इस संबंध के अतिरिक्त दोनों के बीच प्रगाढ़ वैचारिक संबंध था। परंतु दोनों के विचारों में कई विरोधाभास भी थे। इन विरोधाभासों के बावजूद दोनों के संबंधों में कभी खटास नहीं आई। विरोधाभास के बावजूद नेहरू ने आजादी के आंदोलन में गांधी का नेतृत्व स्वीकार किया। गांधी की मान्यता थी कि साध्य के साथ-साथ उसे हासिल करने के साधनों की पवित्रता भी आवश्यक है। गांधी की मान्यता थी कि आजादी का आंदोलन अहिंसा के रास्ते ही लड़ा जा सकता है। गांधी की यह मान्यता पूर्णतः आध्यात्मिक आधार पर थी। साधारणतः नेहरू इस सिद्धांत से पूरी तरह सहमत नहीं होते, परंतु मैदानी स्थिति को देखते हुए नेहरू ने इस सिद्धांत को पूरी तरह स्वीकारा। नेहरू की मान्यता थी कि गांधी बुनियादी रूप से एक जन्मतः विद्रोही थे। नेहरू स्वयं भी आदतन विद्रोही थे। दोनों के इस वैचारिक स्वरूप ने दोनों के बीच अत्यधिक प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर दिए थे। गांधी के नेतृत्व संभालने के पूर्व कांग्रेस एक क्लब की तरह अपनी गतिविधियां संचालित करती थी। गांधी ने उसका स्वरूप ही बदल डाला। गांधी ने कांग्रेसजनों के मन मेें साहस और बहादुरी का संचार कर दिया था। अंग्रेजों के राज के दौरान देश की जनता डरी हुई थी। अंग्रेजों के भय से भरपूर शासन के सामने समस्त भारतवासी नतमस्तक थे। किसी में भी उनके विरूद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीें थी। गांधी ने लोगों में यह हिम्मत जगाई वह भी अहिंसा के रास्ते से। नेहरू ने इस रास्ते को इसलिए भी स्वीकार किया क्योंकि वे जानते थे कि देश की जनता में हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला करने की ताकत नहीं है। ब्रिटिश शासन भारत पर अपनी सैन्य शक्ति के आधार पर नियंत्रण रखे हुए था। सन् 1857 की क्रांति की असफलता का यही सबक था कि हिंसक विरोध से अंगे्रेजों के खूखांर शासन के पैर उखाड़ना संभव नहीं है। रोलेट एक्ट का जिस तरह पूरे देश में शांतिपूर्ण विरोध किया गया उससे गांधी की रणनीति में नेहरू की आस्था और गहरी हो गई। उसके बाद जलियांवाला बाग का लोमहर्षक कांड हुआ। इस घटना के बाद गांधीजी पंजाब गए। पंजाब के भ्रमण के दौरान नेहरू ने गांधी के सेक्रटरी की तरह कार्य किया। इस दरम्यान नेहरू ने गांधी को नजदीक से देखा और गांधी के वैचारिक आधार को परखा।
यद्यपि नेहरू वैचारिक दृष्टि से गांधी के नजदीक आते गए पंरतु उन्होंने समाजवादी विचारधारा से नाता नहीं तोड़ा। सच पूछा जाए तो समाजवादी विचारधारा के बीज उनके मस्तिष्क में उस समय अंकुरित हो गए थे जब वे ब्रिटेन के कैब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र थे। इसी दरम्यान वे फेबियनवाद (जो समाजवाद की एक शाखा थी) के संपर्क में आए। इसी दौरान रूस में बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी और लेनिन के नेतृत्व में वहां नई शासन व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी। यह एक ऐसा खूबसूरत संयोग था कि समाजवाद और साम्यवाद से प्रभावित होने के बावजूद गांधीजी और उनके सिद्धांतों में नेहरू की आस्था नहीें डगमगाई। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है ‘‘शनैः-शनैः समाजवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा से मैं प्रभावित होता रहा। परंतु मेरी आस्था दोनों सिद्धांतों के सैद्धांतिक पक्ष पर रही और उनके आधार पर समाज व्यवस्था बनाने के बारे में मैंने कभी नहीं सोचा। मेरा विश्वास था कि नई व्यवस्था का निर्माण शांतिपूर्ण तरीकों से होना चाहिए।‘‘ उनके इस विचार से स्पष्ट होता है कि नेहरू, गांधी के समान साध्य व साधन दोनों के शांतिपूर्ण होने में विश्वास रखते थे।
