जहां तक जेएनयू की बात है, तो वहां तीन तरह की बढ़ोतरी हुई। हाॅस्टल कमरे के किराये को 20 रुपये प्रति महीने से बढ़ाकर 600 रुपये प्रति महीने कर दिया गया था। मेस की सुरक्षा निधि 5500 सौ रुपये से बढ़ाकर 12500 रुपये कर दी गई थी और एक नया शुल्क हाॅस्टल के छात्रों पर थोप दिया गया, जो 1700 रुपये था। छात्रों को सेवाएं देने के नाम पर उनपर थोपा गया। इसके अतिरिक्त पुस्तकालयों से संबंधित नियम बदल दिए गए। वहां पुस्तकालय 24 घंटे खुले रहते हैं, उसे रात में बंद करने का फैसला किया गया, तो छात्रों को कहा गया कि वे सभी 11 बजे रात तक अपने अपने कमरों के अंदर चले जाएं।
फी वृद्धि और अन्य नियम निश्चय ही स्वीकार्य करने योग्य नहीं है। जवाहरलाल नेहरू की स्थापना एक आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी, जिसके तहत इसके प्रत्येक छात्र, शिक्षक और गैर शिक्षक स्टाफ को परिसर के अंदर ही आवास उपलब्ध कराने की योजना थी। फिलहाल सभी छात्रों को छात्रावास नहीं मिलते और सभी शिक्षकों को आवास भी नहीं मिल पाते, लेकिन अधिकांश लोगों को मिल ही जाते हैं।
सवाल उठता है कि जब विश्वविद्यालय की अवधारणा ही एक आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में हुई है, तो फिर छात्रों को किराएदार क्यों समझा जाय? वे किरायेदार नहीं, वस्तुतः अंतेवासी हैं, और उनसे किराया वसूलने की कन्सेप्ट ही आवासीय विद्यालय या विश्वविद्यालय के कन्सेप्ट के खिलाफ है। आज आप मार्केट रेंट पर उनसे किराया वसूल करेंगे और फिर कल वहां पढ़ा रहे शिक्षकों से भी उनके आवास का किराया वसूल करेंगे। जेएनयू के शिक्षक जिस तरह के बंगले में रहते हैं, उस तरह के बंगले का किराया बगल के बसंत विहार में 1 लाख रूपये प्रतिमाह से दो लाख रुपये प्रति माह या उससे ऊपर है। तो क्या फिर उनको भी विश्वविद्यालय किरायेदार मानकर उनका किराया एक लाख रुपये महीना वसूलेगा?
1700 रुपये प्रत्येक छात्रों से मेस में काम करने वाले स्टाफ के वेतन देने के नाम पर वसूलने की कोशिश विश्वविद्यालय कर रहा है। वे स्टाफ विश्वविद्यालय के कर्मचारी हैं और उन्हें अबतक वेतन विश्वविद्यालय ही देता है। मेस में भोजन पर जितना भी खर्च आता है, वह छात्र उठाते हैं। मेस को मैनेज करने के लिए छात्रों की एक कमिटी होती है और एक हाॅस्टल वार्डन भी मेस पर नजर रखने का काम कहते हैं। यह फैलाया गया एक बहुत बड़ा झूठ है कि वहां के छात्रों के भोजन का खर्च मात्र 10 रुपये या 20 रुपये प्रति महीना है। जो भी मेस में खाने का खर्च आता है, वे पूरा का पूरा छात्र ही वहन करते हैं। उसमें उन्हें किसी प्रकार की सब्सिडी नहीं मिलती।
कुछ लोगों की शिकायत है कि अन्य विश्वविद्यालयों को जेएनयू वाली सुविधा क्यांे नहीं मिलती? सवाल वाजिब है। सभी विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माहौल जेएनयू वाला होना चाहिए और उसका स्टैंडर्ड भी जेएनयू वाला होना चाहिए। लेकिन यदि नहीं है, तो इसका मतलब यह नहीं कि जेएनयू का माहौल और स्टैंडर्ड भी खराब कर दिए जाएं। देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी जेएनयू जैसा सरकारी खर्च होने की मांग करनी चाहिए न कि जेएनयू को भी खर्चीला बना दिया जाय। इसके अलावा जेएनयू में प्रवेश