उस सवाल का जवाब जानने के पहले यह भी जानना जरूरी है कि कश्मीर को 370 के तहत मिले विशेष दर्जे को समाप्त करना भी भारतीय जनता पार्टी के राजनैतिक एजेंडे में हुआ करता था। उसने अपने उस एजेंडे को पूरा कर लिया और उसके बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हुए। दोनों प्रदेशों में भाजपा ने उस मुद्दे को भुनाने की हर संभव की, लेकिन विफल रही। दोनों राज्यों में भाजपा को न केवल लोकसभा चुनाव, बल्कि पिछले विधानसभा चुनाव से भी कम सफलता मिली। हरियाणा में उसे बहुमत नहीं मिला और सत्ता में आने के लिए उस दुष्यंत चैटाला की पार्टी के साथ सत्ता की भागीदारी करनी पड़ रही है।

महाराष्ट्र में भी चुनावी नतीजा उसके लिए खराब ही रहा। उसे उम्मीद थी कि 2014 के दोनों चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन करेगी और इस बार बिना शिवसेना पर निर्भर रहे अपनी सरकार बना लेगी। लेकिन उसकी यह हसरत पूरी नहीं हुई। उसकी सीटें विधानसभा में कम हो गई और उसका फायदा उठाकर शिवसेना ने उसे सरकार में बराबर की भागीदारी के लिए दबाव डालना शुरू किया। दबाव डालते डालते वह उसके गठबंधन से बाहर हो चुकी है और अब महाराष्ट्र की सत्ता उसके हाथ से निकलती जा रही है। फिलहाल, राष्ट्रपति शासन के द्वारा वह वहां सत्ता पर काबिज है, लेकिन कल क्या होगा, इसे कौन जानता है। अभी तो स्थितियां भाजपा के प्रतिकूल ही है।

अब जब 370 का लाभ भाजपा हरियाणा और महाराष्ट्र में नहीं उठा पाईं, तो अयोध्या में मंदिर का लाभ वह कैसे उठा पाएगी, यह सवाल सहज ही उठता है। झारखंड में भारतीय जनता पार्टी के सारे सहयोगी उससे दूर जा चुके हैं। रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी अलग होकर 50 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। रामविलास पासवान की पार्टी के अलग लड़ने से भाजपा को वहां कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि उसका वहां कोई जनाधार ही नहीं है, लेकिन भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि सुदेश महतो की आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन नाम की पार्टी भी उसका साथ छोड़ चुकी है। पिछले चुनाव में गठबंधन के तहत उसे 8 सीटें मिली थीं। इस बार वह अपने लिए 19 सीटें मांग रही थीं। भारतीय जनता पार्टी के लिए उनकी वह मांग पूरी करना संभव नहीं था। इसलिए गठबंधन टूट गया।

कारण चाहे जो भी रहा हो, सच यही है कि भारतीय जनता पार्टी को इस बार वहां अकेले ही चुनाव लड़ना है। मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में वर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास को ही पेश किया गया है, लेकिन झारखंड में उनकी छवि न तो हरियाणा वाले मनोहर लाल खट्टर की है और न ही महाराष्ट्र वाले देवेन्द्र फड़णवीस की। उन्होंने अपने इर्दगिर्द कोई जनाधार भी तैयार नहीं किया है। लिहाजा, चुनाव में जीत दिलाने का मुख्य जिम्मा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही निभाना होगा और वे धारा 370 और अयोध्या में मंदिर निर्माण को जरूर मुद्दा बनाएंगे। लेकिन क्या ये मुद्दे झारखंड में चल भी पाएंगे?

यह सच है कि कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त होने से प्रदेश के लोगों में आमतौर पर प्रसन्नता है और इसके लिए वे सरकार की प्रशंसा भी करते हैं, लेकिन प्रदेश के चुनाव में प्रदेश की समस्याएं ही मुद्दा होती हैं और विधानसभा के चुनाव में जाति का फैक्टर ज्यादा मजबूत रहता है। भाजपा के दुर्भाग्य से झारखंड का जाति समीकरण उसके खिलाफ है। आदिवासी, दलित और मुस्लिम मिला कर प्रदेश की कुल आबादी का 50 फीसदी से भी ज्यादा हैं और ये तबके भाजपा के विरोधी हैं। पिछले चुनाव में मुख्यमंत्री का मसल खुला था, इसलिए अर्जुन मुंडा के समर्थकों ने यह सोचकर वोट दिया था कि आदिवासी मुख्यमंत्री ही बनेगा, लेकिन इस बार रघुबर दास को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में भाजपा ने पेश किया है। इसलिए इस बार आदिवासियों का वोट उसे बहुत ही कम मिलेगा। भाजपा को जीत के लिए ओबीसी और अगड़ी जातियों के वोटों पर ही भरोसा है। अगड़ी जातियां तो इस बार भी उसे वोट डालेंगे, लेकिन ओबीसी का यादव मानसिक रूप से उसके खिलाफ हैं और सुदेश महतो के गठबंधन से बाहर हो जाने के कारण कुर्मी वोट मिल पाना भाजपा के लिए काफी कठिन होगा।

जहिर है, झारखंड की राजनैतिक जमीन की ओर देखें, तो भारतीय जनता पार्टी के लिए यहां से चुनाव जीतना यदि असंभव नहीं, तो बेहद कठिन जरूर लग रहा है। वह अपने अधिकांश वर्तमान विधायकों को फिर से चुनाव लड़ा रहा है, जबकि झारखंड का इतिहास रहा है कि सीटिंग विधायक भारी संख्या में चुनाव हारते हैं। जारी की गई पहली सूची में भाजपा ने मात्र 10 विधायकों के टिकट ही काटे हैं। इसका नुकसान भाजपा को जरूर उठाना पड़ेगा।

कमजोर राजनैतिक जमीन पर भी यदि जीत का बड़ा पेड़ उगाने की उम्मीद भाजपा पाल सकती है, तो उसका सबसे बड़ा कारण अयोध्या का वह फैसला है, जिसने वहां राम मंदिर का निर्माण संभव बना दिया है। लेकिन क्या राम मंदिर के कारण वहां के लोग जाति और जनजाति के भेद से ऊपर उठ पाएंगे? भाजपा इस मुद्दे को लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहेगी, लेकिन इस तरह का ध्रुवीकरण करने के लिए मुसलमानों का आक्रामक होना भी जरूरी है। पर मुसलमानों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर लिया है और उस पर कोई उग्र प्रतिक्र्रिया भी नहीं कर रहे हैं। उनका शात रहना सांप्रदायिक धु्रवीकरण को लगभग असंभव बना देगा। लगता है राम भी भाजपा की मदद नहीं कर पाएंगे। (संवाद)