इसके बहुत सारे कारण हैं। एक कारण तो यही है कि अंत अंत तक महागठबंधन के घटक दल सीटों की संख्या को लेकर आपस में उलझते रहे। राजद, कांग्रेस, हम, रालोसपा, वीआईपी और कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच खींच तान चलती रही और यह पता ही नहीं चल रहा था कि कौन कौन से दल महागठबंधन का हिस्सा होंगे और कौन हिस्सा नहीं होंगे। सारी पार्टियां अपनी ताकत से ज्यादा अपने लिए सीटें मांग रही थीं और एक से बढ़कर एक मनोरंजक दावे कर रही थी। जीतन राम मांझी कह रहे थे कि उनकी पार्टी का जनाधार कांग्रेस के जनाधार से ज्यादा है, इसलिए उन्हें कम से कम उतनी सी सीटें दी जाय, जितनी कांग्रेस को मिल रही है। उधर कांग्रेस अपने लिए कम से कम 20 सीटें मांग रही थी।

बहरहाल, महागठबंधन बन गया और फिर सीटो का बंटवारा भी हो गया। लेकिन उसके बावजूद भी अनेक सीटो के लिए जिच जारी रही। 11 सीटें तो उपेन्द्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और सहनी की पार्टियों को दे दी गईं। उनके पास चुनाव लड़ाने के लिए ढंग के उम्मीदवार भी नहीं थे। उन्होंने टिकट धनपशुओं को बेचा और नामांकन के पहले ही वे धनपशु टिकट की खरीददारी करने के लिए कुख्यात हो गए। इन ग्यारह उम्मीदवारें में दो या तीन से ज्यादा जीत की स्थिति में आज नहीं हैं।

कांग्रेस को 9 सीटे मिलीं। किशनगंज को छोड़कर आज के दिन में उसका शायद ही उम्मीदवार जीतता दिखाई पड़ रहा है। सुपौल से कांग्रेस की वर्तमान सांसद चुनाव जीत सकती थीं, लेकिन उन्हें हराने के लिए राजद ने अपना एक उम्मीदवार निर्दलीय उतार दिया है। शत्रुघ्न सिन्हा और तारीक अनवर मुकाबले मे हैं, लेकिन वे जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। पूर्व स्पीकर मीरा कुमार भी चुनाव मैदान में हैं, लेकिन उनकी जीत भी संदिग्ध है।

राजद ने 19 उम्मीदवार खड़े किए हैं, लेकिन उनके उम्मीदवार भी असंतोष का सामना कर रहे हैं। शरद यादव को उसने मधेपुरा का उम्मीदवार बनाया। पर पप्पू यादव ने वहां से चुनाव लड़कर शरद यादव की जीत को संदिग्ध बना दिया और बदले में राजद ने बगल की सुपौल सीट से उनकी पत्नी कांग्रेस उम्मीदवार रंजीत रंजन की हार सुनिश्चित करने के हर संभव प्रयास कर डाले।

जहानाबाद और शिवहर सीटों पर तो तेज प्रताप यादव ने ही विद्रोही उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं और उनका प्रचार भी कर रहे हैं। तेज प्रताप अपने ससुर चन्द्रिका राय की सारण से उम्मीदवारी का भी विरोध कर रहे हैं। बेगूसराय से राजद ने तनवीर हसन को अपना उम्मीदवार बनाया था। लालू यादव ने पहले कन्हैया कुमार को भरोसा दिया था कि वह बेगूसराय से उनका समर्थन करेंगे। लेकिन जब समय आया, तो लालू ने अपने वायदे पर खरा उतरने से इनकार कर दिया। बेगूसराय में राजद उम्मीदवार तनवीर हसन की जीत की संभावना पूरी तरह धूमिल हो गई है और वहां मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार और सीपीआई के कन्हैया कुमार के बीच ही है।

उपेन्द्र कुशवाहा, सहनी और मांझी अपने जातीय आधार का लंबा चैड़ा दावा कर 11 सीटे लेने में सफल हो गए, लेकिन उनके जातीय आधारों का फायदा न तो राजद उम्मीदवारों को मिल रहा है और न ही कांग्रेस उम्मीदवारों का। अभी भी महागठबंधन को वोट की जुगाड़ कराने वाले नेता लालू यादव ही हैं। यादव उनके साथ पूरी ताकत से इस चुनाव में जुड़े हुए हैं और मुसलमान भी भाजपा को हराने के लिए लालू और उनके समर्थित उम्मीदवारों की ओर रुख किए हुए हैं, लेकिन मधुबनी में कांग्रेस के नेता शकील अहमद भी प्रत्याशी हो गए हैं और वहां महागठबंधन के उम्मीदवार की जीत संदिग्ध हो गई है।

लालू के साथ यदि मुस्लिम और यादव का ठोस समर्थन है, तो उनके कटु विरोधियों की संख्या भी कुछ कम नहीं है। सवर्ण तो पहले से ही उनके खिलाफ थे, अब तो बिहार के कमजोर वर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा उनके खिलाफ हो गया है। वह हिस्सा या तो भाजपा के साथ चला गया है या नीतीश को अपना नेता मानता है। चूंकि नीतीश और भाजपा अब एक साथ हैं, इसलिए कमजोर वर्गों के लोगों का एक बहुत बड़ा हिस्सा राजग को ही मिलेगा। लालू समर्थित उम्मीदवारों की यही समस्या है। यदि लालू के कारण उनको वोट मिलने हैं, तो लालू के कारण ही वे समाज के एक बड़े हिस्से का वोट पाने से वंचित हो गए हैं।

कभी लालू यादव ओबीसी और दलितों के मसीहा हुआ करते थे, लेकिन उनकी मुस्लिम यादव समीकरण की राजनीति ने उन्हें यादव नेता के रूप में तब्दील कर दिया है। समाज का कमजोर वर्ग उनको अपना नेता नहीं मानता, बल्कि अपने उत्पीड़न के लिए लालू यादव को ही जिम्मेदार मानता है। यही कारण है कि उपेन्द्र कुशवाहा, सहनी और मांझी अपनी जातियों के लोगों का वोट लालू के सभी उम्मीदवारों को ट्रांसफर नहीं करा सकते।

बिहार की विचित्र सामाजिक परिस्थितियों ने भाजपा और नीतीश की स्थिति बेहतर कर दी है और महागठबंधन में पड़ी पैबंद ने राजग का काम और भी आसान कर दिया है। लालू यादव का उद्देश्य भी लगता है भाजपा को हराना नहीं है, बल्कि अपने बेटे तेजस्वी का राजनैतिक भविष्य बेहतर करना है। इसके कारण उन्होंने सही ढंग से गठबंधन नहीं किया। (संवाद)