यह सुप्रीम कोर्ट का दबाव ही था कि निर्वाचन आयोग को कार्रवाई करनी पड़ी। उसने मायावती के ऊपर 48 घटे का और योगी आदित्यनाथ के ऊपर 72 घंटे का प्रतिबंध लगा दिया। प्रतिबंध के दौरान वे दोनों किसी रूप में चुनाव अभियान का हिस्सा नहीं हो सकते। वैसा ही प्रतिबंध मेनका गांधी के खिलाफ लगाया गया, जो मुस्लिम मतदाताओं को संबोधित करके धमका रही थीं कि यदि उन्होंने वोट नहीं दिया, तो सांसद के रूप में वे उनका काम नहीं करेगी। उन पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगा दिया गया।
आजम खान ने तो हद कर दी थी। भाषण करते करते उन्होंने सारी मर्यादाओं को तार तार कर दिया और अपने खिलाफ चुनाव लड़ रही जया प्रदा को पुराना संघी बताते हुए कुछ ऐसे शब्दों और उपमाओं का इस्तेमाल कर दिया, जो कतई शोभनीय नहीं था। पुरुषों के लिए इस तरह की बातें चल भी जाती हैं। कोई बाहर से संघ विरोधी और भीतर से संघी हो तो यह कहावत बन गई हैं धोती के नीचे उसने खाकी की चड़डी पहन रखी है। यानी वह छुपा हुआ संघी है। खाकी चड्ढी संध के स्वयंसेवकों के परिधान का हिस्सा रही है। लेकिन एक महिला के लिए वैसा कहना और यह कहना कि मैंने 17 दिनो में ही यह देख लिया था कि उनके नीचे के अंडरवियर का रंग खाकी है, अश्लीलता ही है।
निर्वाचन आयोग ने आजम खान पर भी 48 घंटे का प्रतिबंध लगा दिया है। इन प्रतिबंधों के बाद भी यदि निर्वाचन आयोग कहे कि विभाजनकारी बयान करने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने का उसके पास अधिकार नहीं है, तो यह गलत होगा। संविधान ने निर्वाचन आयोग को निष्पक्ष और निर्भीक चुनाव करवाने का अधिकार दे रखा है और इसी अधिकार का इस्तेमाल कर आयोग आर्दश चुनाव आचार संहिता व अन्य कानूनों का उल्लंघन कर रहे किसी भी नेता को दंडित कर सकता है।
निर्वाचन आयोग को टीएन शेषन ने रास्ता दिखा रखा है। वे कहा करते थे कि पावर प्राप्त नहीं किया जाता है, बल्कि वह असर्ट किया जाता है। चूंकि निष्पक्ष और निर्भीक चुनाव कराने का अधिकार निर्वाचन आयोग के पास है, तो उसके पास यह भी अधिकार है कि यदि निष्पक्षता और निर्भीकता नहीं सुनिश्चित कराई जा सकती, तो चुनाव को ही काउंटरमांड किया जा सकता है। 1991 के लोकसभा चुनाव में शेषण ने पटना और पूर्णिया में चुनाव ही नहीं करवाए और जो वोटिग हुआ था, उसे निरस्त कर दिया, क्योंकि भारी पैमाने पर बूथ कैप्चरिंग की खबरे और सबूत मीडिया में आ गया था। उसके बाद भी उनकी वही रणनीति जारी रही। जहां भी गड़बड़ी हो, वहां का चुनाव निरस्त और पुनर्मतदान को भी लंबा खींच लेने की नीति काम कर रही थी और नेता लोग डर रहे थे, क्योंकि चुनाव होना उनके हित में था न कि चुनाव का स्थगन। आचार संहिता उल्लंघन करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया जाने लगे और जो अधिकारी अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभा रहे थे, उन्हें सस्पेंड करने का अभियान भी शेषण ने शुरू कर दिया था।
शेषण ने यह स्पष्ट कर दिया था कि आयोग के पास बहुत शक्तियां हैं और यदि उसका इस्तेमाल किया जाय, तो चुनाव के समय बेहतर माहौल बनाए रखा जा सकता है। निर्वाचन आयोग के पास एक और अधिकार है। मतदाता सूची आयोग ही बनाता है और मतदाता सूची से नाम बाहर करने का अधिकार भी उसके पास है। वैसे संविधान में यह स्पष्ट है कि 18 साल और उससे अधिक उम्र के सभी नागरिकों को वोटिंग का अधिकार प्राप्त और मतदाता सूची में उन सबका नाम होना चाहिए। पागल और दिवालिया नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। लेकिन भड़काऊ भाषण देने के आरोप मे भारत के निर्वाचन आयोग ने एक बार शिवसेना के संस्थापक और तत्कालीन सुप्रीमो बाल ठाकरे को 1999 में 6 सालों के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया था।
1999 में दिए गए उस आदेश में निर्वाचन आयोग ने मतदाता सूची से बाल ठाकरे का नाम हटा दिया था। नाम हटाने का असर यह हुआ था कि बाल ठाकरे न तो चुनाव में खड़े हो सकते थे और न ही मतदान कर सकते थे। ठाकरे ने तब प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि उन्होंने शपथपूर्वक वचन लेकर रखा है कि कभी चुनाव लड़ेंगे ही नहीं। पर मताधिकार से वंचित किए जाने पर उन्होंने दुख जाहिर किया था, पर यह कहते हुए उस निर्णय को अदालत में चुनौती देने से इनकार कर दिया था कि वे निर्वाचन आयोग और राष्ट्रपति का सम्मान करते हैं।
बाल ठाकरे के खिलाफ वह निर्णय एक लंबी प्रकिया के बाद लिया गया था। 1987 के एक उपचुनाव में ठाकरे ने वह कथित भाषण दिया था। वह मामला अदालत में गया था। हाई कोर्ट ने उन्हें दोषी माना और फिर सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को यथावत रखा। ठाकरे को जुर्माना भी देना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को तब के राष्ट्रपति के आर नारायणन ने निर्वाचन आयोग के पास भेजकर आगे की कार्रवाई करने को कहा था। उस समय मुख्य चुनाव आयुक्त एम एस गिल थे। आयोग ने बाल ठाकरे को 6 साल के लिए मतदान करने और चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी।
अब चूंकि नजीर बन चुकी है, इसलिए आयोग यह नहीं कह सकता कि उसके पास भड़काऊ और विभाजनकारी बयान देने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार नहीं है। आयोग चाहे तो एक निश्चित अवधि के लिए उस तरह के नेताओं का नाम मतदाता सूची से हटा सकता है। नेताओं की राजनीति चुनाव लड़ने के इर्द गिर्द घूमती है और कोई नेता यह नहीं चाहेगा कि वह चुनाव लड़ने के काबिल ही नहीं रह जाए। मतदाता सूची से बाहर होने का डर उसे अनुशासित बनाए रखेगा। (संवाद)
योगी-माया पर अस्थाई प्रतिबंध
वोटर लिस्ट से नाम भी हटा सकता है निर्वाचन आयोग
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-04-16 09:56
आखिर निर्वाचन आयोग को कार्रवाई करनी ही पड़ी। सुप्रीम कोर्ट में उसके वकील ने कहा था कि विभाजक बयानबाजी करने वाले नेताओं के खिलाफ वे इसलिए कार्रवाई नहीं कर पाता है, क्योंकि उसके अधिकार बहुत सीमित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई थी कि आयोग के अधिकार सीमित क्यों हैं। फिर भी पूछा था कि वह अगले दिन यह बताए कि उसने क्या किया।