नेहरू ने आजादी की लड़ाई के शांतिपूर्ण और अहिंसक होने के गांधीजी के सिद्धांत को पूर्ण रूप से स्वीकार किया था। नेहरू मानते थे कि हिंसक तरीकों से, अंग्रेज अधिकारियों की हत्या से, आजादी हासिल नहीं की जा सकती। यह आजादी की लड़ाई का दिवालियापन होगा। वे जानते थे कि इस तरह की बचकानी गतिविधियों से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को नहीं हिलाया जा सकता। नेहरू ने इसी तरह के विचार सन् 1936 में लखनऊ कांग्रेस की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए थे। यही कारण है कि नेहरू ने गांधी के असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम का तहेदिल से स्वागत किया था।
अपनी इस आस्था के बावजूद नेहरू के जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण जरूर आए जब उनके मन में गांधी की अहिंसक रणनीति के प्रति शंका पैदा हुई। एक बार ऐसा क्षण तब आया जब गांधी ने फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। हुआ यह कि असहयोग आंदोलन के दौरान एक आक्रोशित भीड़ ने चैरी चैरा में स्थित एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी जिससे 22 पुलिसकर्मी जलकर मर गए। इस घटना के तुरंत बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। नेहरू को गांधी का यह निर्णय पसंद नहीं आया। नेहरू की मान्यता थी कि सिर्फ एक घटना के कारण पूरे आंदोलन को वापिस लेना उचित नहीं है। आखिर करोड़ों लोगों को एक साथ अहिंसक तौर-तरीकों का प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता। इस घटना को लेकर नेहरू के मन में उथल-पुथल तो मची पंरतु उसके बावजूद गांधीजी के नेतृत्व में उनकी आस्था कायम रही।
नेहरू ने अपने बाद के भाषणों और अपनी आत्मकथा में लगभग यह स्पष्ट किया था कि ‘‘मेरी अहिंसक रणनीति में आस्था इसलिए है क्यांेकि व्याप्त परिस्थितियों के कारण वह भारत मेें प्रभावी रहती है।‘‘ अर्थात, यदि आजादी का अहिंसक आंदोलन प्रभावशाली नहींे होता तो शायद नेहरू उसे नहीं स्वीकारते। काफी गहन चिंतन के बाद नेहरू इस नतीजे पर पहुंचे कि आजादी का आंदोलन तभी सफल होगा जब उसका स्वरूप अहिंसक होगा। सन् 1929 में लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता करते हुए नेहरू ने कहा था ‘‘यदि हम हिंसक रास्ता अपनाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना रहेगी कि वह बीच में भटक जाए। हम भारतीयोें के पास अहिंसक आंदोलन के लिए साधन उपलब्ध हैं और उसे संचालित करने के लिए हम प्रशिक्षित हैं। इस स्थिति में यह उचित होगा कि आजादी के आंदोलन के संचालन के लिए हम अहिंसक रास्ता अपनाएं।‘‘ अपनी पुस्तक ‘विश्व इतिहास की झलक‘ में नेहरूजी लिखते हैं ‘‘हम भारतीयों को हथियारों का उपयोग नहीं आता है। इसलिए सशस्त्र क्रांति पूरी तरह से असंभव है। इसके बावजूद भी यदि हम हथियारों के माध्यम से आजादी का आंदोलन संचालित करते हैं तो चन्द घंटों में ही अंग्रेज सरकार उसे छिन्न-भिन्न कर देगी।‘‘ इन्हीं तर्कों के चलते नेहरू ने गांधी के रास्ते को सैद्धांतिक व व्यवहारिक रूप से अपना लिया।
