कार्ल मार्क्स का कहना था कि उत्पादन के लिए पूँजी, श्रम, और जमीन की आवश्यकता होती है। बाद में इसमें ‘तकनीक’ को भी जोड़ दिया गया और हाल ही में इसमें ‘सामाजिक पूँजी’ को भी जोड़ा गया है। आजकल यह मान्यता है कि उत्पादन के लिए पूँजी, श्रम, जमीन, तकनीक और सामाजिक पूँजी आवश्यक है।
आखिर सामाजिक पूँजी है क्या? सामाजिक पूँजी मौटे तौर पर सामाजिक समूहों के उन कारकों से संबंधित है जिसमें पारस्परिक संबंधों, साझा पहचान, साझा समझ, साझा मानदंड, साझा मूल्यों, आपसी विश्वास, आपसी सहयोग और पारस्परिकता अर्थात एक दूसरे के दुःख सुख में काम आना जैसी चीजें शामिल हैं। सामाजिक पूँजी में सभी सामाजिक नेटवर्क (जिन लोगों को व्यक्ति जानता है) और इन नेटवर्कों से उत्पन्न होने वाले झुकाव व भाव, जो एक दूसरे के लिए कुछ करने के लिए उत्पन्न होते हैं शामिल हैं। आपसी विश्वास, पारस्परिकता, सूचना का प्रवाह और नेटवर्क से जुड़े सहयोग उन लोगों के लिए मूल्य बनाता है जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
पूँजी क्या है? बाजार में अपेक्षित रीटर्न के साथ संसाधनों के निवेश को पूँजी कहते हैंद्य पूँजी एक संसाधन है जिसे लाभ के लिए निवेश किया जाता हैद्य एक आर्थिक पूँजी होती है जो धन दौलत है, इसे सभी जानते हैं। दूसरी मानवीय पूँजी होती है जो किसी व्यक्ति की बुद्धिमता, ज्ञान, शैक्षणिक योग्यता, अनुभव और कौशल से संबधित होती है। तीसरी सांस्कृतिक पूँजी होती है जो उसके पहनावे, बोलने के लहजे, शब्दज्ञान और स्वयं को व्यक्त करने पर निर्भर करती है। चैथी सामाजिक पूँजी होती है, जो लक्ष्यों को प्राप्त करने में सामाजिक संपर्क और सामाजिक संबंधों का उपयोग करने में काम आती है।
सामाजिक पूँजी सामाजिक रिश्तों में एक निवेश है जिसके माध्यम से अपने सामाजिक संपर्क के अन्य व्यक्तियों के संसाधनों का दोहन किया जा सकता है। आर्थिक पूँजी के मुकाबले सामाजिक पूँजी की विशेषता यह है कि आर्थिक पूँजी उपयोग से कम हो जाती है जबकि सामाजिक पूँजी उपयोग से कम नहीं होती। सामाजिक पूँजी का उपयोग न किया जाए तब यह कम हो जाती है। या तो आप इसे इस्तेमाल करें वरना आप इसे खो देंगे। इस तरह से यह मानवीय पूँजी के समान है। मानवीय पूँजी का भी यदि उपयोग न किया जाय तो व्यक्ति इसे खो देता है। मिसाल के तौर पर यदि कोई व्यक्ति डॉक्टरी की शिक्षा प्राप्त करके, प्रैक्टिस न करे तो वह अपनी अर्जित मानवीय पूँजी को खो देगा।
सामाजिक पूँजी के स्रोत क्या हैं? सामाजिक पूँजी का चरित्र अमूर्त है। जहाँ आर्थिक पूँजी लोगों के बैंक खाते में होती है, मानवीय पूँजी उनके सर के अन्दर होती है, वहीँ सामाजिक पूँजी व्यक्ति के संबंधों की संरचना में होती है। सामाजिक पूँजी रखने के लिए एक व्यक्ति को दूसरे से सम्बंधित होना आवश्यक है। यह अन्य लोग हैं, न कि वह स्वयं, जो उसके लाभ के वास्तविक स्रोत हैं।
किसी भी देश या समाज की तरक्की के लिए यह आवश्यक है कि उसकी आर्थिक, मानवीय पूँजी के साथ-साथ उसकी सामाजिक पूँजी भी बढे। इससे लोकतंत्र मजबूत होता है और भाईचारा, बंधुत्व की भावना बढ़ती है। यह तभी संभव है जब विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच में सेतुकरण हो। सेतुकरण के बिना, संबंधन समूह बाकी समाज से अलग-थलग और बेदखल हो जाता हैद्य सेतुकरण की प्रक्रिया से ही किसी भी देश या समाज की सामाजिक पूँजी में वृद्धि होती है। यदि किसी देश या समाज में संबंधन की प्रक्रिया मजबूत है लेकिन सेतुकरण की प्रक्रिया कमजोर है तो उस देश या समाज की सामाजिक पूँजी क्षीण और कमजोर हो जाती है। हमारे देश में जातिवाद के चलते सेतुकरण कम होता है और हमारा भारत सामाजिक पूँजी के मामले में भी गरीब है।
