राष्ट्रीय तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान को पहले तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान के रूप में जाना जाता था। 1966 में केंद्र सरकार द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत तकनीकी शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सुधार के लिए इसकी स्थापना की गई थी। यह तकनीकी शिक्षकों के लिए लघु एवं दीर्घ अवधि के कार्यक्रम संचालित करता है. संस्थान को पाठ्यक्रम विकास, शिक्षण संसाधनों का विकास एवं रूपरेखा बनाना, शैक्षणिक प्रबंधन, नीति निर्धारण, सतत् शिक्षा, छात्रों का आकलन, मल्टी मीडिया विकास, सामुदायिक नेटवर्किंग, औद्योगिक संपर्क और तकनीकी शिक्षा में शोध पर विशेषज्ञता हासिल है.

संस्थान के निदेशक डॉ. विजय कुमार अग्रवाल का कहना है, ’’पिछले 30 सालों के अनुभव और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आने से कुशल तकनीकी प्रबंधकों की मांग बहुत ज्यादा हो गई है। वर्तमान में प्रबंधन की शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। प्रबंधन की शिक्षा होने से वर्तमान बाजार में तकनीकी विशेषज्ञों का महत्व बहुत बढ़ जाता है। आजकल यह होड़ चल पड़ी है कि तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ प्रबंधन की शिक्षा भी ली जाए। ऐसी स्थिति में संस्थान की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है। हम चाहते हैं कि तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ प्रबंधन की शिक्षा में भी संस्थान काम करे। हमारा यह भी मानना है कि प्रबंधन भी तकनीकी विषय है।‘‘

संस्थान में एक बेहतर पुस्तकालय, क्लासरूम, अन्य संसाधन एवं प्रबंधन के 7 शिक्षक पहले से ही है। ऐसे में एम.बी.ए. के लिए एन.आइ.टी.टी.टी.आर. को अलग से कोई इंतजाम करने की जरूरत नहीं है। इसके बावजूद डॉ. अग्रवाल का कहना है, ’’शिक्षकों की कमी नहीं होने देंगे। जरूरत पड़ने पर अच्छे संस्थानों के सेवानिवृत्त अध्यापकों की सेवाएं ली जाएगी।‘‘

जनसंपर्क अधिकारी प्रमोद पुरोहित ने बताया, ’’संस्थान का पहले से ही विभिन्न औद्योगिक घरानों से संपर्क रहा है। ऐसे में प्लेसमेंट की कोई समस्या नहीं होगी, पर हम किसी भी स्थिति में गुणवत्ता से समझौता नहीं करेंगे। पाठ्यक्रम अंतराष्ट्रीय स्तर का होगा। संस्थान ने पहले भी अन्य संस्थानों के लिए पाठ्यक्रम डिजाइन किया है। इसलिए इस बार अपने लिए भी विशेषज्ञों द्वारा एक बेहतर पाठ्यक्रम डिजाइन किया जाएगा। छात्रों का एक्सपोजर विजिट भी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर कराया जाएगा।‘‘

डॉ. अग्रवाल ने बताया, ’’देश-विदेश की बड़ी कंपनियों में प्रबंधकों के सैकड़ों पद खाली हैं, पर कंपनियों को आवेदकों में वह गुणवत्ता नहीं दिखाई पड़ती, जो उन्हें चाहिए। देश में हजारों ऐसे संस्थान हैं, जिन्हें गुणवत्ता से कोई सरोकार नहीं। यही वजह है कि एम.बी.ए. की डिग्री लेकर घुमने वालों की संख्या ज्यादा दिखाई पड़ती है। दूसरी ओर कंपनियों को बेहतर लोग नहीं मिल रहे हैं। संस्थान द्वारा कोर्स चलाने से एम.बी.ए. की दुकानदारी करने वालों पर भी अंकुश लगेगा। यद्यपि इस साल 60 सीटें ही होगी, पर इसे भविष्य में ज्यादा कर दिया जाएगा। हमारी यह भी कोशिश है कि कोर्स की संबद्धता किसी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से हो, पर संभव नहीं होने पर अभी इसे प्रदेश के ही किसी विश्वविद्यालय से संबद्ध किया जाएगा। भविष्य में डीम्ड विश्वविद्यालय के लिए भी प्रयास किया जाएगा।

संस्थान ने एम.बी.ए. में प्रवेश देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कैट की परीक्षा के साथ जुड़ने का विचार है, पर मान्यता मिलने की प्रक्रिया में देरी की संभावना को देखते हुए यह लगता है कि इस साल प्रवेश परीक्षा संस्थान स्तर पर ही आयोजित करनी पड़ेगी।(संवाद)