लालू खुद चुनाव नहीं लड़ पाए, लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी को लोकसभा का चुनाव लड़वाया था और दोनों ही चुनाव हार गई थीं। उनके मात्र 4 उम्मीदवार चुनाव जीत सके थे। यह उनकी राजनैतिक मौत ही थी, लेकिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में नीतीश का साथ लेकर लालू यादव ने मरते मरते अपने दोनों बेटों को राजनीति में स्थापित कर दिया और अपनी बेटी को भी राज्यसभा भेज दिया। उन्हेे दंभ था कि उनके कारण नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं, जबकि सच यह भी था कि नीतीश कुमार के कारण ही उनकी राजनीति के पतन काल में भी उनके दो बेटे और एक बेटी राजनैतिक रूप से स्थापित हो गए थे, अन्यथा लालू के बचे जनाधार से न तो उनके बेटे कहीं से विधायक बन पाते और न ही उनकी बेटी संसद पहुंच पाती। यहां यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि 2010 के विधानसभा चुनाव में उनकी पत्नी राबड़ी देवी दो स्थानों से चुनाव लड़ रही थीं और दोनो से ही हार गई थीं। लालू के राजद को मात्र 22 सीटें मिली थीं और वह अपनी ताकत से राज्य सभा का एक सांसद भी नहीं जिता सकता था।

बहरहाल, 2019 का चुनाव तो लालू युग की समाप्ति का एलान ही साबित हुआ। इस बार भी लालू ने अपनी बेटी मीसा को टिकट दिया और इस बार भी वह हार गईं। पिछले बार तो उनके चार उम्मीदवार चुनाव जीत भी गए थे, इस बार तो कोई नहीं जीता। राजद गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ रहा था और गठबंधन का मात्र एक प्रत्याशी ही चुनाव जीत सका। उस जीत के लिए वह प्रत्याशी लालू के समर्थन का मुहताज नहीं था। लिहाजा उस जीत का श्रेय भी लालू नहीं ले सकते।

चुनाव में हार जीत तो होती ही रहती है और हार को किसी दल या नेता की राजनीति की समाप्ति नहीं कही जा सकती। हारने वाला फिर जीत भी लेता है, लेकिन लालू के मामले में सिर्फ हार ही एक कारण नही है, जिससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि लालू युग का अंत हो गया। दरअसल इसके और भी अनेक कारण हैं। एक कारण तो लालू का खुद चुनाव नहीं लड़ पाना है। उनको चार मुकदमों में सजा मिली हुई है। ऊपरी अदालत के राहत मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे। उनको पहली बार सजा 2013 में मिली थी। उसके 6 साल हो गए हैं, लेकिन उसकी अपील का निस्तारण अभी तक झारखंड हाई कोर्ट कर नहीं पाया है।

दूसरा कारण यह है कि लालू परिवार के मुख्य सदस्यों पर अनेक मुकदमे चल रहे हैं। वे सभी भ्रष्टाचार से संबंधित मुकदमे हैं। उन्होंने तेजस्वी को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बनाया है। उन्होंने अपना वह रूतबा हासिल भी कर लिया और पिछले लोकसभा चुनाव में राजद तथा बिहार के कथित महागठबंधन का नेतृत्व करते वही दिख रहे थे। विपक्षी दलों की बैठकों और समारोहों में शिरकत भी तेजस्वी ही कर रहे थे। लेकिन नेता के रूप में वह लालू का स्थान लोगों के जनमानस मे नहीं ले सके। न तो उनमें लालू वाला स्टैमिना है और न ही करिश्मा। लालू वाला करिश्मा हो भी नहीं सकता, क्योकि लालू जमीन से उठकर खड़े हुए नेता था, जबकि तेजस्वी ने जब होश संभाला, तो वे बिहार के मुख्यमंत्री आवास में थे।

पृष्ठभूमि की बात तो अपनी जगह है, एक बड़ी बाधा उनपर चल रहा भ्रष्टाचार और बेनामी संपत्ति का मुकदमा है। उनके नाम से करोड़ों की संपत्ति है और इस संपत्ति के लिए आवश्यक आय के स्रोत का पता नहीं। जाहिर है, वह भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति है, जो उन्हें अपने माता- पिता के कारण प्राप्त हुई। कानूनी मामलों के जानकार कहते हैं कि उन मुकदमो में तेजस्वी को सजा मिलना निश्चित है, क्योंकि ठोस दस्तावेजी सबूतों को वे अदालत में नहीं झुठला सकते।

यदि भ्रष्टाचार का मामला सिर्फ तेजस्वी के खिलाफ होता, तो भी गनीमत थी। लालू की बेटी मीसा भारती भी बेनामी संपत्ति कानून के तहत मुकदमे का सामना कर रही हैं। प्रवत्र्तन निदेशालय ने भी मुकदमा ठोक रखा है और उनकी कुछ संपत्तियां जब्त भी हुई हैं। जाहिर है, वह भी मुकदमो में सजा पा सकती हैं। सजा यदि दो साल से ज्यादा की हुई, तो उन्हें संसद की अपनी सदस्यता गंवानी पड़ेगी और अगला चुनाव तक नहीं लड़ सकतीं। वैसे पाटलीपुत्र लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हारने के बाद उन्होंने एमपी लैड योजना के तहत विकास के कार्यों के लिए दिए गए फंड को जिस तरह से वापस ले लिया है, उससे पता चलता है कि वह राजनीति के लिए फिट भी नहीं हैं।

लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप भी मुकदमों के घेरे से बचे हुए नहीं हैं। अभी साढ़े तीन करोड़ के एक बंगले को आयकर विभाग ने सीज किया है। उस बंगले के मालिकों में तेज प्रताप भी शामिल हैं। जाहिर है, उस बेनामी संपत्ति के मुकदमे में तेज प्रताप भी दोषी ठहराए जा सकते हैं। राबड़ी देवी खुद भी आईआरसीटीसी घोटाले में एक अभियुक्त हैं। सबसे खराब बात यह है कि लालू यादव खुद जेल में हैं, इसलिए इन मुकदमों का सामना करने के लिए अपने परिवार के सदस्यों की वे मदद भी नहीं कर सकते। जाहिर है, लालू के परिवार के कुछ लोग खुद चुनाव लड़ने के योग्य भी नहीं रह जाएंगे और उधर जनता ने भी उनको ठुकरा दिया है। लालू यादव ने ओबीसी एकता की कीमत पर मुस्लिम यादव का जो गठजोड़ तैयार किया था, उनकी राजनीति उस गठजोड़ में कैद होकर रह गई है। और इसके साथ ही बिहार का लालू युग समाप्त हो गया है। देखना है कि इस शून्य को कौन भरता है। (संवाद)