बसपा का यह प्रदर्शन इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि 2009 के चुनाव में यह दिल्ली में तीसरी ताकत के रूप में उभरी थी। उसे 14 फीसदी के करीब मत मिले थे और जीती गई सीटों के मामले में भी यह कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। प्रतिशत के हिसाब से यह उत्तर प्रदेश के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बहुजन समाज पार्टी के लिए था। लेकिन इस बार उसे एक प्रतिशत मत भी नहीं मिले। 1993 से ही बसपा दिल्ली का चुनाव लड़ती आ रही है। इसके पहले के चुनावों में उसे कभी भी एक फीसदी से कम मत नहीं मिला करते थे। आमतौर पर 4 या 5 प्रतिशत के करीब मत मिल ही जाते थे और 2009 में यह 14 फीसदी तक पहुंच गया था, लेकिन इस बार एक फीसदी भी मत नहीं मिले।
जाहिर है, बहुजन समाज पार्टी दिल्ली में समाप्त हो चुकी है, जबकि इसका गठन दिल्ली में ही हुआ था। भले ही कांशी राम को अपनी पार्टी स्थापित करने में सफलता उत्तर प्रदेश और पंजाब में मिली हो, जिन राज्यों से पहली बार 1989 में बसपा के सांसद जीतकर आए थे, लेकिन उनकी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र दिल्ली ही हुआ करती थी। देश भर के बसपा समर्थक दिल्ली में ही एकत्र होते थे। कांशीराम दिल्ली में आर्थिक शरणार्थियों के लिए रैलियां निकाला करते थे। लोकसभा चुनाव में वे अपनी जमानत जब्त कराने के खतरे को मोल लेते हुए भी दिल्ली से चुनाव लड़ा करते थे। हार के बावजूद दिल्ली में बसपा के कार्यकत्र्ता बन गए थे, लेकिन इस चुनाव में पार्टी की भारी दुर्गति हो गई और बसपा का कोई उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा सका।
मायावती की यह राजनैतिक अवसान दिल्ली तक सीमित नहीं है, बल्कि देश व्यापी है। उसकी पार्टी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की पार्टी है और वहां भी माया की राजनैतिक मौत 2014 के लोकसभा चुनाव में ही हो गई थी। उस मौत पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2017 के चुनाव ने मोहर लगा दी। 2014 में मायावती की पार्टी को लोकसभा की एक सीट भी नहीं मिली और 2017 के विधानसभा चुनाव में मात्र 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। यह 1993 और उसके बाद के चुनावों में बसपा का सबसे खराब प्रदर्शन था।
मायावती की राजनैतिक मौत हो चुकी थी, लेकिन उन्हें नई जिंदगी अखिलेश यादव की अपरिपक्वता से मिली। 2017 की हार से व्यथित अखिलेश ने 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती से राजनैतिक गठबंधन कर लिया। गठबंधन भी किया, तो मायावती की शर्तों पर ही। कमजोर होने के बावजूद मायावती ने न केवल अखिलेश की पार्टी से ज्यादा सीटों पर अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव लड़वाया, बल्कि कठिन सीटें अखिलेश यादव को दी और खुद अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को आसान सीटों पर लड़वाया। इसका नतीजा यह हुआ कि इस बार मायावती की बसपा को 10 लोकसभा सीटें मिल गईं, जबकि अखिलेश यादव की पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ। उस चुनाव में मायावती को नई जिंदगी मिली और उनके लिए उतनी बड़ी सफलता ही काफी थी।
लेकिन बाद में हुए कुछ विधानसभा के उपचुनावों ने साबित कर दिया कि अखिलेश से जो संजीवनी माया को मिली थी, उसके बाद भी धरातल पर वह मजबूत नहीं हो पाई है। सच तो यह है कि उनके पावां के नीचे से धरती खिसक चुकी है और उनके दलित समर्थक भी अब अपने लिए नये मसीहा की तलाश कर सकते हैं। दलितों में मायावती की अपील उनकी जाति तक सीमित होकर रह गई है, लेकिन उनकी जाति के लोग भी अब उनके लिए अपना वोट बर्बाद नहीं कर सकते। दिल्ली के चुनाव में यह स्पष्ट हो गया। गौरतलब हो कि दिल्ली में दलित मतदाताओं की संख्या करीब 18 फीसदी है। मायावती की जाति के लोगों की संख्या 6 फीसदी से भी अधिक है। यदि माया को उनकी जाति के लोगों ने मत दिया होता, तो फिर भी उनकी पार्टी को 6 फीसदी मत आ जाते, लेकिन एक फीसदी मत नहीं आने का मतलब है कि कम से कम दिल्ली में उनकी जाति के मतदाताआंे ने उनसे पीठ फेर ली है।
उत्तर प्रदेश मायावती की जाति सबसे अधिक संख्या वाली पार्टी जनगणना रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की आबादी का 12 फीसदी माया की जाति के लोग हैं। इसके बूते वे टिकट की ब्रिकी और दूसरे दलों से आगे भी मोलभाव कर सकती थी, लेकिन अब एक नये दलित नेता का उदय उत्तर प्रदेश में हो गया है, जिसने अपनी एक राष्ट्रीय पहचान बना ली है। वह दलित नेता चन्द्रशेखर आजाद रावण है। मायावती की समस्या है कि वह अब घर से बाहर निकल कर राजनीति नहीं कर रहीं और अपने घर में भी अपनी पार्टी के कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को प्रवेश नहीं देती हैं। उन्होंने अपने आपको चुनावकालीन राजनीतिज्ञ के रूप में तब्दील कर लिया है। चुनाव के समय टिकट की बिक्री और दूसरे दलों से मोलभाव तक उनकी राजनीति सीमित रह गई है।
लेकिन दलित समुदाय मायावती जैसा भाग्यशाली नहीं। यह समुदाय लगातार समस्याओं से ग्रस्त रहता है। सामाजिक भेदभाव का शिकार तो यह सदियों से रहा है, आधुनिकता के साथ इसके साथ होने वाले भेदभाव भी अब बहुआयामी हो गए हैं और इसका उत्पीड़न भी कई स्तरों पर होता है। इसे एक ऐसा नेता चाहिए, जो इसके दुख दर्द में इसके साथ रहे, लेकिन मायावती को उनके दुख दर्द से कोई मतलब नहीं। वह पीड़ितों से मिलने नहीं जातीं। वह उत्पीड़कों के खिलाफ किसी तरह के कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेतीं। वह गैप चन्द्रशेखर रावण भर रहे हैं। पर सवाल यह है कि क्या वह माया की जगह ले पाएंगे? (संवाद)
मायावती का राजनैतिक अवसान
क्या चन्द्रशेखर रावण ले पाएंगे उनकी जगह?
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-02-24 10:54
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे को लोग आम आदमी पार्टी की विजय, भारतीय जनता पार्टी की हार और कांग्रेस के सफाए के रूप में ही देखते हैं, लेकिन इस चुनाव को बसपा प्रमुख मायावती की राजनीति के अवसान के रूप में भी देखा जाना चाहिए। मायावती ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे और उनके सभी उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गईं। सिर्फ जमानतें ही नहीं जब्त हुईं, बल्कि अंधिकांश सीटों पर तो बसपा उम्मीदवारों को 1000 से भी कम वोट मिले।