यह भारत के लिए सबसे बड़ी कूटनीतिक जीत मानी जा रही है। वैश्विक आतंकवाद पर दुनिया की संजीदगी का भी पता चल गया। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की प्रतिबद्धता काम आयी और भारत को वैश्विक मंच पर बड़ी सफलता हासिल हुई। इस बार चीन की कूटनीति परिषद के स्थायी स्दस्य देशों अमेरिका, ब्रिेटेन, फ्रांस और रूस के सामने नहीं चल पायी। चीन को यह पता चल गया है कि पूरी दुनिया यह समझ गयी कि वह अपने निजी हितों को ध्यान में रख कर पाकिस्तान और आतंकी संगठनों की मदद कर रहा था। चीन मसूद मामले में चार बार वीटो का इस्तेमाल कर प्रस्ताव में अडंगेबाजी खड़ा कर चुका था। भारत और उसका मित्र राष्ट्र अमेरिका इस प्रस्ताव को लेकर भारत के साथ खड़ा था। अमेरिका ने चीन को इस मसले पर सीधी चेतावनी भी दी थी। आतंकी मसूद पर सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पास होने के बाद अब उसकी मुश्किलें बढ़ जाएंगी। वह किसी भी देश की यात्रा नहीं कर सकता है। हथियार नहीं खरीद सकता था। जैश-ए-मोहम्मद संगठन की दुनिया भर में जहां भी संपत्तियां हैं उन्हें जब्त किया जा सकता है। इसके अलावा उसे पालने वाले पाकिस्तान पर भी आर्थिक और दूसरे प्रतिबंध लग सकते हैं जिसकी वजह से उसकी अर्थव्यस्था की रीढ़ टूट जाएगी। पुलवामा हमले के बाद भारत को पूरा भरोसा था कि वह अपनी कूटनीति के जरिए दुनिया के देशों को वैश्विक आतंकवाद की भयावहता समझाने में कामयाब होगा और मसूद को अंतर राष्टीय आतंकी घोषित करवा पाएगा। लेकिन चीन इस प्रस्ताव में बार-बार रोड़ा अटका रहा था। क्योंकि चीन सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य है। जबकि पूरी दुनिया इस्लामिक आतंकवाद से त्रस्त है। जिसमें परिषद से जुड़े सभी स्थाई और अस्थाई देश भी शामिल हैं।

भारत में 2014 में हुए राजनैतिक परिवर्तन के बाद दक्षिणपंथी विचारधारा वाली भाजपा ने वामपंथी पृष्ठभूमि वाले चीन से नए संबंधों की शुरुवात की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार चीन की यात्रा की और चीनी राष्टपति शिनपिंग भारत आए। मोदी उनके साथ एक साथ झूला भी झूला। चीन के साथ संबंधों के सुधार में भारत ने बड़ा कदम उठाया। ऐसा लगा कि एक बार भारत-चीन संबंध फिर नेहरु युग की तरफ बढ़ रहे हैं। हिंदी-चीन भाई-भाई का नारा सच साबित होता दिखा। लेकिन चालबाज चीन की नीयति में कोई बदलाव नहीं आया और हमें डोकलाम जैसा धोखा मिला। लेकिन भारत ने चीन को मुंहतोड़ जबाब दिया। चीन की इस जलन की मुख्य वजह भारत और अमेरिका के मजबूत संबंध भी हैं। क्योंकि चीन खुद को तीसरी शक्ति के रुप में प्रदर्शित करना चाहता है। वह सैन्य और आर्थिक विस्तार के जरिए पूरे दक्षिण एशिया में अपनी दादागिरी की नीति पर आगे बढ़ रहा है। वह दुनिया पर अमेरिका के बजाय खुद का अधिकार चाहता है। चीन भारत की बढ़ती तागत को खुद के लिए बड़ा खतरा मानता है। क्योंकि भारत जितना मजबूत होगा दक्षिण एशिया में उसकी पकड़ उतनी ढ़िली होगी। जिसकी वजह से वह चाहता है कि भारत अपने पड़ोसियों से उलझा रहे। यहीं कारण है कि वह आतंकवाद पर दोगली नीति का अनुशरण कर रहा है। जिसकी वजह रही कि चीन भारत के प्रस्ताव पर 2009, 2016, 2017 और अब 2019 में वीटो का प्रयोग किया।

