बहरहाल, महाराष्ट्र में अब भाजपा के पास न तो शिवसेना है और न ही सत्ता। देश का वह सबसे समृद्ध राज्य है और भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई भी वहीं है। इसलिए वहां की सत्ता से बाहर होना भाजपा के लिए बहुत बड़ा सदमा है। लेकिन उसे एक सदमा झारखंड में भी लगने वाला है। झारखंड में विधानसभा के आमचुनाव हो रहे हैं और अलग अलग चरणों के मतदान शुरू भी हो गए हैं। वैसे समय में महाराष्ट्र में भाजपा को लगा झटका पूर्वी भारत के इस राज्य में भी चुनावी नतीजे को प्रभावित कर सकता है। इसके कारण भारतीय जनता पार्टी के कार्यकत्र्ताओं के हौसले पर नकारात्मक असर पड़ रहे हैं और भाजपा विरोधी पार्टियों के हौसले बुलंद हो रहे हैं।

वैसे झारखंड में भारतीय जनता पार्टी की हालत पहले से ही खराब है। उसका चुनाव अभियान जोर नहीं पकड़ पा रहा है। उसके स्टार प्रचारकों की रैलियों में हिस्सा ले रहे लोगों की संख्या उम्मीद से बहुत कम है। चतरा की एक चुनावी सभा में तो भाजपा अध्यक्ष गृहमंत्री अमित शाह को यह कहना पड़ा कि इतने कम लोगों की सभा में उपस्थिति से भाजपा उम्मीदवार की जीत नहीं हो सकती। आम तौर पर नेता अपनी छोटी सभा को भी बड़ी बताकर अपने कार्यकत्र्ताओं का हौसला बढ़ाते हैं और मतदाताओं को संदेश देते हैं कि चुनावी मैदान में उनका पलड़ा भारी चल रहा है। लेकिन जब अमित शाह खुद चुनावी सभा में लोगों की उपस्थिति को कम बता रहे हों और उसके आधार पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार की जीत को असंभव बता रहे हों, तो मानना पड़ेगा कि भाजपा की हालत वास्तव में बहुत खराब है।

दरअसल इस बार भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह अकेली पड़ गई है। उसका कोई गठबंधन सहयोगी नहीं है और मतदाताआंे का सामना उसे अकेले करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में प्रदेश की तीन पार्टियों ने एक मजबूत गठबंधन कर लिया है, जिसकी सम्मिलित ताकत भाजपा पर भारी पड़ती दिख रही है। यह सच है कि यह गठबंधन लोकसभा चुनाव के समय भी था और भाजपा तब उस पर भारी पड़ी थी, लेकिन उस समय मोदी एक बहुत बड़ा फैक्टर था। पर इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी कोई फैक्टर नहीं हैं। वे धारा 370 और राम मंदिर के नाम पर लोगों से वोट मांग रहे हैं, लेकिन धारा 370 से हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को कोई फायदा नहीं हुआ था। दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सीटें घट गई थीं। हरियाणा में तो वह बहुमत से 6 सीटें चूक गई थी, लेकिन दुष्यंत चैटाला की पार्टी से समझौता कर उसने वहां अपनी सरकार बना ली।

पर झारखंड में भारतीय जनता पार्टी सीटों में हुई किसी प्रकार की कमी को बर्दाश्त नहीं कर सकती। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 37 सीटें मिली थीं, जो बहुमत से चार कम थीं। अपने एक गठबंधन सहयोगी के समर्थन के बूते उसने बहुमत के आंकड़े को पार कर लिया था और सरकार भी बना ली। लेकिन इस बार यदि सीटें 37 से भी नीचे चली जाती है, तो उसके लिए सरकार बनाना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि विधायकों की खरीद बिक्री के लिए झारखंड काफी कुख्यात रहा है और भारतीय जनता पार्टी इसका भी इस्तेमाल कर सकती है, लेकिन ऐसा वह तभी कर सकेगी, जब विधानसभा त्रिशंकु हो। पर अगर झारखंड मुक्ति मोर्चे के नेतृत्व वाले गठबंधन ने बहुमत हासिल कर लिया, तो फिर भारतीय जनता पार्टी के लिए खरीद- फरोख्त से सरकार बनाने की संभावना भी समाप्त हो जाएगी।

भाजपा की हालत झारखंड में खराब है, क्योंकि जिस रघुबर दास के नेतृत्व में वह चुनाव लड़ रही है, उनकी छवि एक करिश्माई नेता की भी बन नहीं पाई है। समाज के अलग अलग वर्ग अलग अलग कारणो से उनसे नाराज हैं। आदिवासियों की संख्या यहां सबसे ज्यादा है। झारखंड के गठन के बाद इसका मुख्यमंत्री आदिवासी ही हुआ करते थे। रघुबर दास मुख्यमंत्री बनने वाले पहले गैर आदिवासी हैं। अपने मुख्यमंत्री की चाह में प्रदेश की आदिवासी आबादी लगभग पूरी तरह से भाजपा के खिलाफ है। पिछली बार आदिवासियों के एक तबके को लग रहा था कि अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बनेंगे। इसलिए उनका वोट भी भाजपा को मिला था। लेकिन इस बार भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार रघुबर दास हैं, इसलिए अच्छे खासे आदिवासी वोटों से भाजपा को हाथ धोना पड़ रहा है। मुस्लिम तो वैसे भी भाजपा के खिलाफ ही वोट डालते हैं और दलितों को भाजपा अपनी ओर खींच नहीं पाई है। और झारखंड में दलित, मुस्लिम और आदिवासी मिलकर 52 फीसदी होते हैं। जाहिर है, चुनावी समीकरण भाजपा के खिलाफ है और वैसी पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र की घटना ने इसके कार्यकत्र्ताओं और नेताओं का मूड खराब कर दिया है। दूसरी तरफ विरोधी के हौसले बुलंद हो गए हैं। मतदान के दिन इस हौसलापस्ती या हौसलाबुलंदी का असर पड़ ही जाता है। (संवाद)