इस योजना के तहत बैंकों को चुनावी बांड्स जारी करने का अधिकार दिया गया है। कोई भी इस बांड को इसकी रकम चुकाकर बैंक से खरीद सकता है और अपने मन पसंद पार्टी को यह बांड दान में दे सकता है। उसके बाद पार्टियां अपने खाते में इस बांड की रकम को जमा कर सकता है। पहले लोग कैश से ही ज्यादातर दान दिया करते थे, और कैश के रूप में दिया गया धन आमतौर पर काला ध नही होता था। मोदी सरकार ने काले धन के शिकंजे से लोकतंत्र को बचाने का दावा करते हुए यह योजना तैयार की थी और इसे अमल में लाया भी जा रहा है।
यह सच है कि यह बांड बैंक जारी करते हैं और बैंक में पैसा जमाकर ही इसे खरीदा जा सकता है। जैसा कि सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि बैंक उसी व्यक्ति को यह बांड जारी करता है, जो अपना केवाइसी यानी अपनी पहचान के साथ उसके सामने आता है। यानी बैंक की निगाह से बांड खरीदने वाला अपने को बचा नहीं सकता। पर बैंक एक वाणिज्यिक संस्थान है और बिजनेस कफिडेंशियलिटी के कारण वह बाहरी व्यक्ति को नहीं बता सकता कि बांड खरीदने वाला कौन है।
इसके अलावा बैंक को यह भी नहीं पता होता कि बांड खरीदने वाला उस बांड को किसे देगा। सच तो यह है कि बांड की राशि प्राप्त हो जाने के बाद बैंक को यह जानने की जरूरत भी नहीं कि खरीददार उसका क्या करता है और वह उसे किसको देता है। जिस पार्टी को बांड दिया गया है, जब वह बैंक के पास वह बांड लाकर अपने खाते में जमा करती है, तो बैक का काम उस बांड को वापस खरीदकर बराबर की रकम चुका देनी होती है। चूंकि बैंक ने बहुत सारे बांड जारी किए हुए होते हैं, इसलिए उसे यह पता नहीं होता कि जो बांड राजनैतिक पार्टी ने उसके पास जमा कराया है, वह बांड किसको जारी किया गया था।
यानी दानदाता की पहचान का पता सिर्फ और सिर्फ उस पार्टी के पास ही रहती है, जिसे दानदाता ने वह बांड दिया है। बैंक ज्यादा से ज्यादा यह जानता है कि किससे पैसे लेकर उसने बांड बेचे थे, लेकिन जब बांड उसके पास वापस रकम अदायगी के लिए आता है, तो उसे यह पता नहीं होता कि वह किसी व्यक्ति को जारी किया गया था। बैंक को इसके बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार भी नहीं है।
इस योजना की अच्छी बात यह है कि राजनैतिक पार्टियों को धन बेंकिंग चैनल से आता है और यह उम्मीद की जा सकती है कि वह धन काला धन नहीं होगा, क्योंकि बिना पैन जाने बैंक उसे जारी नहीं कर सकता। हालांकि इस तरह से दिया गया धन काला धन नहीं हो, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। इसका कारण है कि अनेक लोगों ने मुखौटा कंपनियां बना रखी हैं और इन मुखौटा कंपनियों का इस्तेमाल काला धन को सफेद धन में बदलने में किया जाता है। काला धन को सफेद धन में बदलने के लिए उस रकम पर टैक्स दे दिया जाना काफी होता है। वैसे टैक्स कानून को धता बताने के लिए भी कई लूपहोल्स काला धन के मालिकों को मालूम हैं। अनेक फर्जी पैन कार्ड बने हुए हैं और उसकी सहायता से अनेक फर्जी कंपनियां बनी हुई हैं, जिनका इस्तेमाल टैक्स कानून को धता बताने के लिए किया जाता रहा है। हालांकि पैन को आधार से जोड़ने के बाद उन पैन कार्डों को जा पैन से जुड़े नहीं रहेंगे, समाप्त कर इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। पर अभी तक यह पता नहीं है कि क्या आधार से नहीं जुड़ने वाले पैन के साथ क्या सलूक किया जाएगा। फिलहाल पैन से आधार को जोड़ने की अंतिम तारीख भी बहुत आगे खिसका दी गई है और काला धन के मालिकों को अभी मौका मिल रहा है कि वे टैक्स कानूनों को पहले की तरह धता बताते रहें।
काला धन का इस्तेमाल गलत है, लेकिन सफेद धन का इस्तेमाल लोकतांत्रिक प्रकिया को प्रभावित करने के लिए कौन कर रहा है, यह भी जानना जरूरी है। लेकिन वर्तमान चुनावी बांड योजना में इसका पूरा इंतजाम कर दिया गया है कि धन देने वाले की पहचान गुप्त ही रहे। सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना की इसी खामी पर प्रहार किया है और पार्टियों को कहा है कि वह अगले महीने की 30 मई तक यह निर्वाचन आयोग को बंद लिफाफे में इसकी जानकारी दे दे कि उन्हें जो चुनावी बांड मिले थे, वे किनके थे।
सुप्रीम कोर्ट ने 12 अप्रैल से 15 मई तक दिए गए बांड की जानकारी निर्वाचन आयोग को देने को कहा है। सवाल उठता है कि 12 अप्रैल के पहले जो बांड दिए गए थे, उसे क्यांे छोड़ दिया गया? इसके अलावा इस गुप्त दान को गुप्त रूप से निर्वाचन आयोग को बताने के लिए ही क्यों कहा गया? निर्वाचन आयोग ही नहीं देश के मतदाताओं को भी यह जानने का अधिकार है कि पार्टियों को कौन कौन लोग धनपोषित कर रहे हैं। शायद निर्वाचन आयोग बाद में लोगों को बताए, लेकिन होना तो यही चाहिए कि चुनाव के समय ही लोगों को इसकी जानकारी मिल जाए।
आज धनतंत्र लोकतंत्र पर पूरी तरह हावी हो चुका है। जातिवाद और सांप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए चुनौती तो है ही, धनतंत्र भी उसके सामने एक बड़ा खतरा बन कर आ खड़ा हुआ है। इस खतरे से निपटने के लिए एक नहीं, बल्कि अनेको कदम उठाने पड़ेगे। (संवाद)
चुनावी बांड्स पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
क्या धनतंत्र के चंगुल से निकल पाएगा हमारा लोकतंत्र
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-04-12 08:49
चुनावी बांड्स पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है। यह फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन इससे इस बात को लेकर पूरी तसल्ली नहीं मिलती कि धनतंत्र के चंगुल में फंसा हमारा लोकतंत्र इस चंगुल से बाहर आ जाएगा। यह फैसला मोदी सरकार की चुनावी बांड्स योजना से संबंधित है, जिसे अवैध घोषित करार दिए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट मंे एक याचिका दाखिल की गई थी। यह योजना मोदी सरकार ने चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने के दावे के साथ शुरू की थी, लेकिन यह समझ से बाहर की बात थी कि जब दानदाता ही छुपा हुआ हो, तो फिर इस योजना को पारदर्शी योजना कैसे कहा जा सकता है।