इस संगठन की करतूतों का काला चिट्ठा ऐसा है, जिससे यह आईने की तरह साफ हो जाता है कि यह किस प्रकार हिन्दुस्तान के युवाओं को इस्लाम के नाम पर भड़काकर उन्हें ‘जेहाद’ के नाम पर अपने अलगाववादी मंसूबों के लिए इस्तेमाल करता रहा है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि किस प्रकार यह बेरोजगार युवाओं के हाथों में बंदूकें थमाकर उन्हें घाटी में खूनखराबे के लिए उकसाता रहा है किन्तु दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में जमात-ए-इस्लामी जैसे अलगाववादी संगठन दशकों से इसी प्रकार राजनीतिक छत्रछाया में फलते-फूलते हुए हमारे अमन-चैन के दुश्मन बने रहते हैं और हम कुछ नहीं कर पाते।

अब जबकि सरकार द्वारा कड़ा कदम उठाते हुए इस संगठन पर पांच साल का प्रतिबंध लगाया गया है तो अलगाववादियों की भाषा बोलते रहे उमर अब्दुल्ला और महबूबा सरीखे घाटी के शीर्ष नेताओं का इस फैसले के विरोध में वही पुराना बेसुरा राग शुरू हो गया है। दरअसल इन लोगों की फितरत ही कुछ ऐसी है कि जब ये सत्ता में होते हैं तो इनके सुर कुछ और होते हैं और सत्ता से बाहर होते ही ये अलगाववादियों की भाषा बोलने लगते हैं। घाटी में आतंक का पर्याय बने पत्थरबाजों के पक्ष में आवाज बुलंद करना, अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लिए जाने पर उसका विरोध करना और अब जमात-ए-इस्लामी सरीखे अलगावादी संगठन पर प्रतिबंध लगाए जाने पर उसकी मुखालफत करना, यही इनकी राजनीति का वास्तविक घृणित चेहरा है। आज जरूरत तो इस बात की है कि महबूबा हों या उमर, वे घाटी के भटके हुए नौजवानों को सही राह दिखाकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास करें किन्तु ये जिस प्रकार अपने सियासी फायदे के लिए आतंकवाद और अलगाववाद से जुड़े तत्वों का समर्थन कर इन नौजवानों के मनोमस्तिष्क में भारत विरोधी जहर भरते रहे हैं, ऐसे में अब समय की मांग यही है कि घाटी में अमन-चैन की बहाली के लिए कोई भी कठोर फैसले लेते समय उमर और महबूबा सरीखे ऐसे नेताओं को पूरी तरह दरकिनार किया जाए। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि 1975 में जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाने वाले कोई और नहीं बल्कि उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला थे जबकि 1990 में जब इस संगठन पर प्रतिबंध लगा, तब केन्द्र सरकार में गृहमंत्री महबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद थे।

जहां तक जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध की बात है तो गृह मंत्रालय के अनुसार यह राज्य में अलगाववादी विचारधारा और आतंकवादी मानसिकता के प्रसार के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहा है, जिसे जमात-ए-इस्लामी (जम्मू कश्मीर) का मिलिटेंट विंग भी माना जाता है। यह संगठन घाटी में आतंकवादी घटनाओं के लिए जिम्मेदार रहा है, जो अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का वैचारिक समर्थन तथा उनकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में उनकी हरसंभव मदद करता रहा है। घाटी में आतंकियों को शरण देना, प्रशिक्षित करना और उन्हें फंड मुहैया कराना इसका अहम कार्य रहा है। हालांकि जमात-ए-इस्लामी द्वारा घाटी में 400 स्कूल, 350 मस्जिद और एक हजार से अधिक मदरसे चलाए जा रहे हैं और इसीलिए कट्टरवादी विचारधारा वाले कुछ लोगों द्वारा तर्क दिया जा रहा है कि इस संगठन पर प्रतिबंध लगाने से इनमें पढ़ने वाले बच्चों का क्या होगा? यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन स्कूलों और मदरसों में बच्चों को कट्टरता का पाठ पढ़ाया जाता रहा है और घाटी में कार्यरत कई आतंकी संगठन जमात के इन्हीं स्कूलों, मदरसों और मस्जिदों में पनाह लेते रहे हैं। जमात के इन स्कूलों, मदरसों और मस्जिदों को चलाने के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत कांफ्रैंस तथा बहुत से स्थानीय लोग चंदे के जरिये इसकी मदद करते रहे हैं और फिलहाल इस संगठन के पास 4500 करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति है। जमात अपने इन्हीं स्कूलों और मदरसों की आड़ में घाटी में अमन के दुश्मनों को तमाम सुविधाएं मुहैया कराता है।

