इसमें कोई शक नहीं कि यदि दिल्ली पुलिस चाहती, तो दंगा नहीं होता। उसने समय रहते कारर्वाई नहीं की और न केवल अनेक मौकों पर मूक दर्शक बनी रही, बल्कि कुछ मौकों पर तो खुद भी दंगा करती दिखी। दिल्ली पुलिस की भूमिका का जहां तक सवाल है, तो वह 1984 की भूमिका में दिखाई पड़ रही थी। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद पुलिस इसी तरह की भूमिका में थी। उस समय सिखों को मारा जा रहा था। पुलिस तमाशबीन बनी हुई थी। मर रहे लोग बहुत पास से उसे बचाने की गुहार लगाते थे, लेकिन वह ऐसा व्यवहार कर रही थी, मानो उसे लकवा मार गया हो।
दिल्ली में भी पुलिस ने अपने लिए लगभग उसी तरह की भूमिका तय कर रखी थी। हालांकि फर्क यह था कि 1984 में दंगाइयों की संख्या बहुत ज्यादा थी और इस बार बहुत कम। इसके कारण दंगाई 1984 को दुहरा नहीं सके। दंगाइयों द्वारा 1984 को दुहराने में विफल रहने का एक कारण यह भी था कि हिन्दुओं ने मुसलमानों को जहां तहां बचाया और अपने घरों में शरण दी। मुस्लिम बहुल इलाकों में मुसलमानों ने भी अपने हिन्दु पड़ोसियों को सुरक्षा प्रदान की। इन सबके कारण दिल्ली ने 1984 की विभीषिका को दुबारा नहीं देखा।
लेकिन जो हुआ वह भी कम नहीं था। इस दंगे के शुरुआती शिकारों में एक पुलिस जवान की मौत हुई और एक डीसीपी स्तर का पुलिस अधिकारी मरते मरते बचा। वह अभी भी अस्पताल में है। विडंबना देखिए कि जो डीसीपी अभी अस्पताल में है, सबसे बड़ी गलती उसी ने की थी। दंगे के लिए यदि पुलिस का कोई अधिकारी निजी तौर पर सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, तो वही डीसीपी है, क्योंकि उसके सामने खड़े होकर ही भाजपा का पराजित विधानसभा उम्मीदवार हिंसा की धमकी दे रहा था। गौरतलब है कि हिंसा उस धमकी के बाद ही शुरू हुई।
यदि धमकी देने के समय ही कपिल मिश्र को गिरफ्तार कर लिया जाता, तो दंगे होते ही नहीं। मिश्र ने वह धमकी सैंकड़ों दंगाइयों की उपस्थिति में पुलिस को दी थी और कहा था कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोधियाों को वह जल्द से जल्द हटाए। यदि वैसा नहीं हुआ, तो फिर वही हटाएगा। धमकी की एक समय सीमा भी उसने दी थी और कहा था कि ट्रंप के जाने तक पुलिस अपना काम पूरा करे, नही ंतो वह पूरा करेगा। दिल्ली के उत्तरी पूर्वी जिला के पुलिस कप्तान को आमने सामने वह धमकी दी गई और फिर भी वह चुपचाप सुनता रहा। उसने न तो उस समय उसे गिरफ्तार किया और न ही बाद। उसका नतीजा यह हुआ कि हिंसा फैल गई। दंगा बढ़ता गया और उसकी चपेट में खुद वह डीसीपी भी आ गया। घायल होकर वह मरणासन्न हो गया था, लेकिन गहन चिकित्सा के बाद उसकी जान बच गई।
यदि कपिल मिश्र की गिरफ्तारी हो जाती, तो एक संदेश जाता कि पुलिस उन सभी लोगों के खिलाफ हैं, जो हिंसा करने का इरादा रखते हैं। उसे नहीं पकड़े जाने के कारण दंगाइयों में संदेश गया कि पुलिस उनके साथ है। पहले इस तरह के दंगाई नारा लगाते थे, ‘‘यह अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।’’ कपिल मिश्र के गिरफ्तार न होने से उन्हें लगने लगा कि यह सिर्फ अंदर की बात नहीं है, बल्कि यह खुल्लम खुल्ला तथ्य है कि पुलिस उनके ही साथ है। इसके कारण दंगाइयों के हौसले तो बढ़े ही, बल्कि उनकी संख्या भी बढ़ी और वे अपने कुत्सित कारनामों को अंजाम देने में जुट गए।