पाने का अधिकार तो देश भर के लोगों को है। ऐसा तो नहीं है कि यह किसी खास वर्ग के लिए बना हुआ है। कठिन प्रतियोगिता में पास होकर ही यहां छात्र नामांकन पाते हैं। यहां नामांकन पाना एक तरह से छात्रवृति पाने के समान है। प्रदेशों में भी सरकारों ने मेधावी छात्रों के लिए विशेष सुविधाओं वाले विद्यालय खोल रखे हैं। क्या उन्हें इसलिए बंद कर दिया जाय, क्योंकि अन्य विद्यालयों में वे सुविधाएं नहीं हैं? तब तो यह भी कहा जा सकता है कि एम्स से वे सारी सुविधाएं हटा ली जाएं, जो अन्य मेडिकल काॅलेज में नहीं है। और आईआईटी से वे सुविधाएं हटा ली जाय, जो अन्य इंजीनियरिंग काॅलेज में नहीं है।
जेएनयू के आंदोलन का समर्थन इसलिए भी किया जाना चाहिए, क्योंकि इसकी सफलता में भारत की शिक्षा का भविष्य टिका हुआ है। निजीकरण के नाम पर सरकार शिक्षा की अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींचती जा रही है। इसके लिए सिर्फ नरेन्द्र मोदी की सरकार को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं। जिम्मेदारी से हाथ खींचने की शुरुआत मनमोहन सिंह की सरकार के समय ही हो गई थी। नरेन्द्र मोदी तो बस अति आक्रामकता के साथ उसे आगे बढ़ा रहे हैं। भारी संख्या में निजी विश्वविद्यालय खुल गए हैं। उनमें दी जी रही शिक्षा बहुत महंगी है और उस महंगी शिक्षा का हवाला देकर सरकारी क्षेत्र की शिक्षा को भी महंगी करने का तर्क गढ़ा जा रहा है, जो बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार की जिम्मेदारी है। यदि सरकार यह जिम्मेदारी नहीं उठा सकती, तो फिर सरकार की जरूरत ही क्या है?
अब तो बात यहां तक उठ रही है कि सरकार अपनी शिक्षण संस्थानों का भी निजीकरण कर सकती है। यानी जेएनयू और डीयू जैसे विश्वविद्यालय निजी उद्योगों के हाथों में बेच दिए जाएंगे। यह सोचना भी बहुत भयावह लगता है। देश में आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है। देश की 3 फीसदी आबादी के पास संपत्ति का केन्द्रीकरण होता जा रहा है और उसी आबादी को यदि सरकार अपनी संपत्ति बेच दे, तब तो शेष 97 फीसदी लोग उस तीन फीसदी लोगों के रहमोकरम पर हो जाएंगे। यह स्थिति डरावनी है। तब शिक्षा भी सिर्फ अमीर लोगों की विलासिता हो जाएगी और देश की आबादी का 90 प्रतिशत शिक्षा तक पहुंचने में भी असमर्थ हो जाएगा। (संवाद)
जेएनयू आंदोलन का हमें समर्थन क्यों करना चाहिए
शिक्षा के 90 फीसदी आबादी की पहुंच से बाहर होने का खतरा है
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-11-23 09:57
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों का आंदोलन चल रहा है। हो सकता है कि इन पंक्तियों के प्रकाशन के समय उनकी मांगें मान लिए जाने के कारण वह समाप्त भी हो जाए। जो भी हो, इस आंदोलन को हम सिर्फ जेएनयू तक ही सीमित करके नहीं देख सकते। इसे हमें बड़े फलक पर देखना चाहिए, क्योंकि इसका संबंध हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था से है। जेएनयू एकमात्र ऐसा शिक्षा संस्थान नहीं है, जहां की फी बढ़ाई गई है, बल्कि देश के तमाम शिक्षा संस्थानों में शुल्क बढ़ाए जा रहे हैं, खासकर उन संस्थानों में जो केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित हैं।