हमारे देश में सामाजिक पूँजी के मामले में जातिगत विषमता बहुत अधिक है। यहाँ जातीय संबंधन वाले सामाजिक समूह बनते हैं जिनका बाकी समूहों से सेतुकरण नहीं होता। यही कारण है कि मारवाड़ियों का व्यापार, उद्यमिता, धन दौलत में प्रभुत्व है। ब्राह्मण समाज के लोगों का मीडिया, न्यायपालिका, नौकरशाही में प्रभुत्व है। समाज शास्त्री पिएर्रे बौर्दिएउ का कहना है कि सामाजिक पूँजी सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध नहीं है। कुलीन वर्ग या द्विज जाति के लोगों को सामाजिक पूँजी विरासत में मिलती है। सूरत के हीरा व्यापारी, तमिल नाडू के गोउंदर जिनका भारतीय होजरी के व्यापार पर नब्बे प्रातिशत कब्जा है इसके उदहारण हैं।
वार्ष्णेय ने जातीय और सांप्रदायिक हिंसा और सामाजिक पूँजी के शोध पर पाया कि अंतरा-जातीय, अंतरा-सांप्रदायिक संबंधन के चलते अंतर-जातीय या अंतर-संप्रदाय समूह नहीं बन पाते या उनमें सेतुकरण नहीं हो पाता। ऐसे में जातीय हिंसा या सांप्रदायिक हिंसा की संभावना भी बहुत बढ़ जाती है। अंतर-जातीय और अंतर-सांप्रदायिक समूह बनें तो विभिन्न जातियों व सम्प्रदायों में संचार बढेगा, झूठी अफवाहें नहीं फैलेंगी और प्रशासन को अपना काम करने तथा शांति, सुरक्षा और न्याय करने में मदद मिलेगी।
बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय समाज एक ऐसी मीनार है जिसमें चार मंजिल और एक तहखाना है। इसमें ऊपर से नीचे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और दलित रहते हैं। इस मीनार में कोई सीढियां नहीं हैं। जो जिस मंजिल पर जन्मा है वहीँ मरेगा भी। शूद्रों और दलितों की मंजिल में तो हजारों कोठरियां हैं जिनमे कोई दरवाजा, खिड़की या रौशनदान नहीं है। ऐसे में शुद्र और दलित एक दूसरे से आपस में भी कट जाते हैं। ऐसी स्थिति में देश में सेतुकरण के जरिये सामाजिक पूँजी के वृद्धि की संभावना बहुत कम है। आवश्यकता है कि जातियों का विनाश हो और सामाजिक पूँजी बढे़। तभी भारत उन्नत देशों की जमात में शामिल हो पायेगा। (संवाद)
क्यों पिछड़े हैं ओबीसी, दलित और आदिवासी?
सामाजिक पूंजी का अभाव उनके बढ़ते कदम को रोकता है
डाॅ अनिल यादव - 2019-08-07 10:12
भारत में आदिवासी, दलित व ओबीसी के लोग सब जगह पिछड़े हैं, तो उसका एक प्रमुख कारण इन वर्गों के व्यक्तियों के पास सामाजिक पूँजी का भारी अकाल होना भी है। अमेरिका की ड्युक विश्वविद्यालय के समाज शास्त्र के प्रोफेसर नान लिन ने एक अभूतपूर्व व्यापक परिवर्तनकारी “सामाजिक पूँजी” का सिद्धांत पेश किया, जिसे पूरी दुनिया में मान्यता मिली। नान लिन ने जबरदस्त तर्कों, तथ्यों, आंकड़ो द्वारा सिद्ध कर दिया कि “आप क्या जानते हैं और किसे जानते हैं, वह आपके जीवन और समाज में फर्क लाता है।” अर्थात यदि दो व्यक्ति एक समान योग्यता के हैं, मान लीजिये दोनों के पास बी. टेक. की डिग्री है, लेकिन एक व्यक्ति ‘किसे’ जानता है के मामले में आगे है, तो जीवन में भी वही आगे जाएगा।