मायावती अखिलेश की पार्टी के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन को भी सेकुलर गठबंघन कहती हैं। अपने सेकुलर होने के दावे करने के बाद वह सहारनपुर में मुसलमानों को संबंोधित करते हुए कहती हैं कि अपना वोट सपा-बसपा-लोकदल गठबंधन को ही दें, क्योंकि किसी और के उम्मीदवार को वोट देने से उनका वोट बंट जाएगा और भाजपा विजयी हो जाएगी। उनके कहने का मतलब है कि मुसलमान कांग्रेस को वोट नहीं दें, बल्कि उनकी पार्टी और उनके सहयोगी दलों को अपना वोट दें।
किसी से वोट मांगना गलत नहीं है। वोट मांगते समय अपनी खासियत गिनाना और विरोधियों की कमजोरी या बुराइया गिनाना भी गलत नहीं है, लेकिन धर्म और जाति के नाम पर वोट मागना न केवल गलत है, बल्कि यह आदर्श चुनावी आचार संहिता का भी उल्लंघन है। जब आप किसी जाति या संप्रदाय से वोट मांग रहे हैं और वह भी जाति अथवा संप्रदाय के नाम पर वोट मांग रहे हैं, तो वह जातिवाद और सांप्रदायिकता है।
लेकिन सांप्रदायिक आधार पर वोट मांगने के बावजूद भी हमारे नेता यदि अपने को सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष कहें, तो फिर उनके बारे में क्या कहा जा सकता है? यह सच है कि जाति के आधार पर उम्मीदवार तय किए जाते हैं और सांप्रदाय को भी उम्मीदवार तय करने के लिए आधार बनाया जाता है। पर जो परदे के पीछे होता है, उसे रोका नहीं जा सकता। लेकिन यहां तो खुल्लम खुल्ला मायावती संप्रदाय के आधार पर मत मांग रही है। यह तो खुली सांप्रदायिकता हुई, पर वह अपने को धर्मनिरपेक्ष नेता कहती है। नेता ही इस तरह की अनर्गल बातें नहीं करते, बल्कि अनेक चुनाव विश्लेषक भी इस तरह का विश्लेषण करते हैं। मुस्लिम वोट को वे सेकुलर वोट कहते हुए दिखाई पड़ेंगे और यही कारण है कि मुसलमानों को संबोधित करते हुए मायावती जैसे नेता ऐसा महसूस करते हैं, मानो वे मुसलमानों का संबोधित नहीं कर रहे, बल्कि किसी सेकुलर जमात को संबोधित कर रहे हैं।
इन नेताओं ने तो सेकुलरिज्म का मतलब ही बदल दिया है। इस शब्द का इस्तेमाल उस राज्यव्यवस्था के लिए कभी किया जाता था, जो चर्च के प्रभाव से दूर रहते थे। सेकुलर राज्य के अस्तित्व में आने के पलहे चर्च का सत्ता पर बहुत प्रभाव हुआ करता था। जहां ईसाई धर्म नहीं था, वहां भी अन्य धामिक आस्थाओं का बहुत प्रभाव होता था। शासन धार्मिक ग्रंथों की व्यवस्थाओं के अनुसार ही चलते थे और राजा यह अन्य शासकों को धर्मगुरुओं के सामने नतमतस्तक होकर ही सरकार चलाना पड़ता था।
पर लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ धर्मगुरुओं की सत्ता कमजोर पड़ती गई और एक ऐसा समय आया कि प्रशासन पूरी तरह से धर्मगुरुओं के बंधन से मुक्त हो गया। यानी सत्ता धर्मनिरपेक्ष हो गई। भारत ने भी एक धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था अपनाई है, लेकिन यहां हमारे राजनेताओं ने धर्मनिरपेक्षता को एक नया अर्थ भी दे दिया। सत्ता को तो धर्मनिरपेक्ष इस मायने में रखा गया कि यह धर्मग्रंथों और धर्म गुरुओं द्वारा चालित नहीं होगा, पर इसके साथ साथ यह भी कहा गया कि हमारा धर्मनिरपेक्ष राज्य सर्वधर्म समभाव रखेगा। सर्वधर्म समभाव भारत की धार्मिक विविधिता को बनाए रखने के लिए स्वीकार्य किया गया।
