वैसे क्रीमी लेयर ओबीसी के लिए पहले से ही लागू है और इसका क्राइटेरिया भी तैयार है। यदि इसी क्राइटेरिया को एससी और एसटी के लिए भी स्वीकार कर लिया जाता है, तो फिर वैसा करने के लिए अलग से कोई कमिटी बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, लेकिन जब सरकार इसके लिए तैयार ही नहीं हो, तो फिर बात ही कुछ अलग हो जाती है। इस बीच एससी और एसटी समुदाय के ही कुछ लोग फिर अदालत का रुख कर रहे हैं और चाह रहे हैं कि कोर्ट हस्तक्षेप कर सरकारों को उसके आदेश को मानने के लिए बाध्य करे। सरकार को इसके लिए नोटिस भी जारी किए गए हैं और अब सरकार कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट अपने उस आदेश की समीक्षा करे और वह समीक्षा 7 जजों के बेंच के द्वारा की जाय, क्योंकि जिस बेंच ने क्रीमी लेयर का आदेश दिया, वह 5 जजों को बेंच था।

आखिर सरकार कोर्ट के आदेश का पालन क्यों नहीं कर रही है? इन्दिरा साहनी केस के नाम से प्रचारित मंडल केस में जब सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान किया था, तो उसने उसे झट से स्वीकार कर लिया था और प्रसाद कमिटी बनाकर क्रीमी लेयर के मानदंड भी तय कर दिए थे, लेकिन जब एससी और एसटी का मामला आया तो सरकार इसके लिए तैयार नहीं। कहने की जरूरत नहीं कि इसका मुख्य कारण राजनैतिक ही है। सरकार नहीं चाहती कि इस तरह के फैसले से दलितों और आदिवासियों के शक्तिशाली दबाव समूहों को नाराज किया जाय। आदिवासियों को दबाव समूह बहुत मजबूत तो नहीं है, लेकिन दलितों का दबाव समूह बहुत मजबूत है और सत्ता में इसका दखल भी है। क्रीमी लेयर के प्रावधान से इस दबाव समूह के लोग प्रभावित होंगे। समूह के अधिकांश लोगों के बच्चों को आरक्षण का लाभ मिलना समाप्त हो जाएगा। इस दबाव समूहों के लोगों का सत्ता पर काबिज लोगों के साथ जबर्दस्त गठबंधन है और यह इसी गठबंधन का असर है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से इनकार कर रही है और उलटे उसे इसकी समीक्षा करने के लिए कह रही है।

वैसे इसका एक तकनीकी पक्ष भी है। इन्दिरा साहनी के जिस केस में ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान किया गया था, उसी केस में यह भी कहा गया था कि एसएसी और एसटी में इसे लागू करने की जरूरत नहीं है। इसका कारण बताते हुए कहा गया था कि एससी और एसटी समाज का सबसे पिछड़ा हुआ समुदाय है। वह बेंच 9 जजों का था। जिस बेंच ने पिछले साल एससी और एसटी में क्रीमी लेयर लगाने को कहा, वह पांच सदस्यों का बेंच था। इसलिए तकनीकी मसला यह है कि पांच जजों का बेंच 9 जजों के बेंच के फैसले को कैसे पलट सकता है। इसी को आधार बनाकर केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट से अपने आदेश की समीक्षा करने को कह रही है। लेकिन वह चाहती है कि 7 जजों का बेंच इसकी समीक्षा करे। पर सवाल उठता है कि यदि 7 जजों के उस बेंच ने समीक्षा करके क्रीमी लेयर को उचित ठहराया तो फिर पुराना सवाल बना ही रहेगा कि 7 जजों का बेंच 9 जजों के बेंच के फैसले को कैसे पलट सकता है। इसकी तर्क तो यही कहता है कि केन्द्र सरकार को कहना चाहिए कि 11 जजों का बेंच बनाया जाय, जो 5 जजों और इन्दिरा साहनी केस वाले 9 जजों के आदेशों की समीक्षा करे।

मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। उसे यह निर्णय करना है कि वह 2018 के आदेश की समीक्षा करे या सरकार को साफ साफ शब्दों में यह आदेश दे कि ओबीसी की तरह ही एससी और एसटी के क्रीमी लेयर में आने वाले लोगों को आरक्षण से वंचित कर दिया जाय। इन्दिरा साहनी केस का फैसला 1992 में आया था। तब से अबतक 27 साल बीत चुके हैं और इस बीच एससी और एसटी आबादी को प्रोफाइल भी बदल चुका है। इसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट कह सकता है कि 2018 का आदेश 1992 के आदेश का उल्लंघन नहीं, क्योंकि 27 सालों में स्थितियां बदल चुकी हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे एससी और एसटी आरक्षण पर किसी तरह का असर नहीं पड़ता। समुदाय के रूप मंे उन्हें आरक्षण मिलता रहेगा। फर्क सिर्फ यह पड़ेगा कि उसमें जो संपन्न और समृद्ध होकर क्रीमी लेयर में आ गए हैं, उनकी जगह उन्हीें समुदायों के गरीब लोगों को उस आरक्षण के तहत नियुक्तियां और प्रवेश मिलेंगे। इसके कारण एससी और एसटी समुदायों में समृद्धि और संपन्नता का आधार और विस्तृत होगा और उनमें गरीबी और पिछड़ापना दूर करने में ज्यादा सफलता मिलेगी।

आरक्षण व्यवस्था ने दलितों और आदिवासियों के सशक्तिकरण में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है, लेकिन इसके कारण उन समुदायों में जबर्दस्त विषमता पैदा कर दी है। जिस तर्क से दलितों और आदिवासियों को आरक्षण दिया गया था कि वे समाज के अगड़े तबकों से बराबरी की प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, उसी तर्क से अब उनके बीच क्रीमी लेयर लगाया जाना चाहिए कि गरीब और पिछड़े दलित संपन्न दलितों के साथ बराबरी का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। (संवाद)