वायुसेना का इस्तेमाल माओवादियों के खिलाफ हो अथवा नहीं, यह एक राजनैतिक फैसला होगा और इसका निर्णय भी राजनैतिक स्तर पर ही किया जाएगा। जाहिर है, जो प्रधानमंत्री का निर्णय होगा, अंततः वही लागू होगा। लेकिन निर्णय लेते समय वायुसेना के अध्यक्ष ने जो कहा है उस पर प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिए। सेना को देश के लोग अपने रक्षक के रूप में देखते हैं। वे देश की रक्षा के लिए हैं और वह भी विदेशी ताकतों के खिलाफ। सेनिकों का प्रशिक्षण भी उसी के अनुरूप होता है।

लेकिन जब वायुसैनिको को अपने ही देश के ठिकानों पर बम बरसाने के लिए कहा जाएगा और उनके निशाने पर अपने ही लोग होंगे, तो उनके मन में किस तरह के भाव उठेंगेए इसके बारे में अनुमान लगाना कठिन नहीे है। हवाई हमले के ठिकानों की पहचान कोई और करेगा। उस पर हमला करने का जिम्मा वायुसेना का होगा। पहचान करने वाले गलती कर सकते हैं। माओवादियों के ठिकानों के बारे मे सूचनाए्र गलत हो सकती है। जाहिर है गलत सूचनाओं के आधार पर किए गए हमलों के निर्दोष लोगों की जान जा सकती है। बाद में हमला करने वाले वायुसैनिकों को पता चलेगा के उनके हमले में निर्दोष लोग मारे गए, तो उन पर क्या गुजरेगी, इसके बारे में भी सोचा जाना चाहिए।

यदि निर्दोष लोग हमलों के शिकार हुए, तो लोगों के बीच में भी वायुसेना की छवि धूमिल होगी। और सेना के लिए कोई अच्छी बात नहीं होगी। हवाई हमले की नौबत में माओवादी अपने ठिकाने निर्दोष लोगों के इलाके में बना सकते हैं। यह कोई काल्पनिक स्थिति नहीं है, बल्कि ऐसा होना बहुत बड़ी संभावना है। इसलिए वायुसेना के इस्तेमाल में खतरा यह है कि एक माओवादी को मारने के लिए दस निर्दोष लोगों की हत्या कर दी जाए। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसा करना उचित नहीं होगा।

दरअसल माओवादी समस्या के हल के लिए ताकत के इस्तेमाल का जो तरीका इस्तेमाल किया जा रहा है, वह गलत है। गृहमंत्री पी चिदंबरम माओवादी समस्या के हल के लिए जो बयानबाजी करते जा रहे हैं वह गलत है। उनकी बेवजह बयानबाजी, माओवादियों के खिलाफ आपरेशन में लगे जवानों को और भी असुरक्षित बना देती है। गौरतलब हैं कि पी चिदंबरम ने लालगढ़ में अपनी अपने आपरेशन की सफलता पर अपनी पीठ थपथपाते हुए माओवादियो को कायर बताया था और कहा था कि वे अपने बिलों में दुबके हुए हैं। उनके इस बयान के दो दिनो के बाद ही दांतेवाड़ा की वह घटना घटी। सुरक्षा बलों को मिली सफलता पर इस तरह की बयानबाजी की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन चिदंबरम को मीडिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करने की बीमारी लगी हुई है और वे कुछ बोले बिना चुप नहीं रह सकते।

कुछ दिन पहले ही पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने चिदंबरम को अपनी जुबान संभालकर बात करने के लिए कहा था। एक बार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी उनकी बयानबाजी से आहत महसूस कर रहे थे। जो बातें पी चिदंरम को मुख्यमंत्रियों से निजी बातचीत में करनी चाहिए, वह उनसे मीडिया के द्वारा करते हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री शीबू सोरेन तक को उन्होंने अपने बयानों से नाराज कर रखा है।

यानी पी चिदंबरम बोले बिना नहीं रह सकते। यदि सुरक्षा बलों ने कोई सफलता पाई है, तो उसके लिए वे अपनी पीठ थपथपाने से बाज नहीं आते। वे मीडिया के इस्तेमाल के द्वारा माओवादियों को खुली चुनौती देते रहने में अपनी बहादुरी समझते हैं। उनके इन बड़बोलेपन का असर माओवादियों के खिलाफ चल रहे अभियान पर अच्छा नहीं पड़ता है। मुख्यमंत्रियों के साथ उनका तालमेल बिगड़ता है, तो केन्द्रीय सुरक्षा बलों के साथ लोकल पुलिस के तालमेल के खतरे भी बढ़ जाते हैं। दांतेवाड़ा की घटना के बाद यह भी खबर आ रही है केन्द्रीय सुरक्षा बलों के साथ लोकल पुलिस का तालमेल बेहतर नहीं था और उस बड़ी घटना के पीछे का एक कारण वह भी था।

सुरक्षा बलों केी सहायता से माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाने के पहले जो तैयारी की जानी चहिए थी, वह भी शायद नहीं की गई है। नक्सल प्रभावित इलाके में पुलिस और सुरक्षा बलों का खुफिया नेटवर्क मजबूत होना चाहिए था, लेकिन लगता है कि बड़े हिस्से में कोई खुफिया नेटवर्क है ही नहीं। गृहमंत्री को लगता है कि ताकत के बल पर ही सुरक्षा बल माओवादियों का सफाया कर द्रेगे, लेकिन ताकत से ज्यादा जरूरी यहां खुफिया जानकारी का होना है। नक्सली इलाकों में सभी लोग नक्सली नहीं होते। जो नक्सली नहीं हैं, वे पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए सूचना नेटवर्क का काम कर सकते हैं। हांए नेटवर्क में माओवादियों की घुसपैठ की भी आशंका है, लेकिन उसका ख्याल तो पुलिस और सुरक्षा बलों को करना ही होगा।

माओवादियों के खिलाफ आपरेशन शुरू करने के पहले लोकल लोगों में माओवादियों का अलग थलग करना भी जरूरी था, लेकिन लगता है कि उत्साही गृहमंत्री ने इसका घ्यान भी नहीं रखा है। माओवादी तभी पराजित होेगे, जब उन्हें लोकल समर्थन मिलना बंद होगा। समाज में उन्हें अलग थलग करना उनके खिलाफ किसी कार्रवाई की सफलता की पहली शर्त है, लेकिन आपरेशन के पहले इसका भी ध्यान नहीं रखा गया।

जाहिर है, रणनीति में बदलाव करने की जरूरत है। पी चिदंबरम एक अच्छे प्रशासक हो सकते हैं, लेकिन जिन इलाकों में माओवादियों के खिलाफ आपरेशन चल रहा है, उन इलाकों की राजनीति की समझ का शायद उनमें अभाव है। इसलिए प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे नक्सली इलाके के ही किसी नेता को गृहमंत्रालय की जिम्मेदारी दे दें। पी चिदंबरम के नेतृत्व में माओवादियों के खिलाफ आपरेशन की सफलता संदिग्ध बनी रहेगी। (संवाद)