इस साल लोकसभा चुनावों में, विशेष रूप से सीपीआई (एम), ने अपने दो पहले के गढ़ त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल से सीटें हासिल करने की अनिश्चितता को देखते हुए केरल से अधिकतम सीटें हासिल करने की उम्मीद जताई थी। सीपीआई (एम) की आशंका दोनों राज्यों में सही साबित हुई, लेकिन केरल में बड़ा अप्रत्याशित झटका लगा, जहां पार्टी के नेतृत्व वाले एलडीएफ को एक सीट के अलावा सबपर हार का सामना करना पड़ा। इस परिदृश्य में, केएम मणि की मौत के कारण पाला के उपचुनाव केसी (एम) के भीतर गुटीय युद्ध के परिणामस्वरूप, एलडीएफ द्वारा दुश्मन के पारंपरिक गढ़ को टक्कर देने के अवसर के रूप में देखा गया था।

और केसी (एम) के गढ़ में वाम समर्थित एनसीपी की जीत के साथ, सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले एलडीएफ ने राहत की गहरी सांस ली। पाला निर्वाचन क्षेत्र को ईसाइयों के एक हृदय स्थल के रूप में जाना जाता है - जो केसी (एम) के पारंपरिक मतदाता हैं और वर्षों से एलडीएफ के विरोधी हैं। दूसरी ओर, इसमें हिंदुओं की भी सख्यज्ञ है और दिलचस्प बात यह है कि सबरीमाला तीर्थस्थल पाला से केवल दो घंटे की दूरी पर है। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन और उनकी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कड़ाई से लागू किया था। इनके कारण इस परिणाम में माकपा के लिए एक राहत भरा संदेश है।

इसके अलावा, यह प्रतिष्ठित जीत अगले महीने होने वाले पांच विधानसभा उपचुनावों से पहले एलडीएफ कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ाती है, जहां अरूर को छोड़कर बाकी सीटें यूडीएफ के पास हैं। इसका अर्थ है कि ये चुनाव एलडीएफ की तुलना में यूडीएफ के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण होंगे और वर्तमान में यूडीएफ, जिसने लोकसभा चुनावों में बड़े अंतर से 19 सीटें जीतीं, यूडीएफ को आगामी उपचुनावों से पहले एक बड़ा झटका लगा है। । पाला के परिणाम में यूडीएफ कैंप को परेशान कर रहे हैं।

इसके साथ ही, माकपा को त्रिपुरा के बदरघाट उपचुनाव से थोड़ी राहत मिली है- जहाँ पार्टी कांग्रेस को उसके पारंपरिक गढ़ में तीसरे स्थान पर धकेलने में कामयाब रही, बावजूद इसके कि वह भाजपा से सीट नहीं बचा पाई। हालांकि, 2018 में सत्ता संभालने के बाद से राज्य में हर जगह भगवा पार्टी के प्रभुत्व को देखते हुए भाजपा की जीत में कोई संदेह नहीं था।

पूर्व मंत्री और भाजपा के दिलीप सरकार की मौत के बाद हुआ यह उपचुनाव महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह राज्य में आगामी विपक्षी राजनीति के बारे में एक तस्वीर प्रदान करता है। पिछले लोकसभा चुनाव में, माकपा न केवल दोनों सीटों पर हार गई थी, बल्कि केवल 17 प्रतिशत हासिल कर तीसरे स्थान पर पहुंच गई थी, जबकि कांग्रेस 25 प्रतिशत वोट प्राप्त करके राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी थी। तब से, कई लोगों ने सीपीआई (एम) के साथ पंचायत चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी को अपने पुरान गढ़ में खारिज करना शुरू कर दिया था। हालांकि, हाल ही में, सीपीआई (एम) पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार सहित अन्य शीर्ष राज्य नेताओं के साथ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करके अपने आधार को फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही है।

ऐसा लगता है कि सीपीएम की सड़क पर विरोध की रणनीति काम करने लगी है। बदरघाट निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा को 44 फीसदी वोट मिले, जबकि लोकसभा चुनावों में 58 फीसदी वोट मिले थे। दूसरी ओर, सीपीएम, जिसे आम चुनावों में 20 प्रतिशत इस निर्वाचन क्षेत्र से मिले थे, 33 फीसदी वोट लाने में कामयाब रही। यानी केवल चार महीनों के भीतर 13 प्रतिशत वोटों की वृद्धि हुई। दिलचस्प बात यह है कि यह सीट कांग्रेस की सीट थी जिसने 2008 और 2013 के चुनावों में यहां से जीत हासिल की थी, जबकि उन चुनावों मेें वाम मोर्चा ने राज्य में भारी जीत दर्ज की थी।

बीजेपी अपनी जीत का जश्न मना रही है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पिछले साल के विधानसभा चुनावों और इस साल के लोकसभा चुनाव के विपरीत इस बार भगवा पार्टी का वोट शेयर बदररघाट में सीपीआई (एम) और कांग्रेस दोनों के संयुक्त मतों से कम है। यही नहीं, बीजेपी को बड़े अंतर से जीत की उम्मीद थी और राज्य के लगभग हर कोने में पार्टी के प्रभुत्व को देखते हुए यह उम्मीद असामान्य भी नहीं थी। लेकिन, बीजेपी ने 9 फीसदी वोटों से जीत हासिल की। यह एक बड़ा अंतर नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान में राज्य में बीजेपी के लिए कोई खतरा नहीं हैं, लेकिन उपचुनाव के संकेत हैं कि आगामी दिनों में अगर सीपीआई (एम) राज्य में व्यापक विरोध की राजनीति पर कायम रहती है तो भाजपा के लिए अपना राजनैतिक वर्चस्त बनाए रखना आसान नहीं होगा। (संवाद)