आजादी मिलने के बाद नेहरू के नजरिए में परिवर्तन आना स्वाभाविक था। यह परिवर्तन उस समय स्पष्ट रूप से सामने आया जब गोवा के प्रश्न पर संसद में बहस चल रही थी। गोवा, पुर्तगाल के कब्जे मेें था। पुर्तगाल किसी हालत में गोवा को मुक्त करने को तैयार नहीं था। ऐसी स्थिति में गोवा को मुक्त कराने के लिए हथियारों का उपयोग आवश्यक था। इस मुद्दे को लोकसभा में उठाते हुए आचार्य कृपलानी ने जानना चाहा कि क्या गोवा को मुक्त कराने के लिए सरकार हथियारों का उपयोग करेगी। प्रधानमंत्री की हैसियत से नेहरू ने उत्तर दिया ‘‘हां‘‘। नेहरू ने आगे कहा कि ‘‘कोई भी सरकार पूरी तरह से अहिंसा के रास्ते को नहीं अपना सकती। सरकार को थलसेना, वायुसेना और नौसेना रखनी पड़ेगी। उसे पुलिस भी रखनी पड़ेगी। यह सारा अमला अपनी रक्षा के लिए रखना होगा।‘‘
नेहरू ने संसद को सूचित किया कि अहिंसा के प्रतीक गांधी ने कश्मीर में फौज भेजने के हमारे निर्णय का पूरी तरह से समर्थन किया था। न सिर्फ समर्थन किया था वरन् उसे आशीर्वाद भी दिया था। गांधीजी ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि वे कश्मीर और वहां की जनता को पाकिस्तान द्वारा भेजे गए खूंखार लोगों से बचाना चाहते थे।
नेहरू गांधी को कितना चाहते थे यह उनके उन उद्गारों से ज्ञात होता है जो उन्होंने गांधी की हत्या के बाद कहे थे। उन्होंने कहा था ‘‘हमारे जीवन से रोशनी चली गई है और चारों ओर अंधकार है। मैं नहीं जानता कि आपसे क्या कहूं और कैसे कहूं। हमारे प्रिय नेता, जिन्हें हम बापू कहते थे, हमारे राष्ट्रपिता, नहीे रहे। मैंने कहा रोशनी चली गई है। लेकिन शायद मैं गलत कह रहा हूं क्यांेकि यह रोशनी कोई मामूली रोशनी नहीे थी। जिस रोशनी ने इस देश को कई वर्षोे तक प्रकाशित किया वही आनी वाली कई सदियों तक रहेगी और उसे सारी दुुनिया देखेगी। यह रोशनी असंख्य लोगांे को ढ़ांढस बंधाएगी। क्योंकि यह रोशनी मात्र हमारे हाल के अतीत का प्रतिनिधित्व नहीे करती। यह सनातन सत्य को दिखाती है। यह हमें सही राह दिखाती है, हमें गलतियां करने से बचाती है और इसी रोशनी ने हमारे देश को आजादी दिलाई।‘‘ (संवाद)
नेहरू की नजर में गांधी
समाजवादी नेहरू गांधी के अनुयाई क्यों थे
एल. एस. हरदेनिया - 2019-11-13 10:05
आधुनिक भारत को जिन दो महान व्यक्तियों ने सर्वाधिक प्रभावित किया वे हैं महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू। जहां गांधी ने भारत को आजाद कराने मंे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी वहींे जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत के चहुंमुखी विकास में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। गांधी और नेहरू की आयु में पूरे 20 वर्ष का अंतर था। गांधी का जन्म सन् 1869 में हुआ था वहीें नेहरू का 1889 में। यह अंतर लगभग एक पिता और पुत्र की आयु के अंतर के बराबर था। इसलिए गांधी ने नेहरू को अपना पुत्र ही माना।