हालांकि सरकार कह रही है कि यह कानून भारत के वर्तमान नागरिकों से संबंधित नहीं है और यह उन लोगों से संबंधित है, जो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से धर्म के आधार पर पीड़ित होकर भारत में बसे हुए हैं। यह सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि यह अधिनियम संवैधानिक है या असंवैधानिक, लेकिन उसके पहले ही कुछ राज्य सरकारें कह रही हैं कि वे इसे लागू नहीं करेगी और ऐसा कहने वालों में सीमावर्ती राज्य पश्चिम बंगाल और पंजाब भी शामिल हैं। माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में इस तरह के लोग बहुत ज्यादा रहते हैं और यदि वहां की सरकार ही इसे लागू नहीं करती, तो फिर इस अधिनियम का मतलब ही क्या रह जाएगा।
पश्चिम बंगाल से भी ज्यादा शरणार्थी असम में रहते हैं। वहां तो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर भी बनी है और उसके बाद पाया गया कि 19 लाख से भी ज्यादा लोग भारत के नागरिक नहीं हैं और वे वहं अवैध रूप से रह रहे हैं। असम की राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार होने के पहले भारतीय जनता पार्टी यह सोच रही थी कि लगभग सारे शरणार्थी मुस्लिम ही होंगे, लेकिन वह यह जानकर स्तब्ध रह गई कि करीब 70 फीसदी लोग हिन्दू हैं और 30 फीसदी ही मुस्लिम। अब नये नागरिकता संशोधन अधिनियम के द्वारा हिन्दुओं को नागरिकता देने का रास्ता तो साफ हो गया है, लेकिन समस्या यह है कि असम के लोगों को यह नया कानून मंजूर नहीं है। भारतीय जनता पार्टी को भले लगता हो कि हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता दे दी जाय, लेकिन असम के स्थानीय लोगों को यह मंजूर नहीं कि बांग्लादेश से आए किसी भी शरणार्थी को वहां की नागरिकता दी जाय। सबसे पहले तो वे यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि वहां मात्र 19 लाख शरणार्थी ही रह रहे हैं और इसके साथ उन्हें यह भी मंजूर नहीं कि हिन्दू शरणार्थियों को वहां का नागरिक बना दिया जाय। भारतीय जनता पार्टी के लिए भले ही धर्म मायने रखता हो, लेकिन उनके लिए धर्म मायने नहीं रखता। उनके लिए ज्यादा मायने यह रखता है कि उनकी संस्कृति से बाहर के लोग उनके यहां नहीं बसे।
बांग्लादेश से आए हिन्दू शरणार्थी भी बांग्ला बोलते हैं, जबकि असम की भाषा असमिया है। बंगाली हिन्दुओं की संस्कृति भी असमी हिन्दुओं की संस्कृति से अलग है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन सबको नागरिकता दे दी जाती है, तो चुनावी नतीजों को वे प्रभावित करने लगेंगे और स्थानीय असमी लोग बांग्ला भाषियों से हारने लगेंगे। जाहिर है शरणार्थी समस्या को वे हिन्दू- मुस्लिम नजरिये से नहीं देखते, जैसा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता देखते हैं। उनके लिए गैर असमियों को असम में बर्दाश्त करना आसान नहीं है। असम में वैसे भी पश्चिम बंगाल से गए हुए वैध बंगाली नागरिक पहले से ही मौजूद हैं। अंग्रेज के जमाने में भी वहां बंगाली बसे थे और आजादी के समय विभाजन के कारण पूर्वी पाकिस्तान (अब के बांग्लादेश) से भी लाखों बंगाली वहां आकर बसे हुए हैं। वे सब चूंकि वैध भारतीय नागरिक पहले से ही हैं, इसलिए उनके खिलाफ वे ज्यादा कुछ कर नहीं सकते, लेकिन असम समझौते के तहत सितंबर 1971 के बाद आए हुए बांग्लाभाषियों को वे किसी तरह वहां बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं, भले ही वे उनकी तरह हिन्दू ही क्यों नहीं हों।
यही कारण है कि पूरा असम जल रहा है और उसके साथ त्रिपुरा और मेघालय भी जल रहा है। त्रिपुरा तो पहले ही बंगाली वहुल प्रदेश बन चुका है और वहां के स्थानीय निवासी अल्पमत में आ चुके हैं। अब और बांग्लाभाषी को वहां का स्थाई निवासी बनाने को वे तैयार नहीं। बल्कि वहां के स्थानीय जनजाति लोग तो चाहते हैं कि जिन बांग्लाभाषियों को वोटिंग राइट मिला हुआ है, उनमें से भी विदेशियों की पहचान की जाय और उनको बाहर किया जाय। लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम की उनकी मंशा पूरा करने के रास्ते में बाधा पैदा कर सकता है। इसलिए वे भी उबल रहे हैं। यही हाल मेघालय का भी है। अन्य राज्यों में भी इस अधिनियम को लेकर चिंता है, लेकिन उन्हें समझा दिया गया है कि अंग्रेज काल के एक पुराने कानून के तहत उनके हितों की रक्षा की जाएगी और उनके इलाकों में रह रहे लोगों को वहां का निवासी नहीं बनाया जाएगा। लेकिन पूर्ण रूप से संतुष्ट तो वे भी नहीं हैं और वहां भी माहौल हिंसक बना हुआ है।
पूर्वोत्तर में माहौल हिंसक है और पुराने अनुभव बताते हैं कि वहां जब भी हिंसा का माहौल होता है, तो हिन्दी पट्टी के लोग सबसे ज्यादा उस हिंसा का शिकार होते हैं। अंग्रेज के जमाने से ही हिन्दी राज्यों के लोग वहां रह रहे हैं। वहां के आर्थिक विकास में इन हिन्दी भाषी लोगों का बहुत बड़ा योगदान है। वहां वे मजदूर के रूप में रह रहे हैं, तो सफल व्यापारी के रूप में रह रहे हैं। अनेक सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थाओं में भी हैं। उनके भारत नागरिक होने पर किसी को संदेह नहीं, लेकिन सच्चाई यही है कि वहां जब भी स्थानीय और बाहरी का विवाद खड़ा होता है, तो सबसे ज्यादा निशाना इन्हीं हिन्दी भाषियों को बनाया जाता है, जो बिहार से लेकर राजस्थान तक से वहां गए हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस अधिनियम के कारण आज वे वहां एक बार फिर असुरक्षित हो गए हैं। (संवाद)
नागरिकता संशोधन अधिनियम और उसके बाद
फिलहाल तो पूर्वोत्तर में रहने वाले गायपट्टी के लोग संकट में हैं
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-12-14 11:03
राष्ट्रपति के दस्तखत के साथ नागरिकता संशोधन विधेयक अब नागरिकता संशोधन अधिनियम बन चुका है। इस अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट के टेस्ट में पास होना अभी बाकी है। वहां इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी गई है और संविधान की मूल संरचना के इसे खिलाफ बताया गया है। गौरतलब हो कि केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि संसद ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती और सरकार ऐसा कोई निर्णय नहीं ले सकती, जो संविधान की मूल संरचना के खिलाफ हो। भारत का संविधान एक धर्म निरपेक्ष संविधन है और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा मौलिक अधिकारों के प्रावधानों में की गई है, जिनमें कहा गया है कि कानून की नजर में सभी लोग बराबर हैं और धर्म या मजहब के आधार पर यहां के नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।