लेकिन कुमारस्वामी सरकार के पतन के साथ कर्नाटक के नाटक का अंत नहीं हुआ है। कुमारस्वामी सरकार का पतन अपने आप में लक्ष्य नहीं था। लक्ष्य था भारतीय जनता पार्टी की सरकार का गठन और यह अभी होना बाकी है। वैसे यदुरप्पा के एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने में अब ज्यादा अड़चनें नहीं रह गई हैं। उनकी पार्टी के पास 105 विधायक हैं, जो बागी 15 विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के बाद विधानसभा के शेष सदस्यों की बहुमत संख्या है।

पर ड्रामा सिर्फ यदुरप्पा सरकार के गठन के साथ ही समाप्त नहीं हो जाएगा। बागी विधायकों की क्या गति होगी, वह इस ड्रामे की दिशा और दशा निर्घारित करेगी। कांग्रेस और जद(स) विधायक स्पीकर को अपना इस्तीफा भेज चुके हैं। वे चाहते हैं कि उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया जाय। पर स्पीकर उनका इस्तीफा स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं। स्पीकर उनकी सदस्यता दल बदल विधेयक कानून के तहत समाप्त करना चाहते हैं।

सवाल उठता है कि जब सदस्यता समाप्त होनी ही है, तो फिर स्पीकर दलबदल कानून के तहत उनकी सदस्यता क्योें समाप्त करना चाहते हैं, वे सीधे इस्तीफा क्यों नहीं स्वीकार कर लेते? तो इसका जवाब यह है कि यदि उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया जाता है, तो वे यदुरप्पा सरकार में मंत्री बन सकते हैं और फिर 6 महीने के अंदर दुबारा विधायक बनकर अपने मंत्री पद पर बरकरार रह सकते हैं। लेकिन यदि दलबदल विरोधी कानून के तहत वे अपनी सदस्यता गंवाते हैं, तो उनको मुख्यमंत्री मंत्रीपद की शपथ उनके दुबारा विधायक पद पर चुनकर आने के बाद ही दिला सकते हैं।

दरअसल वाजपेयी सरकार ने दलबदल कानून को और कठोर बनाने के लिए यह प्रावधान कर दिया था कि यदि कोई विधायक दलबदल कानून के तहत सदन की सदस्यता गंवाता है, तो वह तुरंत मंत्री नहीं बन सकता। मंत्री वह तभी बनेगा, जब वह दुबारा सदन में चुनाव जीतकर आ जाए। अब वर्तमान नाटक में उन बागी विधायकों को मंत्री पद का लालच दिया गया है और उनका यह लालच तभी पूरा होगा, जब उन्हें दलबदल विरोधी कानून के तहत अपनी सदस्यता नहीं गंवानी पड़े।

स्पीकर ने उन्हें नोटिस जारी कर रखा है कि दलबदल कानून के तहत उनकी सदस्यता क्यों नहीं समाप्त कर दी जाए। वैसे उन्होंने पार्टी व्हिप का उल्लंघन करते हुए विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं की। उनकी सदस्यता समाप्त करने के लिए इतना ही काफी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में उन बागी विधायकों को संरक्षण प्रदान कर रखा है और दलबदल विरोधी कानून की व्हिप उल्लंघन वाली शर्त से मुक्त दिया है, लेकिन पार्टी छोड़ने पर भी सदस्यता समाप्त हो जाती है। दोनों पार्टियों ने इसके बिना पर ही उन विधायकों की सदस्यता दलबदल विरोधी कानून के तहत समाप्त करने की अपनी स्पीकर से कर रखी है।

स्पीकर द्वारा जवाब मांगने पर उन बागी विधायकों ने 28 दिन का समय मांगा है, लेकिन दलबदल विरोधी कानून के अनुसार स्पीकर एक सप्ताह की नोटिस दे सकते हैं। यान एक सप्ताह बीत जाने के बाद ही स्पीकर इस कानून के तहत उनकी सदस्यता समाप्त करने की घोषणा कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है, तो यह भले ही बागी विधायकों क खिलाफ जाएगा, लेकिन संभावी मुख्यमंत्री यदुरप्पा को इससे राहत मिलेगी और उन बागी विधायकों को मंत्री पद देने की उनकी प्रतिबद्धता का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

और यदि उनकी सदस्यता दलबदल विरोधी कानून के तहत नहीं, बल्कि इस्तीफे के कारण समाप्त होती है, तो फिर उन्हें मंत्री बनाना पड़ेगा। बात मंत्री बनाते के साथ ही समाप्त नहीं हो जाती। उन सबको फिर से विधानसभा का चुनाव लड़ना होगा और मंत्री पद पर वे ही बने रह सकते हैं, जो चुनाव जीतकर वापस आ जाएंगे। जो हार गए, उन्हें मंत्री का पद छोड़ना पड़ेगा। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहेगी। उन विधायकों द्वारा खाली किए गए स्थानों के लिए जो चुनाव होंगें, उनमें यदि उनमें से अधिकांश चुनाव हार जाते हैं और यदुरप्पा के समर्थक विधायकों की संख्या 112 तक नही पहुंचती, तो फिर यदुरप्पा सरकार ही विधानसभा में गिर जाएगी।

जाहिर है, अंतिम फैसला जनता के दरबार में ही होना है। सदस्यता खोए कांग्रेस और जनता दल के विधायक यदि चुनाव हार जाते हैं, तो फिर मामला वहीं पहुंच जाएगा, जहां वह नाटक शुरू होने के पहले था। हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत की पृष्ठभूमि में भाजपा उम्मीद कर सकती है कि उपचुनावों में उसके उम्मीदवार जीत जाएंगे, लेकिन लोकसभा और विधानसभा के लिए मतदाता अलग अलग तरीके से वोटिंग करता है, हम यह उड़ीसा में देख चुके हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हम देख चुके हैं कि विधानसभा चुनावों में तो मतदाताओं ने भाजपा को हरा दिया था, लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे भारी जीत दिला दी।

कर्नाटक के नाटक में एक पात्र भारतीय जनता पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व भी है। यह भी महत्वपूर्ण है कि वह क्या चाहता है। उसके पास इस समय दो विकल्प है। एक विकल्प तो मौजूदा विधानसभा में ही भारतीय जनता पार्टी सरकार का गठन करवा दिया जाय और दूसरा विकल्प विधानसभा को भंग करवाकर फिर से ताजा चुनाव करवा दिए जाएं। चूंकि केन्द्र में भाजपा की ही सरकार है और राज्यपाल भी उसके इशारे पर ही वहां निर्णय लेते हैं, इसलिए यह दूसरे विकल्प पर भी काम करना उसके लिए कठिन नहीं है। लेकिन लगता है कि माजूदा विधानसभा को बरकरार रखते हुए ही सरकार बनाना उसकी पहली प्राथमिकता होगी। 15 उपचुनावों में हार-जीत का रिस्क लेना सभी सीटों के चुनाव में हार-जीत के रिस्क से छोटा है। लेकिन इतना तो तय है कि नाटक का पटाक्षेप तो मतदाता ही करेंगे। तब तक हमें इस नाटक का मजा लेना चाहिए। (संवाद)