यह दावा सच है, लेकिन अधूरा। पूरा सच यह है कि डिजिटल इंडिया में इस ‘नए कश्मीर’ के बाशिंदे पिछले करीब दो महीने से बगैर इंटरनेट और मोबाइल फोन के पंगु बने हुए हैं। स्कूल-कॉलेज तो खुल रहे हैं लेकिन चूंकि खुलने वाले सभी स्कूल-कॉलेज चूंकि सरकारी हैं, लिहाजा वहां पढ़ाने वाले शिक्षकों का तो अपनी ड्यूटी पर आना लाजिमी है, सो वे तो आ रहे हैं। लेकिन वहां पढ़ने वाले बच्चों का कोई अता-पता नहीं है। इसलिए शिक्षक आते हैं और अपनी हाजिरी लगाकर तथा वहां कुछ समय बिताकर लौट जाते हैं। सरकारी दफ्तरों और बैंकों का भी यही हाल है। वहां भी काम करने वाले तो अपनी नौकरी बजाने आते हैं लेकिन वहां काम करवाने वाले आम लोगों की आमद नहीं के बराबर है।

रेहडी-पटरी पर रेडिमेड कपड़ों और छोटे-मोटे इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकानें भी लग रही हैं, लेकिन स्थिति सामान्य बताने के लिए ऐसे ज्यादातर दुकानदारों को दुकानें लगाने के लिए स्थानीय प्रशासन की ओर से एक हजार से लेकर डेढ़ हजार रुपए रोजाना दिए जाते हैं। सरकार की इस दयानतदारी का लाभ उन लोगों को नहीं मिल रहा है जो ठेले पर फल, बिरयानी, मोमोज, ब्रेड-आमलेट, चाय आदि की दुकानें लगाकर अपना परिवार पालते हैं। सरकारी अस्पताल जरुर सामान्य रूप से खुल रहे हैं। वहां डॉक्टर भी आ रहे हैं और मरीज भी, लेकिन आवश्यक दवाइयों खासकर गंभीर बीमारियों से संबंधित जीवनरक्षक दवाइयों की आपूर्ति पर्याप्त रूप से नहीं हो पा रही है। शहर में दवाइयों की दुकानें भी पूरे समय खुली रहती हैं लेकिन उनके यहां भी जीवनरक्षक दवाओं का अभाव बना हुआ है।

सरकारी दावों के मुताबिक सड़कों पर वाहनों की आवाजाही भी जारी है और लोग भी घरों से निकल रहे हैं लेकिन यह सब आमतौर सुबह-सुबह ढाई-तीन घंटे यानी दस बजे तक ही होता है। बाकी दिन भर सडकों पर ज्यादातर वाहन या तो सरकारी महकमों के होते हैं या फिर स्थानीय पुलिस और सुरक्षाबलों के। सार्वजनिक परिवहन के साधन पूरी तरह बंद हैं और निजी वाहनों की आवाजाही नाममात्र की रहती है।

कश्मीर घाटी में देशी-विदेशी पर्यटकों की आमद पूरी तरह बंद है, लिहाजा श्रीनगर शहर की तमाम होटलें वीरान पडी हैं। डल झील पूरी तरह उदास है और उसमें चलने वाले शिकारे किनारे पर खूंटे से बंधे खड़े हैं। झील में खड़ी तमाम हाउस बोट्स भी पूरी तरह खाली पडी हैं। झील के किनारे वाली सड़क जो सामान्य दिनों में शाम के वक्त सैलानियों और स्थानीय लोगों की रेलमपेल से गुलजार रहती हैं और जिस पर सिर्फ पैदल ही चला जा सकता है, वह इन दिनों पूरी तरह खाली रहती है। वहां अब शाम के वक्त वे ही कुछ लोग हवाखोरी के लिए आते हैं, जो दिन भर घरों में बैठे-बैठे ऊब जाते हैं। सड़कों पर इक्का-दुक्का वाहनों की आवाजाही भी होती रहती है।

कुल मिलाकर श्रीनगर तथा घाटी के अन्य इलाकों में सुबह ढाई-तीन घंटे की चहल-पहल के बाद पूरे दिन सन्नाटा पसरा रहता है। कुछ बेहद संवेदनशील इलाकों में तो हर क्षण गुस्साए नौजवानों और सुरक्षा बलों के बीच टकराव की आशंका बनी रहती है। कुछ इलाकों में टकराव की स्थिति बनती भी है- एक तरफ से पत्थर चलते हैं तो दूसरी ओर से पैलेट गन। रात आठ बजते-बजते तो पूरे शहर में अघोषित कफ्र्यू लग जाता है। शहर के हर इलाके में सिर्फ और सिर्फ अर्ध सैनिक बलों के जवान तथा पेट्रोलिंग करते पुलिस तथा सुरक्षा बलों के वाहन ही सड़कों पर दिखाई देते हैं। सुबह के वक्त जो उदास और लड़खड़ाती चहल-पहल रहती है उसे ही सरकार की ओर से सामान्य स्थिति के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ढिंढोरची टीवी चैनल भी मजबूरी की इसी चहल-पहल को या सामान्य दिनों के पुराने वीडियो फुटैज को दिखाकर ही कश्मीर घाटी में सब कुछ सामान्य होने का ढोल पीट रहे हैं। (संवाद)