लेकिन सर्वधर्म समभाव की छाया में सांप्रदायिकता फलने फूलने लगी। चुनावी जीत को सुनिश्चित करने के लिए इस प्रकार की सांप्रदायिकता को राजनेताओं ने बढ़ावा दे रखा है। वे संविधानिक धर्मनिरपेक्षता की कसम खाकर चुनाव लड़ते हैं और सांप्रदायिकता का खेल करके उसे जीतने की कोशिश करते हैं, लेकिन अपने आपको धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट भी देते रहते हैं। और इस क्रम में सेकुलरिज्म और धर्मनिरपेक्षता के अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक शब्दावली का आविष्कार किया था और वह शब्दावली थी, ’’शूडो सेकुलर’’। इस शब्द का राजनैतिक असर जबर्दस्त था। भारतीय जनता पार्टी इसके कारण लोकसभा में दो सीट से बढ़कर 182 सीट तक पहुंच गई थी और 2014 मंे तो 282 तक पहुंच गई। दरअसल कथित सेकुलर लोगों का सेकुलरिज्म हिन्दू देवी देवताओं और परंपराओं का मजाक उड़ाना था। वे सीता को घर से निकालने और शंबूक की हत्या करने के लिए राम की आलोचना करते थे। अन्य अनेक पाखंडो का भी विरोध करते थे। पाखंडों और अंधविश्वासों का विरोध करना गलत नहीं है, लेकिन जब उनके सामने मुसलमानों की धार्मिक कुरीतियां और उनके पाखंड आते हैं, तो उनकी धर्मनिरपेक्षता वहीं दम तोड़ देती हैं। ऐसा पिछले कई दशकों से हमारे देश में होता रहा है और इसके कारण ही अब राजनेताओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में लोगों से की गई अपील कोई काम नहीं करती और उसके कारण ही भारतीय जनता पार्टी पर कम्युनल होने का आरोप भी लोगों को प्रभावित नहीं करता।
बहरहाल, बात चल रही है मायावती द्वारा मुसलमानों से की गई उस सार्वजनिक अपील की कि वे अपना वोट किसी और को न दें, बल्कि उनके उम्मीदवारों को ही दें, क्योंकि भाजपा को वही हरा सकती है। निर्वाचन आयोग ने इसका संज्ञान लेते हुए उन्हें नोटिस भी जारी किया है लेकिन इस तरह के नोटिस से राजनीतिज्ञ अब नहीं डरते, क्योंकि नोटिस का जवाब पाने के बाद आयोग सिर्फ हिदायत और चेतावनी देकर छोड़ देता है। आयोग चाहे कड़ी कार्रवाई कर सकता है। शिवसेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे का नाम ही एक बार चुनाव आयोग ने 5 साल के लिए मतदात सूची से निकाल दिया था। बाल ठाकरे खुद चुनाव नहीं लड़ते थे, इसलिए उनपर कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन मायावती जैसे लोगों का नाम दंडस्वरूप मतदाता सूची से निकालकर चुनाव आयोग अन्य नेताओं को कड़ी चेतावनी दे सकता है और उन्हें मतदाताओं से जाति और संप्रदाय के नाम पर खुला वोट मांगने से रोक सकता है। (संवाद)
मायावती की मुसलमानों से सांप्रदायिक अपील
बाल ठाकरे की तरह माया का नाम भी मतदाता सूची से बाहर हो
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-04-08 09:53
मायावती अपने आपको सेकुलर कहती हैं। एक बार लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल से मिलकर उन्होंने सेकुलर फेडरेशन भी बनाया था। सेकुलरिज्म की खातिर उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार का समर्थन भी किया था। मध्यप्रदेश में अभी भी कांग्रेस का समर्थन वह सेकुलरिज्म की दुहाइे देते हुए कर रही हैं, अन्यथा वह कांग्रेस की विरोधी हैं और देश की सबसे पुरानी पार्टी के खिलाफ जहर उगलने का कोई मौका नहीं छोड़ती।