यह अलगाववादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन का दाहिना हाथ माना जाता है और कटु सत्य यही है कि जमात ने ही हिजबुल को पाल-पोसकर इतना बड़ा किया है। यह हिजबुल मुजाहिद्दीन को रंगरूटों की भर्ती, उसके लिए फंड की व्यवस्था, आश्रय और साजो-सामान इत्यादि हर प्रकार की मदद करता रहा है। हिजबुल मुजाहिद्दीन का सरगना सैयद सलाहुद्दीन है, जो कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का समर्थन करता रहा है और हिजबुल पाकिस्तान के सहयोग से जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने के साथ ही उन्हें हथियारों की आपूर्ति भी करता रहा है। बता दें कि जमात-ए-इस्लामी के दक्षिण कश्मीर क्षेत्र में बड़ी संख्या में कार्यकर्ता हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस संगठन के कार्यकर्ताओं का एक बहुत बड़ा तबका हिजबुल मुजाहिद्दीन तथा कुछ अन्य आतंकी संगठनों के लिए प्रत्यक्ष रूप से कार्य करता रहा है।

अब यह भी जान लेते हैं कि जमात-ए-इस्लामी का जन्म कब और कैसे हुआ था। वर्ष 1941 में इस्लामी धर्मशास्त्री मौलाना अबुल अला मौदूदी द्वारा इस्लाम की विचारधारा को लेकर काम करने वाले एक संगठन ‘जमात-ए-इस्लामी’ का गठन किया गया था लेकिन देश की आजादी के बाद यह जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी हिंद में विभाजित हो गया। जमात-ए-इस्लामी हिंद पर अभी तक राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को लेकर कोई आरोप नहीं है और कहा जाता है कि यह देश में स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण वेलफेयर कार्य करता रहा है। 1953 में राजनीतिक विचारधारा में मतभेद के चलते जमात-ए-इस्लामी हिंद से अलग होकर एक संगठन बना ‘जमात-ए-इस्लामी (जम्मू कश्मीर)’, जिसने अपना अलग संविधान बनाया और जिसकी घाटी की राजनीति अहम भूमिका रही है। वर्ष 1971 से इसने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। हालांकि पहले चुनाव में इसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई किन्तु उसके बाद इसने चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर प्रदेश की राजनीति में खास जगह बनाई लेकिन धीरे-धीरे यह अलगाववादी विचारधारा और आतंकवादी मानसिकता के प्रसार के लिए जिम्मेदार संगठन बनकर रह गया। इस संगठन का मानना है कि कश्मीर का विकास भारत के साथ रहकर नहीं हो सकता और यह पिछले काफी समय से धरती के स्वर्ग ‘कश्मीर’ को पाकिस्तान में मिलाने की मुहिम चलाता रहा है। एक ओर जहां पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती तथा उमर अब्दुल्ला केन्द्र सरकार द्वारा जमात पर प्रतिबंध लगाए जाने का पुरजोर विरोध करते हुए सरकार के फैसले की आलोचना कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कड़वी सच्चाई यह है कि सऊदी अरब सहित कई मुस्लिम देशों में भी इस संगठन पर प्रतिबंध है। अतः यह बात समझ से परे है कि कुछ लोग इस संगठन पर भारत में भी प्रतिबंध लगाए जाने का बेवजह विरोध क्योें कर रहे हैं? (संवाद)