चीन यूएन में मसूद अजहर पर वीटो का प्रयोग क्यों कर रहा था। इसके पीछे की वजह भी दुनिया जानती है। एक रिपोर्ट के अनुसार चीन का शिनजियांग राज्य मुस्लिम बाहुल्य है। यहां काफी संख्या में इस्लामिक चरपंथ से जुड़े वीगर मुजाहिदीन रहते हैं जो पाकिस्तान समर्थित हैं। 1989 में शिनजियांग के राज्य के कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन काफी लोगों की मौत हुई थी। जिसे दबाने के लिए चीन एक रणनीति बनायी और तालिबानी नेता मुल्लाह उमर से मुलाकात किया कर यह रणनीति बनायी थी। जिसमें उमर ने चीन को भरोसा दिलाया कि अब वहां आतंकी गतिविधियां नहीं होगी। तालिबान के उसी वफादारी का कर्ज चीन चुकाता चला आ रहा था। उसे डर था कि अगर मसूद को वैश्चिक आतंकी घोषित कराने में वह भारत के साथ खड़ा होता है तो चीन में भी आतंकवाद अपनी जड़ें जमा लेगा। दूसरी तरफ चीन और पाकिस्तान को जोड़ने वाला उसका अति महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पाकिस्तान-चीन आर्थिक गलियारे काम प्रभावित होगा। क्योंकि यह गलियारा पाक अधिकृत कश्मीर से गुजर रहा है। जिसका भारत विरोध कर रहा है। यह गलियारा खैबर पख्तून से होकर जा रहा है जो एक आतंकी गढ़ है। चीन को डर था कि अगर वह मसूद के खिलाफ कोई गलत कदम उठाया तो उसका डीम प्रोजेक्ट खटाई में पड़ सकता है। जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी दक्षिण एशिया में विस्तारवादी नीति पर विराम लगा सकते हैं। क्योंकि आतंकी खुद चीनी इंजीनियरों और मजदूरों को सुरक्षा मुहैया करा रहे हैं। उस स्थिति में चीन भला अपना हाथ क्यों जलाता। मसूद पर और सबूत मांगने की बात तो उसकी साजिश है। भारत सारे सबूत सौंप चुका है। संसद हमला, उड़ी पठानकोट और अब पुलवामा उसे कितने सबूत चाहते, उसकी तो सिर्फ बहानेबाजी थी, अततः वह अपनी चाल में फंस गया और भारती की संयुक्तराष्ट संघ में आतंक पर बड़ी कूटनीतिक जीत हुई।

चीन के इस फैसले के बाद भारत में बेहद गुस्सा था। चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का भी मसला तेजी से उठाया गया। क्योंकि चीन के व्यापारिक हित को जब नुकसान पहुंचेगा तो उसकी नींद खुलेगी। फिलहाल इस नीति से चीन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ने वाला नहीं था क्योंकि भारत चीन को सिर्फ 20 हजार करोड़ का सामान निर्यात करता है यानी कुल व्यापार का यह चार फीसदी है जबकि चीन का कुल निर्यात 16 फीसदी है। भारत और चीन के बीच व्यापारिक साझेदारी करीब 90 हजार करोड़ सालाना की है। इस लिहाज से साफ है कि हमारी निर्भरता चीन पर अधिक है। सुुरक्षा परिषद ने आतंकवाद के प्रति अडिग रवैया अपना कर नया संदेश देने में कामयाब हुआ है। सुरक्षा परिषद में अमेरिका, रुस, ब्रिेटेन, फ्रांस और चीन पांच स्थाई सदस्य है जबकि दस अस्थाई हैं। प्रस्ताव पास कराने के लिए सिर्फ नौ देशों का समर्थन चाहिए था। पाकिस्तान को भी उसकी औकात मालूम हो गयी और चीन को यह पता चल गया कि वैश्विक मंच पर भारत से मुकाबला करना आसान नहीं है। अब पूरी दुनिया के सामने है कि पाकिस्तान में हाफिज सईद और भारत में कई हमलों के साथ कंधार कांड का आरोपी मसूद अजर जैसे वैश्विक आतंकवादी खुले आम पाले-पोषे जा रहे हैं। भारत को पाकिस्तान को घेरने का अब अच्छा मौका मिल गया है। आतंकवाद जब तक वैश्विक ंिचंता नहीं बनेगा इस पर जीत मुश्किल है। (संवाद)