यदि इस चुनाव से किसी को घोर निराशा का सामना करना पड़ा है, तो वह हैं बसपा सुप्रीमो मायावती। इन उपचुनावों के नतीजे उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। किस कदर का सदमा उन्हें लगा, इसका अंदाज आप इसीसे लगा सकते हैं कि उन्होंने एक बयान दे डाला जिसमें कहा कि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को जीत भाजपा ने दिलवा दी और उनकी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत नहीं दिलवाई, क्योंकि भाजपा उनसे डरती है।
ठस तरह का बचकाना बयान कोई ऐसी नेता दे, जो उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हो, तो इसमें निश्चय ही बहुत आश्चर्य होता है। कोई मायावती से पूछ सकता है कि क्या वह भाजपा के भरोसे ही चुनाव लड़ रही थीं। क्या मायावती को यह लग रहा था कि किसी गैर भाजपा उम्मीदवार को जीत दिलाना भी भाजपा का ही दायित्व था और अपने इस दायित्व का पालन करने मे उसने बसपा के साथ गद्दारी की दी और उसे जिताने के बदले समाजवादी पार्टी के तीन उम्मीदवारों को जितवा दिया।
यह बचकानी बयान तो अपनी जगह है, लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि मायावती का सपना इन उपचुनावों के नतीजों ने चकनाचूर कर दिया है। मायावती की पार्टी की यह नीति हुआ करती थी सत्ता से बाहर रहने की स्थिति में उपचुनाव नहीं लड़े, क्योंकि मायावती का मानना था कि सत्तारूढ़ दल सत्ता का दुरुपयोग कर चुनाव जीत जाता है और विपक्षी पार्टी को जीतने की संभावना नहीं रहती। अपनी उस नीति को पलटते हुए इस बार मायावती ने उपचुनाव लड़ने की घोषणा लोकसभा चुनाव के बाद ही कर डाली थी। 11 सीटें विधायकों के लोकसभा चुनाव जीतने के कारण खाली हुई थी। उनमें से एक सीट समाजवादी पार्टी की, एक बसपा की और अन्य 9 राजग की थी।
मायावती ने उपचुनाव लड़ने की घोषणा करते हुए समाजवादी पार्टी के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन तोड़ने की घोषणा भी कर दी थी और बहुत ही फूहड़ता से उस गठबंधन के टूटने का दोष अखिलेश पर मढ़ दिया था। अखिलेश की अपरिपक्वता के कारण मायावती की राजनीति को एक नया जीवन मिल गया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट भी नहीं मिली थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 19 सीटें मिली थीं। 2019 के चुनाव में अखिलेश के साथ गठबंधन के कारण उनकी पार्टी को 10 सीटें मिल गईं और दुर्भाग्य से अखिलेश की सपा को मात्र 5 सीटें ही मिल पाई। इसका कारण यह था कि अखिलेश के समर्थक आधार ने तो मायावती के उम्मीदवारों को वोट दे डाला, लेकिन मायावती का समर्थक आधार पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के लिए मतदान नहीं कर पाया। इसके अलावा चाचा शिवपाल ने वोट काट कर मुलायम परिवार के तीन सदस्यों को पराजित करने में अहम भूमिका निभाई।
ल्ेकिन मायावती को लगा मानो लोकसभा चुनाव में उनकी लाॅटरी लग गई हो। शायद यह लाॅटरी ही थी, क्योंकि यदि सपा के साथ बसपा का गठबंधन नहीं होता, तो माया की पार्टी को एक सीट भी नहीं मिलती और उनकी पार्टी को मिलने वाला मतप्रतिशत 2014 के मतप्रतिशत से भी कम होता, लेकिन उनकी मर रही राजनीति को अखिलेश यादव ने जिंदगी दे डाली और 10 सीटें जितवाकर दलित नेता में एक ऐसा विश्वास भर दिया, जिसकी शिकार होकर उन्होंने लोकसभा चुनाव के पहले गठबंधन को तोड़ने का फैसला ही कर डाला।
