खबर यह है कि महाराष्ट्र में मराठवाडा इलाके के बीड और उस्मानाबाद जिले में बीते तीन साल के दौरान बीस से तीस वर्ष की 4605 महिलाओं को अपने गर्भाशय इसलिए निकलवाना पडे ताकि उन्हें काम मिलने में अडचन न आए। अडचन यह कि वहां गन्ने की कटाई के समय ठेकेदार ऐसी मजदूर महिलाओं को काम पर रखना बेहतर समझते हैं, जिनके गर्भाशय निकाले जा चुके हो, क्योंकि ऐसे मे माहवारी उनके काम में बाधा नहीं बनती। यही नहीं, अगर कोई महिला माहवारी की वजह से काम पर नहीं आती है तो ठेकेदार इसे काम में अडचन मानता है और उस महिला को बतौर जुर्माना पांच सौ रुपए ठेकेदार को देने पडते हैं। ऐसी स्थिति में फंसी महिलाओं के लिए गर्भाशय निकलवाने की मजबूरी आम है।

बीड और उस्मानाबाद जिले से महाराष्ट्र के कई दिग्गज नेताओं का नाता रहा है। सूबे के सबसे कद्दावर नेता और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के मुखिया शरद पवार का भी इस क्षेत्र में काफी असर है। केंद्र और राज्य सरकार में मंत्री रहे भाजपा के दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे का कार्यक्षेत्र भी यही इलाका रहा है। उनकी बेटी पंकजा मुंडे और भतीजे धनंजय मुंडे के निर्वाचन क्षेत्र भी इन्हीं जिलों में हैं। इसके बावजूद गन्ना ठेकेदारों द्वारा कामगार महिलाओं पर किया जाने वाला यह अमानवीय अत्याचार अनदेखा होता रहा। इसकी एक बडी वजह यह भी रही कि इन जिलों में कई रसूखदार नेताओं के शक्कर कारखाने हैं। इसी वजह से श्रम कानूनों को लागू कराने वाला प्रशासनिक अमला सबकुछ जानते-समझते हुए भी खामोश रहा।

मराठवाडा इलाका हमेशा ही सूखे के कारण चर्चा में रहता है और इसी सूखे के चलते गरीबी से त्रस्त परिवारों की महिलाओं को अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए गांव से बाहर जाकर बडे किसानों के खेतों में मजदूरी करनी पडती है। रोजाना काम मिलता रहे और कोई छुट्टी न करनी पडे, इसके लिए ये महिलाएं अपना गर्भाशय निकलवा लेती हैं।

अपनी गरीबी और बेबसी की मार झेलती इन महिलाओं के साथ इस तरह के अमानवीय बर्ताव का मामला करीब एक साल पहले महाराष्ट्र विधान परिषद में शिवसेना की सदस्य नीलम गोरहे ने उठाया था, जिस पर सरकार की ओर से तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एकनाथ शिंदे ने बीड जिले के 99 निजी अस्पतालों में 46०5 महिलाओं के गर्भाशय निकाले जाने की बात स्वीकार करते हुए पूरे मामले की जांच कराने का आश्वासन दिया था। लेकिन मामले की गंभीरता के अनुपात में इस पर जितनी व्यापक चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।

फिर यह मुद्दा चर्चा में तब आया था जब संसद के पिछले वर्षाकालीन सत्र के दौरान राज्यसभा में एनसीपी की वंदना चव्हाण ने इसे उठाते हुए केंद्र सरकार से जांच कराने की मांग की थी। चूंकि मामला शून्यकाल के दौरान उठाया गया था, शायद इसीलिए शून्य में खो गया। जिस वक्त वंदना चव्हाण ने यह मामला सदन में उठाया था, उस वक्त महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी भी सदन में मौजूद थीं। लेकिन अपने मंत्रालय से संबंधित मामलों के अलावा देश-दुनिया के हर मुद्दे पर बोलने वाली स्मृति ईरानी ने न तो तब इस पर कोई प्रतिक्रिया दी थी और न ही बाद में ऐसी कोई खबर आई कि उन्होंने इस बारे में कोई कार्रवाई की है।

पिछले दिनों यह मामला एक बार फिर सुर्खियों में आया, जब महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के ऊर्जा मंत्री और कांग्रेस नेता नितिन राउत ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर इस गंभीर मसले की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया। राउत ने मुख्यमंत्री से दोषी गन्ना ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और गन्ना खेतों में काम करने वाली महिलाओं को कानूनी संरक्षण देने की गुहार लगाई।

बहरहाल यह अपने आप में बेहद गंभीर स्थिति है कि किसी तरह गुजारा करने वाली महिलाओं के सामने वहां गन्ने के खेतों में मजदूरी करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। इसके अलावा वहां के ठेकेदारों को ऐसे अमानवीय नियम-कायदे बनाने से रोकने-टोकने वाला भी कोई नहीं है, जो महिलाओं के सामने ऐसे लाचार हालात पैदा करते हैं। सवाल है कि देश और राज्य में बने श्रम कानूनों के बरक्स कुछ ठेकेदारों को अपनी मनमानी करने की छूट कैसे मिली?

हैरानी की बात यह भी है कि पहले महाराष्ट्र की विधान परिषद में और फिर देश की संसद में उठने के बाद यह मामला मुख्यधारा के मीडिया में अपेक्षित जगह नहीं पा सका। कुछेक अखबारों में जरूर चलताऊ ढंग से जिक्र हो गया मगर पाकिस्तान की बदहाली दिखाने और हिंदू-मुस्लिम खेलने में मगन तमाम खबरिया टीवी चैनलों को तो इस ओर झांकने की फुरसत ही नहीं मिली।

रोजी-रोटी की खातिर और जिंदा रहने के लिए जिन महिलाओं को ठेकेदारों की मनमानी का शिकार होना पडा, उन्हें असंगठित क्षेत्र मे दर्ज किया जाएगा। मगर हालत यह है कि संगठित क्षेत्र में भी रोजगार के लिए महिलाओं को अक्सर कई तरह की दुश्वारियों का सामना करना पडता है। जबकि दुनिया भर में श्रमशक्ति के मामले में महिलाओं का बहुत बडा योगदान है। दुनिया के तमाम देशों में महिलाओं की विशेष शारीरिक स्थिति को मद्देनजर रखते हुए सभी क्षेत्रों की महिला कामगारों के लिए मानवीय दृष्टि से युक्त नियम-कानून बनाए जा रहे हैं। कई जगहों से माहवारी को ध्यान में रखकर उनके लिए सवैतनिक अवकाश के प्रावधान करने की भी खबरें आती हैं, लेकिन हमारे देश में अक्सर उन्हें प्रतिकूल हालात का सामना करना पडता है।

मजदूरी की खातिर गर्भाशय निकलवाने जैसी खबरें भारत को पूरी दुनिया में शर्मसार करती है, भले ही पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल करने का दावा करने वाली हुकूमत और उसके कारिंदों को कोई शर्म न आए। (संवाद)