साफ है कि यह सिलसिला आगे चलेगा। विरोधी जितना हमला करेंगे उसके जवाब में मायावती के गले में नोटों की माला पड़ती जाएगी। आखिर आयकर विभाग कितनों की जांच करेगा और कब तक करता रहेगा? बसपा एवं मायावती के रुख को देखते हुए यह कल्पना ही निरर्थक है कि आयकर विभाग को नोटों के स्रोतों की जांच में सहयोग मिलेगा। हालांकि पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं को दाता बनाकर रुपए को वैध साबित करना बिलकुल आसान है, पर मायावती का स्वभाव एवं बसपा का तेवर इसके उलट है। जरा सोचिए, आयकर विभाग को बसपा ने कह दिया कि मालों के लिए नोट कहां से आए वे बताएंगे ही नहीं तो क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा आयकर विभाग न्यायालय मंे जाएगा और न्यायालय के आदेश से कागजात पाने की कोशिश करेगा। इससे आगे कुछ होगा इसकी उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। आखिर उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला कई सालों से चल ही रहा है।
मान लीजिए मायावती को नोटों की माला नहीं पहनाई जाती या आलोचना के बाद वे पहनना बंद कर दंे तो उससे बसपा या मायावती की राजनीतिक शैली या फिर देश की राजनीति में कोई मौलिक परिवर्तन आ जाएगा क्या? मायावती को नोटों की माला इस समय इसलिए विवाद का विषय बन गया, क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की जगह राजनीतिक दुश्मनी में परिणत हो चुकी है। सपा एवं बसपा के रिश्ते पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन अब कांग्रेस भी उसी श्रेणी में शामिल हो चुकी है। मायावती का कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के खिलाफ तीखे हमले किसी से छिपे नहीं है। अगर सामान्य दलीय प्रतिस्पर्धा का मामला होता तो नोटों की माला हंगामे का कारण बनती ही नहीं। हमारे राजनीतिक प्रतिष्ठान के ज्यादातर नेता जानते हैं कि हम्माम में वे भी दूसरे के समान नंगे हैं। राजनीति में धन कहां से और कैसे आता है यह भी उनको पता है। इसलिए सामान्यतः कोई बहुत ज्यादा आगे बढ़कर इसे मुद्दा बनाने का दुस्साहस नहीं करता है। हां, भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा मामला हो तो बात अलग है। धन तो धन है चाहे वह माला के रुप में पहना दी जाए या फिर बंद बैग द्वारा पहुंचाई जाए। मायावती ने केवल इतना किया है कि वह हंगामा मचने पर अपना बचाव करने या किसी तरह की सफाई की बजाय विरोधियों पर हमला करतीं हैं। यह तर्क उनके समर्थकों के गले आसानी से उतरता भी है कि दलित की बेटी को धन या अन्य उपहार मिलना उन्हंे बरदाश्त नहीं होता।
तो केवल मायावती के तरीके में अंतर है। वे बैठक में अपने सांसदों, विधायकों से सीधे धन मांगती दिख जाती हैं, या विरोधियों व भुग्तभोगियों के आरोपों के अनुसार पार्टी टिकट की कीमत वसूलती होंगी। नेताओं ने उनका स्वभाव समझते हुए उन्हें प्रसन्न करने के लिए धन या महंगे उपहारों के सार्वजनिक प्रदर्शन का रास्ता अपनाया है। हालांकि मायावती ने स्वयं यह ऐलान किया था कि वे ज्यादा महंगे उपहार नहीं लेंगी, किंतु बसपा जैसी पार्टी 25 वर्ष पूरा होने का आयोजन सादगी से कैसे मना सकती थी! किंतु हमारे विचार का दायरा केवल बसपा एवं मायावती तक सीमित नहीं रहना चाहिए। हमारी राजनीति मंे नेताओं को थैलियां भेंट करने का चलन पहले से है। फिर सिक्कों से, चांदी की ईंटों से तौलने का भी चलन हुआ। यह बात अलग है कि पहले थोड़ा-थोड़ चंदा वसूलकर नेताओं को कुछेक लाख या हजार तक भेंट किया जाता था। धीरे-धीरे समय बदला और अब तो सभाओं में थैलियां भेंट करने