सवाल उठता है कि मायावती ने यह जानते हुए भी कि उपचुनाव में सत्तारूढ़ दल की ही जीत होती है, उत्तर प्रदेश में उपचुनाव लड़ने का फैसला क्यों किया? तो इसका सरल जवाब यह है कि उन्होंने अपने उम्मीदवार जीतने के लिए नहीं, बल्कि दूसरे स्थान पर आने के लिए खड़े किए थे। इन उपचुनावों में उनका मुकाबला भाजपा से था ही नहीं, बल्कि दूसरा स्थान पाने के लिए समाजवादी पार्टी से था। अपनी जातिवादी और संप्रदायवादी समझ के आधार पर मायावती का यह मानना है कि आगामी विधानसभा में उत्तर प्रदेश के मुसलमान उसी पार्टी को वोट देंगे, जो भाजपा के निकट प्रतिद्वंद्वी होंगे। उत्तर प्रदेश में मुसलमान कुल आबादी के 19 फीसदी हैं और वह यदि किसी एक पार्टी के साथ हो जाएं, तो निश्चय ही उस पार्टी की स्थिति बेहतर होगी। 10 सीटें जीतने के बाद मायावती को यह भ्रम हो गया कि अब प्रदेश के मुस्लिम उन्हीं को भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानेंगे। उन्हें लगा कि यदि उपचुनावों में हिस्सा लेकर समाजवादी पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया जाय, तो फिर 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतना आसान हो जाएगा। मुस्लिम ही नहीं, बल्कि भाजपा शासन ने छुटकारा पाने की चाह रखने वाले सारे लोग उनके पीछे लामबंद हो जाएंगे और 2007 की तरह वह बहुमत के साथ एक बार फिर सत्ता में आ जाएगी।
लेकिन जैसा सोचा था, वैसा हुआ नहीं। मायावती के उम्मीदवार सिर्फ एक ही सीट पर दूसरे नंबर पर रहे और वह सीट वही थी, जिस पर उनकी पार्टी ने 2017 में सफलता पाई थी। उस सीट पर समाजवादी पार्टी ने उसके उम्मीदवार को इस उपचुनाव में हरा दिया। कहां तो मायावती का मानना था कि सत्तारूढ़ दल घपलेबाजी से उपचुनाव जीतता है, कहां उसके उम्मीदवार की हार एक विपक्षी दल के उम्मीदवार से ही हो गई। यही नहीं, 9 विधानसभा क्षेत्रों में तो मायावती के उम्मीदवारों की जमानतें तक जब्त हो गईं। भाजपा के लिए तो किसी तरह की चुनौती उसे इन उपचुनावों में बनना ही नहीं था, समाजवादी पार्टी के सामने भी वह टिक नहीं पाई। भाजपा विरोधी मतदाताओं की पहली पसंद मायावती नहीं, बल्कि अखिलेश यादव साबित हुए। और इसी ने मायावती का मुख्य विपक्षी नेता बनने का सपना चकनाचूर कर दिया। (संवाद)
उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में मायावती का सपना चकनाचूर
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-10-31 08:50
उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभाओं के उपचुनाव भाजपा, सपा और बसपा के लिए अपने अपने कारणों से महत्वपूर्ण थे। भारतीय जनता पार्टी को यह दिखाना था कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं पर अभी भी उसका सिक्का चलता है। इसे साबित करने में वह सफल रही। 11 में से 7 सीटों पर तो उसके अपने उम्मीदवारों की जीत हुई, जबकि एक अन्य सीट पर उसका सहयोगी अपना दल सफल हुआ। समाजवादी पार्टी को यह दिखाना था कि लोकसभा चुनाव में लगे झटके से वह उबर रही है। यह दिखाने में वह सफल भी रही। उसने आजमगढ़ की अपनी सीट तो बचाई ही, साथ ही साथ भाजपा और बसपा की एक-एक सीट छीन भी ली।