राजा खुद वामपंथियों के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को स्वीकार करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में वामदलों को फिर से प्रासंगिक बनाने के लिए पार्टी की नीतियों को नया रूप देने की बात की है और ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों के माध्यम से बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाने में की बात भी की है। वे स्वीकार करते हैं कि केवल वाम ही उस आंदोलन की जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर सकते। वामपंथी आंदोलन में एक उत्प्रेरक के रूप में काम करने की कोशिश करेंगे, लेकिन कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी भाजपा विरोधी संघर्ष में भाग लेना होगा।

भाजपा की भारी जीत के बाद से मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस में नेतृत्व संकट है और बसपा सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन समाप्ति की घोषणा कर दी है। अखिलेश यादव ने भी जवाब दिया है कि आने वाले महीने में उत्तर प्रदेश में ग्यारह विधानसभा क्षेत्रों के चुनावों में पार्टी अकेले दम पर उतरेगी।

विपक्ष के लिए स्थिति काफी खराब है। तेलंगाना और गुजरात में कांग्रेस में टूट हो रही है। कर्नाटक में भी कई कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है। राहुल गांधी ने खुद कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं और अनेक राज्यों के पार्टी अध्यक्षों से इस्तीफे की पेशकश की है। मंथन की प्रक्रिया जारी है। किस तरह से यह संगठन के लिए अच्छा या बुरा होगा, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि विपक्षी दल अब भाजपा का सामना कर रहे हैं।

2019 में बीजेपी पूरी तरह से नई बीजेपी है और इसकी बड़ी ताकत को संसद और बाहर दोनों में समान स्तर पर लड़ने के लिए किसी भी व्यावहारिक रणनीति पर काम करना होगा। अगले पांच साल के दौरान विधानसभा चुनावों में जीत सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। अंत में 2024 में लोकसभा चुनाव होगा। भारत में किसी भी राजनीतिक दल के लिए केंद्र में सत्ता में दस साल लगातार बने रहना कोई नई बात नहीं है। 2004 से दस साल तक सत्ता में से बाहर रहने के बाद 2014 में भाजपा खुद सत्ता में आई। इससे पहले भाजपा 1999 से पूर्ण कार्यकाल और 1998 में अल्पावधि के लिए सत्ता में थी। 1996 में भाजपा केवल 13 दिनों के लिए सत्ता में थी। । संसदीय लोकतंत्र में ये सामान्य घटनाक्रम हैं लेकिन 2019 के चुनावों के बाद चीजें काफी हद तक बदल गई हैं।

भाजपा अब न केवल भारत में बल्कि पूरे लोकतांत्रिक विश्व में जहां संसदीय चुनाव होते हैं, वहां सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। केवल चीन में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की अधिक सदस्यता है लेकिन चीन मुख्य रूप से एकदलीय व्यवस्था वाला राज्य है और इसे लोकतांत्रिक देशों के बीच नहीं शुमार किया जाता है। देश के हर कोने को कवर करने वाला आरएसएस जमीनी स्तर का संगठन है। अब भाजपा सच्चे अर्थों में एक अखिल भारतीय पार्टी है।

2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों से देश के वामपंथी आंदोलन को बड़ा झटका लगा है, खासकर देश की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीआई और सीपीआई (एम) को। 17 वीं लोकसभा में, सीपीआई में केवल दो सदस्य होंगे जबकि सीपीएम के तीन सदस्य होंगे। नई लोकसभा के 542 निर्वाचित सदस्यों में से कुल पांच वामपंथी सदस्य हैं। इन पांच सीटों में से केरल की केवल एक सीट को सीपीएम ने लेफ्ट ब्लॉक की ताकत के आधार पर जीता है, तमिलनाडु की अन्य चार सीटों पर द्रमुक के साथ गठबंधन करके विजय हासिल की गई है।

1917 में रूस में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बाद भारत में 1925 में सीपीआई का गठन हुआ था। जाहिर है कुछ साल के बाद यह अपनी स्थापना का शताब्दी वर्षगांठ मनाएगी। लेकिन उसके पहले उसका इस तरह भारत के सिकुड़ कर रह जाना भारी चिंता की बात है। किसी ने यह नहीं सोचा कि कि वामपंथी दलों की सीटें घटकर मात्र 5 रह जाएगी। जबकि सच्चाई यह भी है कि 1951-52 में हुए लोकसभा के पहले चुनाव में यह कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी।

1952 में पहले आम चुनाव के बाद से पिछले 67 वर्षों में ट्विस्ट और टर्न के बाद, वामपंथी अनिश्चित स्थिति में हैं। सीपीआई और सीपीआई (एम) को संयुक्त रूप से राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिकता हासिल करने के लिए एक नए राजनैतिक विमर्श की तलाश करनी होगी। सीपीआई के डी राजा और सीपीआई (एम) के सीताराम येचुरी को 2019 और इसके बाद के वर्षों में अशांत राजनैतिक माहौल में वामपंथी आंदोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी मिली हुई है। (संवाद)