगा और उन पर आरोप लगेगा कि वे आरक्षण को अदालत के रास्ते समाप्त करवाने पर तुले हुए हैं।

सच कहा जाय, तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार नहीं, बल्कि दो बार विषयवार आरक्षण के पक्ष में फैसला किया। उसके पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसके पक्ष में फैसला किया था। उसका विरोध हुआ और केन्द्र सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोट्र मे अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। उसका काफी विरोध हुआ और केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की। अब वह पुनर्विचार याचिका भी खारिज हो चुकी है और यदि सरकार ने अध्यादेश लाकर उस फैसले पर रोक नहीं लगाई, तो विषयवार आरक्षण के तहत ही विश्वविद्यालय शिक्षकों की रिक्तियों को भरेंगे और उसके कारण ओबीसी अभ्यर्थियों को थोड़ा, पर एससी और एसटी अभ्यर्थियों को भारी नुकसान होंगे।

इस विवाद मे 13 प्वांइट और 200 प्वांइट रोस्टर की खूब चर्चा हो रही है। मांग की जा रही है कि केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण अस्तित्व में आए 13 प्वांइट रोस्टर को अध्यादेश लाकर समाप्त करे और 200 प्वाइंट रोस्टर की पुरानी व्यवस्था को फिर से बहाल करे। लेकिन रोस्टर के इस विवाद में आरक्षणवादी समस्या के मूल को ही भूल रहे हैं।

समस्या विषयवार आरक्षण में नहीं है और न ही 200 प्वांइट रोस्टर इसका समाधान है। 200 प्वाइंट रोस्टर के बावजूद आरक्षित वर्गो की अधिकांश सीटें खाली पड़ी हुई थीं। असली समस्या यह है कि विश्वविद्यालयों को ही शिक्षकों की नियुक्तियों का अधिकार मिला हुआ है। रोस्टर सिस्टम उनको मिले इस अधिकार की ही उपज है, चाहे वह 200 प्वांइट वाला हो या 13 प्वाइंट वाला। यदि विश्वविद्यालयों का यह अधिकार छीन लिया जाय और संघ लोक सेवा आयोग केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए और राज्य लोक सेवा आयोग राज्यों के विश्वविद्यालयों के लिए शिक्षकों की नियुक्तियां करें, तो रोस्टर से पैदा हुई समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी।

दरअसल शिक्षकों की नियुक्ति में रोस्टर सिस्टम इसलिए अस्तित्व में आया कि एक बार में बहुत सारी रिक्तियां किसी विश्वविद्यालय या काॅलेज में नहीं होतीं। इसलिए नियुक्तियों की संख्या भी एक बार में इतनी कम होती है कि सभी आरक्षित समुदायों को नियुक्ति के एक विज्ञापन में आरक्षण नहीं दिए जा सकते। यानी एक एक ही पद पर नियुक्ति विज्ञापित हो, तो फिर उसे किसे दिया जाय, यह सवाल खड़ा हो जाता है। उसी सवाल को हल करने के लिए रोस्टर सिस्टम खड़ी की गई है। विश्वविद्यालयों ने 200 नियुक्तियों की सूची (रोस्टर) तैयार कर रखी थी और तय कर रखा था कि किस नंबर की नियुक्ति पर ओबीसी है, किस नंबर पर एससी है और किस नंबर पर एसटी है। किस नंबर पर विकलांग सीट है। इसे भी तय कर दिया था। 200 प्वाइंट रोस्टर इसलिए किया गया था, ताकि एसटी की 15 सीटों के नंबर तय किए जाएं। 100 प्वाइंट रोस्टर होने से एसटी को साढ़े सात सीट ही देनी पड़ती, लेकिन साढ़े सात सीट होती ही नहीं है, इसलिए 200 प्वाइंट रोस्टर बनाया गया, ताकि एसटी को साढ़े 7 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित किया जा सके।

वह रोस्टर पूरे विश्वविद्यालय को ध्यान में रखकर बनाया गया था, लेकिन समस्या यह थी एक साथ कई विभागों की रिक्तियों को भरा जाना होता था, जिसके कारण किसी विभाग में रोस्टर के कारण एक ही वर्ग को आवेदन करने का मौका मिल पाता था और दूसरे वर्ग के लोग तो आवेदन ही नहीं कर पाते थे। इसके अतिरिक्त प्रतियोगिता तो एक ही विषय के लोगों के बीच किसी विषय के लिए हो सकती है, लेकिन ऐसा इस व्यवस्था में संभव नहीं हो पाता था। मामला कोर्ट में जाने के बाद विश्वविद्यालय स्तरीय रोस्टर को समाप्त करने का आदेश आ गया और विभागवार रोस्टर की जरूरत आ पड़ी। यह 13 प्वाइंट का रोस्टर था, जिसके 4 थे, 8वें और 12 नंबर की नियुक्ति पर ओबीसी और 7वें नंबर की नियुक्ति पर एससी और 14वें नंबर पर एसटी रखे गए हैं। अब यदि चार पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू होती है, तो पहले तीन पद सामान्य श्रेणी और चैथे पद पर ओबीसी को मौका मिलेगा और एससी को 7वी नियुक्ति के विज्ञापन का इतजार करना पड़ेगा। विरोध का कारण यही है।

लेकिन विषयवार आरक्षण के कोर्ट के फैसले को हम गलत नहीं कह सकते। वह फैसला सही है। गलत विश्वविद्यालयों को नियुक्ति का अधिकार देना है। यदि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए संघ लोकसेवा आयोग नियुक्ति करता है, तो एक ही विषय में दर्जनों या सैंकड़ों नियुक्तियां एक साथ विज्ञापित की जा सकती है और सभी वर्गो के लिए सीटें उपलब्ध हो जाएंगी। सभी वर्गो के सफल आवेदकों को अलग अलग केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में उनकी पसंद और परीक्षा में प्राप्त पोजीशन के हिसाब से नियुक्ति दी जा सकती है। फिर किसी वर्ग को शिकायत नहीं होगी और प्रतियोगिता भी एक विषय के लोगों के बीच ही आपस में होगी। राज्य स्तर पर यह जिम्मा राज्य लोक सेवा आयोग को दिया जा सकता है। सरकार को इसी दिशा में आगे बढ़कर इस विवाद का हल निकालना चाहिए। (संवाद)