की परंपरा जैसे टूट रही है। इसकी बजाय पार्टियों में ऐसे प्रबंध कौशल के माहिर नेता पैदा हो गए, जो सामान्य व चुनावी खर्चों के लिए धन की व्यवस्था करते हैं। कोई उनसे शायद ही पूछता हो कि आपने इनता धन कहां से लाया? आखिर नेतृत्व उसका उपभोग करता है। अलग-अलग नेताओं के भी वित्त पोषण के सा्रेत बन गए हैं। पूरा मामला लेन-देन का है। आप हमें कृतार्थ करें, हम आपको उपकृत करंेगे। अब सादगी, सदाचार कालबाह्य शैली हो गई है। किसी भी पार्टी के केन्द्र या राज्यों के प्रमुख नेताओं की ओर नजर उठा लीजिए, ज्यादातर के रहन-सहन एवं जीवन शैली मंे समानता है। इसमें केवल मायावती को कठघरे में खड़ा करना बेमानी है। मायावती पर सबसे ज्यादा हमला करने वाली सपा में मोहन सिंह जैसे नेताओं की बात और है, पर मुलायम सिंह एवं उनके परिवार की संपत्ति पिछले दो दशकों में कितनी बढ़ी है? उन पर भी आय से अधिक संपत्ति का मामला चल ही रहा है। वास्तव में मौजूदा राजनीति में इन प्रवृत्तियांे के खिलाफ संघर्ष संभव ही नहीं।
किंतु एक नागरिक के तौर पर हमारा रवैया क्या है? आम जनता भी तामझाम एवं आडंबर वाले नेताओं की ओर ही आकर्षित होती है। आज हमारा समाज सामान्यतः सरल, ईमानदार, सादगी से जीने वाले व्यक्ति को चाहे वह कितना योग्य क्यों न हो नेता स्वीकर नहीं करता। उल्टे कई बार उसका उपहास उड़ाया जाता है। इस बदले चरित्र और मनोविज्ञान ने राजनीतिक प्रतिष्ठान को ज्यादा विकृत किया है। हाल के वर्षो में राजनीति में जो पौध आई है, वह इसी शैली की पैदाइश है। उसके लिए ऐश्वर्यपूर्ण और तामझाम वाली जीवन और कार्यशैली ही आदर्श है। जीवन के किसी क्षेत्र पर नजर दौड़ाइए, इस मायने में चारों ओर निराशाजनक तस्वीर है। मीडिया की भूमिका तो सामर्थ्यवानों की निगरानी करने एवं आम जनता को दिशा देने की है। मीडिया का बड़ा वर्ग इस समय किस श्रेणी के नेताओं और व्यक्तित्वों को महत्व दे रहा है? क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया है कि क्यों एक समय पत्रकारांे का सम्मान करने वाला या उससे डरने वाला राजनीतिक प्रतिष्ठान हर अनुकूल मौके पर मीडिया के खिलाफ बोलने से नहीं चूकता? आज एक छोटा नेता भी मीडिया के रवैये की आलोचना कर देता है। मायावती तो जब चाहतीं हैं मीडिया को मुंह चिढ़ा देतीं हैं। आखिर मीडिया ने नोटों की माला को बड़ा मुद्दा बनाया और बसपा नेताओं ने पत्रकारों की उपस्थिति में उन्हें चिढ़ाते हुए मायावती को नोटों की माला पहना दी। कारण साफ है।
समुच्चय रुप में मीडिया भी उसी क्षरण की प्रक्रिया का अंग हो चुका है। ऐसे में हम उम्मीद किससे करें? वास्तव में मायावती की नोटांे की माला तो हमारे समाज के समग्र क्षरण प्रक्रिया का एक छोटा साकार प्रतीक है। इसका अंत करने के लिए भारत में बहुआयामी बदलाव की जरुरत है। वर्तमान राजनीतिक विरोध से तो बदलाव की संभावना क्षीण हो रही है। (संवाद)
करोड़ी माला की माया
समाज के समग्र क्षरण का प्रतीक
अवधेश कुमार - 2010-03-22 10:14
आप चाहे उन्हे मालावती कह दीजिए, या फिर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय ंिसंह उन्हें दलित की नहीं दौलत की बेटी कहें, बसपा सार्वजनिक तौर पर इससे प्रभावित है तो इस रूप में कि उसने नोटों की एक माला पर मचे हंगामे के बाद यह घोषणा कर दी कि अब हर जगह बहन जी को नोटों की माला ही पहनाई जाएगी। संसद मंे हंगामे के बाद आयकर विभाग द्वारा जांच कराने की घोषणा की प्रतिक्रिया में अगले ही दिन पार्टी सांसदों एवं विधायकों की बैठक में मायावती को घोषित 16 लाख रुपए के हजारी नोटों की माला प पहना दी गई।