जाहिर है, भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश नाकाम हुई। यह शायद उलटी भी पड़ गई, क्योंकि हिन्दुओं को लगा कि उन्हें मूर्ख बनाने की कोशिश की जा रही है और उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे मूर्ख नहीं हैं। अमित शाह को तो अपनी चुनावी सभाओं में भी अपनी पार्टी की हार का आभास हो चुका था। एक सभा में तो उन्होंने साफ साफ कह दिया कि सभा में इतने कम लोगों के उपस्थिति से उम्मीदवार की जीत नहीं हो सकती। उन्होंने उसी सभा में जाति कार्ड भी खेल दिया। बोला कि मैं भी बनिया हूं और मुझे पता है कि इतने कम लोगों के सभा में आने से जीत नहीं होती। जिस स्थान पर उनकी सभा हो रही थी, वह वैश्य बहुल इलाका था। गौरतलब है कि झारखंड की करीब दर्जन भर जातियों के लोग अपने को वैश्य कहते हैं और वैश्य को बनिया भी कहा जाता है। यह वैश्य समुदाय झारखंड की पूरी आबादी का करीब 25 से 50 फीसदी है और भारतीय जनता पार्टी का यह पारंपरिक मजबूत आधार रहा है। नरेन्द्र मोदी भी इसी वैश्य समुदाय से हैं और अमित शाह भी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि रधुबर दास भी इसी वैश्य समुदाय से हैं।
वैश्य समुदाय के लोग भाजपा और उसके पहले के जनसंघ के समर्थक रहे हैं, लेकिन उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं हुआ करती थी। वे चुनावी पचड़े में फंसने से बचा करते थे। इसका लाभ भाजपा को यह होता था कि बिना उनको सत्ता में हिस्सेदारी दिए हुए ही उनका वोट उन्हें हासिल हो जाता था। लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं। अब वे राजनीति में सिर्फ वोटर की हैसियत में नहीं रहना चाहते, बल्कि अब चुनाव लड़कर विधायक और सांसद भी बनना चाहते हैं। इसके कारण जिस भाजपा के वे समर्थक हैं, उस भाजपा से चुनावी टिकट भी चाहते हैं।
और यहीं भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व उन्हें निराश कर रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में वैश्य समुदाय के किसी भी स्थानीय व्यक्ति को भारतीय जनता पार्टी ने अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। 14 में 6 सीटें तो आदिवासी और दलितों के लिए आरक्षित हैं। शेष सामान्य सीटों पर वे दावा कर रहे थे, लेकिन उनके दावों की अनसुनी कर दी गई। उस चुनाव में उन्होंने फिर भी भाजपा को वोट दिया, क्योंकि सीटें कम होने और पहले से ही भरी होने के कारण वे भाजपा नेतृत्व की विवशता को समझ सकते थे। लेकिन विधानसभा में स्थितियां अलग थीं। 2014 के चुनाव में 81 सीटों में से भाजपा के कुल 37 उम्मीदवार ही जीत पाए थे। बाद में 7 विधायकों का दलबदल करवाकर पार्टी में शामिल कर लिया गया था। जाहिर है अनेक सीटें खाली थीं, जिन पर वैश्य समुदाय के लोग अपने टिकट का दावा कर रहे थे। पर उनको यहां फिर निराश होना पड़ा।
झारखंड में कथित सवर्णों की संख्या 7 फीसदी है। सामान्य सीटों में ज्यादातर उनको ही टिकट दिया जाता है। पिछड़े वर्गो में मुख्य रूप से कृषक जातियों को भाजपा भी उम्मीदवार बनाती है। कृषक जातियां आमतौर पर भाजपा के खिलाफ ही हैं। इसके कारण उसके पास इन समुदायों से चुनाव लड़ने के उम्मीदवार कम ही होते हैं। लेकिन इसकी कमी भाजपा दूसरी पार्टियों के नेता को अपनी पार्टी में लाकर पूरी कर देते हैं और वैश्य समुदाय के अनेक महत्वाकांक्षी चुनावी इच्छुकों की इच्छा पूरी नहीं हो पाती है। इसके कारण उनका भाजपा से मोह भंग होने लगता है। और यह इस बार हुआ। उनका एक हिस्सा भाजपा विरोधी हो गया और उन्होंने विरोध में ही वोट डाला या निष्क्रिय हो गए।
गैर वैश्य ओबीसी समुदाय के वोट भी भाजपा को अच्छी तरह से नहीं मिल पाए। इसका कारण आरक्षण नीति का झारखंड में दोषपूर्ण क्रियान्वयन है, जिसके कारण ज्यादा अंक पाने वाले ओबीसी उम्मीदवार को भी नौकरी नहीं मिल पाती, जबकि कम अंक पाकर सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार सफल हो जाते हैं। ओबीसी की आबादी वहां कुल आबादी की 52 फीसदी है, जबकि उन्हें 14 फीसदी आरक्षण ही मिलते हैं। नियम के अनुसार जो ज्यादा अंक पाते हैं, उनका चयन सामान्य श्रेणी में होना चाहिए और सामान्य कट आॅफ से कम वाले को ही 14 फीसदी की सूची मंे डाला जाना चाहिए, लेकिन वैसा नहीं किया जाता। टाॅपर ओबीसी को भी ओबीसी के लिए आरक्षित पदों पर डाल दिया जाता है, जिसके कारण उनका कट आॅफ सामान्य से भी ज्यादा होता ळें
यह एक बड़ी समस्या है, जिसके लिए रघुबर सरकार को ही दोषी ठहराया गया। दूसरी तरफ हेमंत सोरेन की पार्टी ने ओबीसी आरक्षण बढ़ाकर 27 फीसदी करने का वायदा कर दिया। भाजपा ने उसके जवाब में कहा कि वह इसके लिए एक कमिटी बनाएगी। इसका भी बुरा असर भाजपा के प्रदर्शन पर पड़ा। भाजपा नेतृत्व ने सोचा कि एक ओबीसी रघुबर दास के चेहरे पर ही ओबीसी उसे वोट दे देंगे और उनके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है। लेकिन अब कुछ काम किए बिना समर्थन हासिल करना मुश्किल है। इस सच्चाई को भाजपा ने स्वीकार नहीं किया और इसके कारण झारखंड उसके हाथ से बाहर निकल गया।(संवाद)
झारखंड में भाजपा की हार
बिना कुछ किए वोट पाने की मंशा पूरी नहीं हो सकी
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-12-24 10:12
इस लेखक ने झारखंड में भाजपा की हार की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी थी। इसका कारण यह था कि वहां का जाति समीकरण भाजपा के खिलाफ था। लगता है भाजपा नेताओं को भी इसका अहसास हो गया था और उन्होंने अपनी इस कमजोरी की ढकने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति तेज कर दी और इस मोर्चे को खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संभाल रखा था। दोनों ने झारखं डमें नौ- नौ चुनावी सभाएं कीं और धारा 370 और राममंदिर पर अपनी सफलता का खूब बखान किया। अमित शाह ने तो 2024 के लोकसभा चुनाव के तक सारे घुसपैठियों को भारत से खदेड़ देने का एलान भी कर दिया। जब वे घुसपैठिया शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उनका मतलब मुस्लिम होता है और इस तरह के बयानों और दावों से हिन्दुओं के सांप्रदायित तुष्टिकरण की कोशिश होती है। ऐसा कर अमित शाह हिन्दुओं का दिल जीतना चाहते थे। लेकिन लगता है कि इसका उलटा ही असर हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने जिस 18 विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी सभाओं को संबोधित किया, उनमें से 16 में भाजपा के उम्मीदवार हार गए।