राजधानी दिल्ली सहित देश में कई जगहों पर तापमान 48 से 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है। बढते तापमान का आम जनजीवन पर गहरा असर पडा है। देश के विभिन्न इलाकों से लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं। मौसम विभाग की चेतावनी भी डराने वाली है। उसकी ओर से कहा जा रहा है कि उत्तर भारत को अभी और कुछ दिनों तक गरमी का सितम झेलना पडेगा।

मौसम विभाग का मानना है कि इन दिनों हवा में नमी बिल्कुल नहीं है और नम हवा की तुलना में शुष्क हवा को सूरज बड़ी तेजी से गरम करता है। यही कारण है कि गरमी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। मौसम विज्ञानियों के मुताबिक इस भीषण गरमी में कुछ भूमिका प्रशांत महासागर में मौजूद ‘अल नीनो’ प्रभाव की भी हो सकती है। अल नीनो की मौजूदगी के चलते ही इस वर्ष एक बार फिर कमजोर मानसून की भविष्यवाणी भी की जा रही है। अल नीनो की वजह से प्रशांत महासागर का पानी सामान्य से ज्यादा गरम हो जाता है, जिससे मानसून के बादलों के बनने और उनके भारत की ओर बढ़ने की गति कमजोर हो जाती है। फिलहाल तो प्रशांत महासागर का पानी गरम होने की वजह से समुद्री हवाओं का एशियाई भू भाग की ओर रुख करना संभव नहीं हो पा रहा है, लिहाजा जमीन की तपन कम होने का नाम नहीं ले रही है।

दरअसल पिछले कुछ सालों से इस मौसम में यह शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि इस बार गरमी पिछले साल से ज्यादा है। तापमान संबंधी आंकडे भी इस बात की तसदीक करते हैं कि गरमी साल दर साल बढ रही है। मौसम विभाग के अनुसार 1901 के बाद साल 2018 में सबसे ज्यादा गर्मी पडी थी और कुछ समय पहले लगाए गए अनुमान के मुताबिक इस साल औसत तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। मौसम की जानकारी देने वाली वेबसाइट ‘एल डोरैडो’ ने पिछले दिनों दुनिया के सबसे गरम जिन 15 इलाकों की सूची जारी की थी, वे सभी जगहें भारत में ही हैं।

जब भी गरमी इस तरह से बढ़ती है, तो यह भी कहा जाने लगता है कि यह ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है। यह सही है कि मौसम चक्र बदल रहा है, जिसकी वजह से पर्यावरण भी बदल रहा है और ग्लोबल वार्मिंग को हमारे युग के एक हकीकत के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है। फिर भी इस बात को अभी शायद पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि हर कुछ साल के अंतराल पर आ जाने वाली भीषण गरमी या कड़ाके की जानलेवा सर्दी इस ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है। लेकिन गरमी की वजह से मरने वालों की बड़ी संख्या यह तो बताती ही है कि हर कुछ साल बाद आने वाली मौसमी आपदा या उसके बिगड़े मिजाज का सामना करने के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं है।

बात सिर्फ भीषण गरमी की ही नहीं है, उत्तर भारत में कड़ाके की शीतलहर और अनवरत मूसलाधार बारिश के चलते आने वाली बाढ़ के शिकार भी ज्यादातर सामाजिक और आर्थिक रूप से निचले क्रम के लोग ही होते हैं। दरअसल ऐसे लोगों को मौसम नहीं मारता, बल्कि वह गरीबी और लाचारी मारती है, जो उन्हें निहायत प्रतिकूल मौसम में भी बाहर निकलने को मजबूर कर देती है। हैरानी की बात यह भी है कि हमारे देश में भीषण सर्दी और बाढ़ को तो कुदरत का कहर या प्राकृतिक आपदा माना जाता है, लेकिन झुलसा देने वाली गरमी को प्राकृतिक आपदा मानने का कोई प्रावधान सरकारी नियम-कायदों में नहीं है। ऐसे में, भीषण गरमी के बावजूद सरकारों पर लोगों की जान बचाने का कोई दबाव नहीं रहता। वे बस एडवाइजरी जारी कर देती हैं कि लोग इस गरमी के प्रकोप से बचने के लिए यह करे और वह न करे।

देश के विभिन्न हिस्सों में बडी संख्या में लोग गरमी की वजह से मौत का शिकार बनते हैं लेकिन उनकी खबर तक नहीं बन पाती। गरीब तबके के पास गरमी से मुकाबला करने के पर्याप्त बुनियादी इंतजाम नहीं होते। करोडों परिवार ऐसे हैं जिनके पास पंखे-कूलर जैसी सुविधा भी नहीं है। पीने का साफ पानी नहीं है। लू लगने पर उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा भी नहीं मिल पाती। ऐसे में गरमी गरीब को निगल जाती है। इस स्थिति की इसकी बड़ी वजह हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली तो है ही, इसके साथ ही एक अन्य वजह यह भी है कि मौसम से लड़ने वाला हमारा सामाजिक तंत्र भी अब कमजोर हो गया है।

एक समय था जब सरकार से इतर समाज खुद मौसम की मार से लोगों को बचाने के काम अपने स्तर पर करता था। सामाजिक और पारमार्थिक संस्थाएं लोगों को पानी पिलाने के लिए जगह-जगह प्याऊ लगाती थीं या शरबत पिलाने का इंतजाम करती थीं। यही नहीं, पशु-पक्षियों के लिए भी पीने के पानी का इंतजाम किया जाता था। सड़कों के किनारे पेड़ भी इसीलिए लगाए जाते थे ताकि राह चलते लोग उन पेड़ों की छांव में कुछ देर सुस्ता सकें। सच कहे तो किसी भी मौसम की अति हमारे भीतर के इनसान को आवाज देती थी, परस्पर एक-दूसरे की चिंता करने के लिए प्रेरित करती थी। लेकिन आर्थिक आपाधापी और विकास के इस नए दौर में परस्पर चिंता और लिहाज का लोप हो गया है और इसीलिए परमार्थ के ये काम अब बंद हो गए हैं। अब तो सड़कों से पेड़ भी गायब हो गए हैं और बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना भी मुश्किल है। पानी को हमारी सरकारों ने लगभग पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया है और बाजार को इससे कोई मतलब नहीं कि गरमी में पानी राहत या जान बचाने के लिए कितना उपयोगी है। ऐसे में लोगों का लू की चपेट में आना स्वाभाविक है। कहा जा सकता है कि गरमी के कहर को जानलेवा बनाने के लिए हमारी सरकारों और हमारे सामाजिक तंत्र का निष्ठुर रवैया जिम्मेदार है।(संवाद)