देखने में वहां की राजनीति बहुत ही सरल दिखाई पड़ती है। 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई है और इसलिए कायदे से इसका जाना तय है। उन इस्तीफों के बाद कांग्रेस विधायकों की सदस्य संख्या 92 रह गई है, जो भाजपा की सदस्य संख्या से बहुत कम है। इसलिए कायदे से सिंधिया समेत भाजपा के दोनों राज्यसभा उम्मीदवारों की जीत भी तय है। यह तो हुई कायदे की बात। लेकिन राजनीति हमेशा कायदे से नहीं चलती। इसके दाव पेंच इतने सीधे नहीं होते। जटिलता राजनीति का अविभाज्य हिस्सा है।

और इस जटिलता ने मध्यप्रदेश में सबकुछ अनिश्चित बना दिया है। सिर्फ निश्चित यही है हुआ है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में हैं। लेकिन उनके उनके सारे 22 समर्थक का इस्तीफा हो ही गया है, यह निश्चित नहीं है। इस्तीफा जबतक स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक इस्तीफा माना भी नहीं जा सकता और इस्तीफा स्वीकार करने का अधिकार विघानसभा के अध्यक्ष प्रजापति को है, जो कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीतकर आए हैं और जो सिंधिया भक्त नहीं हैं।

विधानसभा का कोई सदस्य जब चाहे इस्तीफा दे सकता है, लेकिन इस्तीफा देने की अपनी एक प्रक्रिया भी है, जिसका पालन इस मामले में नहीं किया गया है। आमतौर पर इस्तीफा खुद विधानसभा जाकर स्पीकर से मिलकर दिया जाता है। स्पीकर के उस समय मौजूद नहीं रहने पर विधानसभा के महासचिव या सचिव को भी इस्तीफा दे दिया जाता है। इसके अलावा विधायक अपनी पार्टी के अध्यक्ष या विधानसभा के नेता को भी इस्तीफा लिखकर भेज देता है, जिसे अध्यक्ष या नेता स्पीकर को अग्रसारित कर देता है। लेकिन इस्तीफे का कागज मिल जाने मात्र से स्पीकर का संतुष्ट होना जरूरी नहीं है। यह स्पीकर का अधिकार है कि वह इस्तीफा देने वाले विधायक को बुलाए और आमने सामने बात करके पूछे कि क्या उन्होंने वास्तव में इस्तीफा दे दिया है और कागज पर किया गया दस्तखत उन्हीं का है। स्पीकर पूछ सकते हैं कि क्या वह इस्तीफा बिना किसी दबाव में दिया गया है या उसके पीछे किसी का दबाव है। चाहें, तो स्पीकर उस इस्तीफे पर एक बार फिर से विचार करने के लिए कह सकते हैं। इन सबके बावजूद यदि विधायक अपने इस्तीफे पर अड़ा रहे, तो फिर स्पीकर को उसका इस्तीफा स्वीकार करने के लिए अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचता है।

मौजूदा मामले में उन 22 कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे के कागज को विधानसभा स्पीकर के कार्यालय में भारतीय जनता पार्टी के एक नेता ने पहुंचाया। वे कागज स्पीकर के पास हैं और अब यह स्पीकर का दायित्व है कि यह पता करें कि उन विधायकों ने दबाव में तो उन कागजों पर दस्तखत कर दिये हैं या वे दस्तखत उनका है भी या नहीं। कुछ लोग दावा कर रहे हैं कि उन विधायकों से दस्तखत उनको किसी और और काम के लिए कराए गए थे। उन्हें कहा गया था कि उन्हें यह लिखकर देना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा के कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में समर्थन करते हैं। ऐसा कहकर उनसे कागज पर दस्तखत करवाए गए और फिर उन कागजों को उनका इस्तीफा पत्र बनाकर विधानसभा में पेश कर दिया गया।

इस तरह का संदेह पैदा होने के बाद यह तय है कि स्पीकर उन विधायकों से आमने सामने मिलकर ही पूछेंगे कि क्या उन्होंने वाकई इस्तीफा दे भी दिया है या किसी ने गुमराह करके उनसे सादे कागज पर दस्तखत करवा लिए थे। फिलहाल वे विधायक भोपाल में हैं ही नहीं। वे कर्नाटक में हैं और स्पीकर से मिलने के लिए उन्हें भोपाल आना पड़ेगा। लेकिन वे भोपाल आ भी नहीं रहे। इसके कारण शक पैदा हो गया है कि वास्तव में वे सभी विधानसभा से इस्तीफा देना चाहते भी हैं या नहीं। इसमें कोई दो मत नहीं कि वे सभी के सभी सिंधिया समर्थक हैं, लेकिन क्या वे अपने नेता के साथ कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में जाना चाहेंगे भी या नहीं, यह निश्चित नहीं है।

इसका कारण यह है कि राजनीति में कोई किसी का तभी तक होता है, जबतक उससे उसका स्वार्थ सधता है। और अब तो यह भी दावा किया जा रहा है कि 22 में से 13 विधायक कांग्रेस में ही रहना चाहते हैं। यदि ऐसा हुआ, तो फिर भाजपा और सिंधिया का खेल बिगड़ जाएगा। फिलहाल यह कांग्रेस का दावा है, जो सच भी हो सकता है और गलत भी हो सकता है, लेकिन क्या सच है और क्या गलत यह तो उनके स्पीकर के मिलने के बाद ही तय होगा।

18 मार्च से विधानसभा का सत्र शुरू होगा और उसमें सरकार के खिलाफ अविश्वास मत लाया जाएगा या सरकार से कहा जाएगा कि वह विश्वासमत पेश करें, लेकिन सरकार का कहना है कि पहले उन विधायकों के इस्तीफे का मामला समाप्त हो। लेकिन यदि वे विधायक स्पीकर से मिलें ही नहीं, तो क्या होगा? जाहिर है, उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं होगा और तो फिर विश्वास मत या अविश्वास मत पर मतदान कैसे होगा। बीच में न्यायालय की भूमिका भी आ जाएगी। विधानसभा की ओर से कोर्ट में हैबिएस काॅरपस( बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका भी पेश की जा सकती है। राज्यपाल की भूमिका और भी जटिलता को बढ़ा सकती है। कहने का मतलब कि मध्यप्रदेश के राजनैतिक संकट का अंत इतना सरल नहीं है, जितना समझा जा रहा है। (संवाद)