नियोगी पुलिस वाले को देखकर मुस्कुराए और कहा- ‘‘मुझे मालूम है कि मैं जीप से उतर कर कुछ दूरी तक ही जाऊंगा और तुम लोग पीछे से मुझे गोली मार दोगे। बाद में कह दोगे कि नियोगी पुलिस को धोखा देकर भाग रहा था, इसलिए हमने उसे मार दिया। इसलिए मुझे कहीं नहीं भागना है। आप लोग गाड़ी आगे बढ़ाओ और जिस जेल में बंद करना है, वहां ले चलो।’’

नियोगी उस समय तो नहीं मारे जा सके लेकिन कुछ ही समय बाद सितंबर 1991 में भाड़े के हत्यारों ने नियोगी की उस समय हत्या कर दी जब रात में वे अपने घर में सो रहे थे। उनकी हत्या के पीछे कौन लोग थे और उनको बचाने वाली ताकतें कौन थी, यह एक अलग कहानी है। मगर यहां मूल मुद्दा है नियोगी को एनकाउंटर में मारने की उस कोशिश का, जो कामयाब नहीं हो सकी थी।

यह बात तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी हो गई है लेकिन पुलिस का एनकाउंटर का तरीका कमोबेश वही है, जो वह नियोगी के साथ आजमाना चाहती थी। तब से लेकर अब तक देशभर में इस तरह के सैंकड़ों ‘एनकाउंटर’ हुए हैं और कमोबेश सबकी कहानी एक जैसी है। हैदराबाद में तेलंगाना पुलिस के हाथों बलात्कार के चार आरोपियों के मारे जाने की कहानी भी उन सब कहानियों से जुदा नहीं लगती। हकीकत क्या है? यानी एनकाउंटर वास्तविक था या फर्जी और जो चार लोग मारे गए वे ही बलात्कार कांड के आरोपी थे या उनकी जगह किन्हीं अन्य चार लोगों को मारकर तेलंगाना पुलिस अपनी पीठ थपथपा रही है? इन सारे सवालों के जवाब तो तभी मिल सकते हैं जब पूरे मामले की निष्पक्ष जांच हो।

हैदराबाद से जैसे ही एनकाउंटर की खबर आई, लगभग समूचे मीडिया और समाज के एक बडे़ वर्ग ने हैदराबाद की उस पुलिस को माथे पर बैठा लिया, जिसने बलात्कारी दरिंदों की शिकार महिला डॉक्टर के परिजनों की रिपोर्ट तक नहीं लिखी थी और उलटे उनके साथ बदतमीजी की थी। हैरानी की बात तो यह है कि कानून बनाने वाली संस्था यानी संसद में तमाम राजनीतिक दलों के सदस्यों और वकील राजनेताओं ने भी एनकाउंटर का कारनामा करने वाली पुलिस को बढ़-चढ़कर शाबासी दी। टीवी चैनलों पर देखा गया है कि लोगों ने एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों को कंधे पर बैठा लिया, उन्हें मिठाई खिलाई गई और कुछ महिलाएं उन्हें राखी बांधते और तिलक लगाते भी देखी गईं। सोशल मीडिया पर तेलंगाना पुलिस को बधाई देने का तांता लग गया। सभी ने एनकाउंटर को जनभावनाओं के अनुरूप बताया। कुछ उन्मादी लोगों ने यहां तक लिखा कि अगर तेलंगाना पुलिस ने वास्तव में एनकाउंटर किया है तो उसे सलाम और अगर फेंक एनकाउंटर किया है तो उसे सौ-सौ सलाम।

एक लोकतांत्रिक समाज और कानून के राज में किसी भी किस्म के अपराधी को सजा देना अदालत की जिम्मेदारी होती है। लेकिन जब गृह मंत्री जैसे सरकार के ऊंचे पदों पर बैठे लोग न्यायपालिका को नसीहत देने लगे कि वे जनभावनाओं के अनुरूप फैसले दें और अदालतें भी बाकायदा जनभावनाओं और लोक-आस्थाओं के आधार पर फैसले देने लगे तो फिर पुलिस को भी ‘जनभावनाओं’ के अनुरूप मनमानी कार्रवाई करने से कौन रोक सकता है?

तेलंगाना पुलिस ने ‘जनभावनाओं’ के अनुरूप जिस कारनामे को अंजाम दिया, उसे कानून के राज में किसी भी तरह से इंसाफ नहीं कहा जा सकता, खासकर औपनिवेशिक मानसिकता वाली हमारी पुलिस के भ्रष्ट और आपराधिक चरित्र को देखते हुए। वास्तव में तो ऐसे एनकाउंटर पर समाज को चिंतित होना चाहिए, लेकिन फिर भी लोग इसे वास्तविक इंसाफ मान रहे हैं तो यह उनकी हताश-निराश मानसिकता का परिचायक है। इस ‘क्रिमिनल जस्टिस’ पर बज रही तालियां बता रही हैं कि देश की न्याय व्यवस्था पर से आम आदमी का भरोसा उठ गया है और वह मान चुका है कि हमारी अदालतें भी व्यवस्था तंत्र के दूसरे हिस्सों की तरह भ्रष्ट और नाकारा हो चुकी है।

हैदराबाद एनकाउंटर को मिल रहा व्यापक समर्थन दरअसल एक तरह से हमारी न्याय व्यवस्था पर कठोर टिप्पणी है, जिसमें वर्षों तक मुकदमों के फैसले नहीं हो पाते हैं या अपराधी किसी तरह बच निकलते हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि हैदराबाद की घटना के बाद पुलिस या भीड़ के हाथों बलात्कारियों और दूसरे अपराधियों के ‘फैसले’ होने की घटनाओं में इजाफा होने लग जाए।...और जब ऐसा होने लगेगा तो गुनहगार ही नहीं, बेगुनाह भी मारे जाएंगे।

हमारी न्याय व्यवस्था पर से जिस तरह समाज का भरोसा उठने लगा है, उसमें ऐसी ही स्थितियां बनती दिख रही हैं। अगर जनभावनाओं के आधार पर ही फैसले होंगे तो फिर पुलिस ही क्यों, अदालतों के जज भी फैसले देने से पहले ट्विटर पर जाकर देखेंगे कि संबंधित मामले में क्या ट्रेंड चल रहा है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बचने के लिए जरूरी है कि पुलिस और आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार हो, जो कि कई वर्षों से लंबित हैं। (संवाद)