आखिर सभ्य समाज के लिए आदिवासियों की जान की कीमत कुछ भी क्यों नहीं? ये आदिवासी कथित सभ्य समाज के जुल्मों का शिकार सदियों से रहे हैं। उनके जुल्मों से बचने के लिए वे उन बीहड़ इलाकों मे जाकर बस गए थे, जहां सभ्य समाज की पहुंच नहीं हो सकती थी, लेकिन आधुनिक औद्योगिक क्रांति के बाद आदिवासियों के लिए वे एक बार फिर अभिशाप बनने लगे हैं। अंग्रेजों के जमाने से जैसे जैसे कथित सभ्य समाज के साथ उनकी नजदीकी बढ़ रही है, उनका शोषण और बढ़ता जा रहा है। कहीं नक्सलवादी कहकर उन्हें ठिकाने लगाया जा रहा है, तो कहीं कागजों में उलझाकर उनकी जिंदगी को नर्क बनाया जा रहा है।

आजादी के बाद भी इन आदिवासियों का शोषण और दमन जारी है। उनका जंगल और जल व उनकी जमीन उनसे छीनी जा रही है। यह वैध तरीके से भी किया जा रहा है और अवैध तरीके से भी। 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया आजाद भारत का संविधान भी उसकी समस्या को हल नहीं कर पाया है। उलटे उसने उसकी जमीन छीनने का वैधानिक मार्ग प्रशस्त कर रखा है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में जो कुछ हुआ, वह इसी सांवैधानिक विफलता का परिणाम है।

90 बीघे जमीन पर खेती आदिवासी ही कर रहे थे। यह उस 200 बीघे जमीन का हिस्सा है, जिसे फर्जीवाड़ा करके एक आइएएस अधिकारी ने 1950 के दशक में ही अपने एनजीओ के नाम करवा लिया था। उस जमीन पर कब्जा उन आदिवासियों का ही बना रहा और वे ही उस पर खेती करते रहे। बाद में 1989 में उस आइएएस अधिकारी ने एनजीओ की जमीन एक और फर्जीबाड़ा करके अपने और अपने परिवार के नाम पर करवा लिया, जो कानून सम्मत नहीं था। लेकिन खेती आदिवासी ही करते रहे। बाद में उस अधिकारी ने उस पर कब्जा करने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो सके।

फिर शुरू हुआ भूमि विवाद। आदिवासी उस जमीन को अपनी ही समझ रहे थे और वास्तव में थी भी उन्हीं की, क्योंकि आजादी के पहले से ही वह उनलोगों के कब्जे मे ही थी और खेती भी वे ही कर रहे थे। सच कहा जाय, तो उस जमीन को खेती योग्य भी उनके पुरखों ने ही बनाया था। कायदे से कागज पर उस जमीन के मालिक के रूप में उनको चिन्हित कर दिया जाना चाहिए था और यह स्टेट की जिम्मेदारी थी, क्योंकि वे आदिवासी आजादी के बाद लगभग निरक्षर थे और कागजों व दस्तावेजों की दुनिया से दूर थे। लेकिन उनकी साथ धोखा किया गया।

बहरहाल वह सेवानिवृत आइएएस अधिकारी सोनभद्र की जमीन को अपने कब्जे में नहीं ले सकता था, क्योंकि आदिवासियों ने सक्षम पदाधिकारियों के पास अपना दावा ठोंक दिया था और उसे वे छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। भूमि कानून की दृष्टि में विवादास्पद हो गई थी। राजस्व अधिकारियों को स्थिति स्पष्ट करनी थी। लेकिन इसी बीच उस पूर्व अधिकारी ने 2017 में 90 बीघे भूखंड की बिक्री उसी पंचायत के प्रधान यज्ञदत्त के हाथों कर दी। वह ब्रिकी भी गैरकानूनी ही थी, क्योंकि कानून वह जमीन उस अधिकारी का था ही नहीं। अपने एनजीओ की जमीन कोई अपने निजी नाम पर नहीं करवा सकता।

प्रधान यज्ञदत्त द्वारा जमीन खरीदने के बाद विवाद मे हिंसक मोड़ आने लगा। पुलिस प्रशासन भी उस विवाद के बीच में आ रहा था। और बड़ी हिंसा की आशंका बलवती हो गई थी। पुलिस ने दफा 107, 116 और 145 के तहत कार्रवाई भी की। यज्ञदत्त और उसके परिवार के लोगों के खिलाफ कार्रवाई हो रही थी, लेकिन मामला शांत नहीं हो रहा था। खबर आ रही है कि यज्ञदत्त की संपत्ति कुर्क करने का आदेश तक पुलिस ने जारी करवा दिया था। यानी पुलिस इस मामले में अपनी तरफ से सजग दिखाई पड़ रही थी।

उसके बावजूद तीन दर्जन से ज्यादा ट्रैक्टरों के साथ करीब 200 लोग उस गांव में जमीन पर कब्जा करने के लिए पहुंच गए। आदिवासियों ने जमीन कब्जा करने का विरोध किया, तो यज्ञदत्त और उसके लोगों ने गोलियों की बरसा आदिवासियों पर कर दी। उसमें 10 लोग मारे गए और 25 बुरी तरह घायल हैं। घायल लोगो में कुछ की हालत बेहद नाजुक बनी हुई है।

सबसे हैरत की बात तो यह है कि पुलिस द्वारा उस विवाद के प्रति सजग रहने के बावजूद यह घटना घटी। घातक हथियारों के साथ दर्जनो ट्रैक्टरों में 200 से ज्यादा लोग गाव की ओर बढ़ रहे थे और पुलिस को भनक तक नहीं लगी। इस पर विश्वास करना बहुत कठिन लगता है। पुलिस महकमा को मैनेज किए बिना अपराधी खुलेआम दिनदहाड़े इतने बड़े नरसंहार को अंजाम दे ही नहीं सकते थे।

फिलहाल यज्ञदत्त और उसके कुछ लोगों की गिरफ्तारी पुलिस ने की है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसकी पूर्ण जांच करवा रहे हैं और उनका दावा है कि 10 दिन मे जांच पूरी करके वे 1955 से लेकर अबतक की हुई सभी अनियमितताओं के दोषी लोगों को दंडित करेंगे। वे दंडित करें। यह आवश्यक है, लेकिन आदिवासियों के भूमि अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए वे क्या करते हैं, वह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। (संवाद)