हो सकता है कि यह विशेषता उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में कुछ हल्की हो गई हो, लेकिन संजय राउत के भाजपा विरोधी धमाकेदार बयानों को देखते हुए कहा जा सकता है कि शिवसेना का डंक भाजपा के लिए बहुत जहरीला होगा।

किसी अन्य पार्टी के पास यह अप्रशंसनीय विशेषता नहीं है। लेकिन, झूठ की राजनीति करने के लिए कुख्यात और बेल्ट से नीचे हिट करने में माहिर बीजेपी पर यदि शिव सेना अपनी शैली में वार करे, तो भाजपा के अन्य विरोधियों के लिए यह देखने की चीज होगी। उन्हें यह बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा और यह झूठ की राजनीति के खिलाफ एक दिलचस्प संघर्ष के रूप में ही देखा जाएगा। इससे राजनैतिक सरगर्मी बढ़ेगी ही।

भाजपा को यह भी पता होगा कि कोई भी अन्य पार्टी उसकी कार्यशैली और छिपी हुई राजनीति के बारे में उतना नहीं जानती है, जितना शिवसेना जानती है। अपने तीन दशक लंबी साझेदारी के कारण भाजपा को शिवसेना बाहर ही नहीं बल्कि भीतर से भी जानती है। और कहने की जरूरत नहीं कि अ बवह तीन दशक लंगी साझेदारी टूट गई है। उस टूट के लिए शिवसेना ने भाजपा की वादाखिलाफी को जिम्मेदार बताया है। शिवसेना को इस बात का भी दुख है कि उसके नेता उद्धव ठाकुर को भाजपा ने झूठा और गलत बयानी करने वाला ठहराया था।

गौरतलब हो कि उद्धव ठाकरे ने कहा था कि पिछली लोकसभा चुनाव के पहले जब शिवसेना भाजपा से चुनावी गठबंधन नहीं करना चाह रही थी, तो अमित शाह ने उससे वायदा किया था कि विधानसभा चुनाव के बाद वह उसके साथ 50-50 फाॅर्मूले के आधार पर सत्ता में भागीदारी करेगी। पर विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा न केवल अपने वायदे से मुकर गई, बल्कि उद्धव ठाकरे द्वारा वायदा याद दिलाने पर उन्हें झूठा भी करार दिया।

शिवसेना का वैचारिक साम्य भारतीय जनता पार्टी के साथ ही है, क्योंकि दोनों के लिए हिन्दुत्व की राजनीति प्यारी है। दोनों वैचारिक साम्य के कारण भी एक दूसरे के साथ इतने दिनों तक बने रहे, लेकिन अब शिवसेना उस कांग्रेस और एनसीपी के साथ है, जिसके साथ उसका वैचारिक मतभेद है। यही कारण है कि गोदी मीडिया एनसीपी और कांग्रेस के साथ उसके गठबंधन का मजाक उड़ाते हुए कह रहा है कि उसने हिन्दुत्व और सावरकर को छोड़ दिया है। दूसरी तरफ कांग्रेस और एनसीपी का गोदी मीडिया यह कहते हुए मजाक उड़ा रहा है कि सत्ता के लिए उसने धर्मनिरपेक्षता के अपने सिद्धांत को छोड़ दिया है।

यह स्पष्ट है कि भाजपा द्वारा पर्दे के पीछे से प्रसारित किए जाने वाले चैनल, महाराष्ट्र विकास अघाडी की ओर से इन मामलों में थोड़ी सी भी चूक करने पर बहुत हो हल्ला मचाने से नहीं चूकेंगे। भाजपा खुद ऐसे अवसर को अपने दोनों हाथों में लेकर तांडव करती दिखाई देगी।

अगाड़ी की भाजपा की आलोचना पिछले आम चुनाव में महागठबंधन का मजाक बनाने जैसा ही है। उस समय उसने महागठबंधन को महामिलावट के रूप में चित्रित किया था।

महागठबंधन नाॅन- स्टार्टर था, क्योंकि मायावती और ममता बनर्जी जैसे कुछ भाजपा विरोधी नेता इसके बारे में गंभीर नहीं थे। वे अपनी डफली और अपना राग अलग से बजा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि यदि उनकी अपनी सीटों की संख्या अधिक रही, तो त्रिशंकु लोकसभा होने की स्थिति में ज्यादा से ज्यादा मोलभाव कर सकेंगे। इसके कारण महागठबंधन बनाने में उन्होंने दिलचस्पी नहीं दिखाई।

अघाडी में इस तरह के भ्रम के नहीं हैं। यह एक तरह से भाजपा की अति महत्वाकांक्षा के कारण शिवसेना के गुस्से और झुंझलाहट पर आधारित एक आकस्मिक गठन है। हो सकता है कि शिवसेना का गुस्सा इसलिए भी बढ़ गया क्योंकि बीजेपी उसके विधायकों को खरीदने की कोशिश कर रही थी। इसके कारण ही न केवल शिवसेना को, बल्कि उसके साथ-साथ एनसीपी और कांग्रेस को भी अपने विधायकों को होटलों में भाजपा से बचाकर रखना पड़़ा।

महागठबंधन में एक अच्छी तरह से परिभाषित नेतृत्व संरचना नहीं थी, अघाड़ी में शरद पवार और उद्धव ठाकरे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसकी सफलता या विफलता इन दोनों पर निर्भर है। उन दोनों के बीच, पवार की कुंजी है। गैर-भाजपा खेमे में एक प्रमुख शख्सियत के रूप में उनका उदय एक स्वाभाविक घटना है।

आने वाले दिनों में शरद पवार राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष को नेतृत्व देने की संभावना से परिपूर्ण हैं। उनके नेतृत्व को लोकसभा चुनाव के पहले मायावती और राहुल गांधी से चुनौती मिल रही थी। अब उनमें से मायावती को लगभग भुला दिया गया है, जबकि राहुल गांधी ने संसद में हरकतों और सामयिक प्रदर्शनों से अपनी पार्ट- टाइम राजनीतिज्ञ की छवि को ही मजबूत किया है। राहुल की लापरवाही ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद सोनिया गांधी को कांग्रेस के अंदर अधिक सक्रिय भूमिका निभाने के लिए मजबूर कर दिया है। (संवाद)