‘‘दिल्ली पुलिस जिंदाबाद’’ दंगाइयों का प्रमुख नारा बन गया था। जहां कहीं भी उन्हें पुलिस दिखाई देती, वे दिल्ली पुलिस का नारा लगाते। जहा पुलिस नहीं भी होते, वहां भी वे दिल्ली पुलिस का नारा लगाते, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी गिरोह में शामिल कर सकें। इस तरह के नारे लगाकर वे लोगों को अपनी गिरोह में शामिल करने का आमंत्रण देते थे, ताकि लोग समझंे दंगा करने पर दिल्ली पुलिस से उनको कोई खतरा नहीं है।
वे गलत भी नहीं थे। शुरुआती दिनों में पुलिस ने या तो मूक दर्शक की भूमिका निभाई या उनमें से कुछ दंगाइयों के साथ ही खड़े दिखे। इसके कई विडियो सामने आ चुके हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस के प्रोफेशनलिज्म पर सवाल खड़े किए हैं और कहा कि दिल्ली पुलिस दंगों के दौरान प्रोफेशनल नहीं थी। हाई कोर्ट में तो एक पुलिस अधिकारी कहता है कि विभाग को कपिल मिश्र धमकी के विडियो क बारे में जानकारी ही नहीं है। तक कोर्ट ही पुलिस को विडियो दिखाती है और पूछती है कि वह पुलिस अधिकारी कौन है, जिसको संबोधित करते हुए मिश्र धमकी दे रहा है। हालांकि पुलिस के पक्ष को कोर्ट में पेश करने वाले वकील और पुलिस अधिकारी यह नहीं बताते कि वह पुलिसवाला कोई और नहीं, बल्कि हिंसाग्रस्त उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले का पुलिस कप्तान ही था।
सच तो यह है कि कपिल मिश्र की उस धमकी के पहले से ही दिल्ली पुलिस अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रही है। जेएनयू में छात्रों पर हमले करने वाले नकाबपोशें के चेहरे से नकाब उतर चुके हैं, लेकिन अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। जामिय मिलिया में पुलिस वालों के सामने एक युवक ने लोगों पर गोली चलाई। पुलिस के पास उसे रोकने का पर्याप्त समय था। लेकिन उसने नहीं रोका। कपिल मिश्र के मामले में भी पुलिस ने वही किया और दिल्ली जल उठी। (संवाद)
दिल्ली दंगों से बचा जा सकता था
सिर्फ कपिल मिश्र की गिरफ्तारी काफी थी
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-03-01 06:28
दिल्ली 1984 के बाद के सबसे बडे दंगे के दौर से गुजर रहा है। अब यह शांति की ओर लौट रही है, लेकिन हिंसा फैलाने वाले लोग सोशल मीडिया और मेन स्ट्रीम मीडिया की सहायता से अभी नफरत और घृणा फैलाने की अपनी कोशिश में मशगूल हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 42 लोगों की मौत की खबरें आ चुकी हैं, जिनमें दोनो समुदायों के लोग शामिल हैं। कुछ की तो शिनाख्त तक नहीं हो सकी है। देश की राजधानी दिल्ली की यह हिंसा पूरी दुनिया में भारत की बदनामी का कारण बन रही है और बुद्ध, महावीर और गांधी का यह देश एक हिंसक देश की छवि प्राप्त कर रहा है।