Fri 20 of Jul, 2007

वैसे इस बार का राष्ट्रपति चुनाव शुरू से ही विवादास्पद रहा। पहले तो इस बात पर सत्ता पक्ष में मगजमारी होती रही कि किस व्यक्ति को वे इस पद के लिए अपना उम्मीदवार बनायें। अंत-अंत तक किसी भी नाम पर जब रजामंदी नहीं हुई तब जाकर प्रतिभा पाटिल का नाम सामने आया और सत्ता पक्ष उनके नाम पर सहमत हो गया। उनकी उम्मीदवारी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय तक में मामला उठाया गया। उनपर अनेक तरह के आरोप भी लगाये गये, जिनमें दीवानी और फौजदारी के आरोप भी शामिल रहे। लेकिन अंतत: किसी की नहीं चली और वह सत्ता पक्ष की ताकत के बल पर चुनाव मैदान में डटी रहीं। उधर विपक्ष समर्थित उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत भी चुनाव मैदान में डटे रहे।
इस क्रम में अनेक सवाल उभरे, विशेषकर देश में कानून बनाने वाले राष्ट्रपति चुनाव के मतदाताओं को लेकर। देश के आम मतदाताओं से ये सांसद और विधायक या इनके चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार कहते हैं कि लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए जनता अवश्य मतदान करे और यह जनता का मौलिक कर्तव्य भी है।
लेकिन यही सांसद और विधायक जब अपनी बारी आयी तो पूरी तरह बिखरे नजर आये। संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन, जिसे एक तरह से तीसरे मोर्चे की संज्ञा दी जा सकती है, और जिसमें भाजपा तथा कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं, ने निर्णय किया कि वे राष्ट्रपति चुनाव में भाग नहीं लेंगे। उनसे पूछा जा सकता है कि क्या मतदान में भाग नहीं लेने से लोकतंत्र मजबूत होता है? फिर वे जनता से किस मुंह से कहेंगे कि सभी मतदाता वोट डालें ?
देश में होने वाले सभी चुनावों में हम आम जनता के कुछ हिस्सों के भाग नहीं लेने या चुनाव का बहिष्कार करने की घटनाएं देखते – सुनते आये हैं। इसे हमारे राजनीतिक चिंतक लोकतंत्र के लिए चिंताजनक भी मानते हैं और कहते हैं कि राजनीति में बेहतर बदलाव लाने के मार्ग में यह भी एक बाधा है। चिंतकों का कहना है कि मतदाताओं को वोट डालने के अपने मौलिक कर्तव्य का पालन करते हुए उस उम्मीदवार के पक्ष में अवश्य मतदान करना चाहिए जिसे वे सर्वाधिक उपयुक्त समझते हों। मतदान न करना तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं है।
अब आयें मुद्दों के सवाल पर। इस गठबंधन में चूंकि सभी राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस और भाजपा विरोधी हैं, इसलिए उन्होंने निर्णय किया कि दोनों से समान दूरी रखते हुए वे किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान नहीं करेंगे। लेकिन ऐसा करते वक्त वे भूल गये कि मतदान न करना भी कांग्रेस के उम्मीदवार के पक्ष में था। यदि उन्हें कांग्रेस के उम्मीदवार की ही मदद करनी थी तो खुलकर वोट डालने में हर्ज ही क्या हो जाता ? कम से कम वे अपने वोट डालने के मौलिक कर्तव्य का तो निर्वाह करते !
यदि कानूनी तौर पर देखा जाये तो राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव पार्टी टिकटों पर नहीं होता। सभी उम्मीदवार निर्दलीय होते हैं। लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये उम्मीदवार पार्टियों के समर्थन पर ही खड़े होते हैं, और इक्के दुक्के मामलों में सांसदों या विधायकों के प्रस्ताव के आधार पर। इसलिए तीसरे मोर्चे के नेता कह सकते हैं कि वे अपने विरोधी पार्टियों के उम्मीदवारों के पक्ष में वे मतदान क्यों करते ? बात सही है, लेकिन तब उन्हें चाहिए था कि वे अपने पसंद के उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में उतारते चाहे उनकी हार ही क्यों नहीं हो जाती। आखिर लोकतंत्र में वे अपनी बात तो रखते !
लेकिन इस मतदान में अच्छी बात यह हुई कि तीसरे मोर्चे के इस तरह के निर्णय को, जिसमें मौलिक कर्तव्य का पालन नहीं करने की बात की गयी थी, कुछ घटक दलों के मतदाताओं ने नहीं माना। असम गण परिषद के विधायकों और सांसदों ने मतदान किया और यहां तक कि समाजवादी पार्टी के कुछ मतदाताओं ने भी मतदान में भाग लिया। अन्नाद्रमुक ने तो इस निर्णय को नहीं मानने का ही निर्णय किया और मतदान में भाग लिया। उधर तेदेपा और सपा के भी अनेक मतदादाओं ने बिना पार्टी आदेश के अपने विवेक से काम लिया। जिसे लगा कि मतदान करना चाहिए उन्होंने किया, हालांकि उनकी संख्या काफी कम रही।
उधर गुजरात का हाल देखिये। वहां भाजपा का शासन है और नरेन्द्र मोदी मुख्य मंत्री हैं। लगभग एक दर्जन से ज्यादा विधायक मुख्य मंत्री के कार्य करने के तौर तरीकों से नाराज हैं और इसलिए उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल के पक्ष में विरोध स्वरुप मतदान किया। इसे मानसिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है। यदि वे विवेक के आधार पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के पक्ष या विपक्ष में मतदान करते तो बेहतर होता। आखिर नरेन्द्र मोदी से इन उम्मीदवारों का क्या लेना देना ? इसे कहते हैं खेत खाये गदहा और मार खाये जुलाहा।
कई अन्य सांसद और विधायक भी ऐसे रहे जिन्होंने मतदान में भाग नहीं लेना ही बेहतर समझा। अभी यह कहना संभव नहीं है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। लेकिन विशेष रुप से आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) पर सभी का ध्यान गया जिसके मतदाताओं ने वोट नहीं डाले। इस पार्टी का हैदराबाद से एक सासद लोक सभा में प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी पार्टी के आंध्र प्रदेश के पांच विधायकों के भी मतदान में भाग न लेने की खबर है। इस पार्टी के नेताओं से भी उनकी मंशा पूछी जानी चाहिए और जनता को उसपर विचार भी करना चाहिए।
कुल मिलाकर राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में सांसदों और विधायकों ने उम्मीदवारों के गुण दोष के आधार पर मतदान नहीं किया। मतदाताओं ने अपने विवेक के आधार पर भी मतदान कम ही किया। पार्टी आलाकमानों के हुक्म के आधार पर ही ज्यादातर ने मतदान किया चाहे आलाकमानों के उम्मीदवार कैसे भी क्यों न हों। क्या लोकतंत्र की परिकल्पना यही है ?
हमारे सांसद और विधायक लोकतंत्र की बातें तो बहुत करते हैं परंतु राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया में शुरु से अंत तक उनके व्यवहार में लोकतांत्रिक झलक गायब थी। सभी लकीर के फकीर की तरह यंत्रवत संचालित नजर आये। इसमें भारत के सर्वोच्च पद के लिए उम्मीदवारों के गुण दोष पर विचारण करने की फुरसत किसे थी ! यदि लोकतंत्र में उम्मीदवारों के गुण दोष पर विचारण न कर अन्य कारणों से नेता का चयन हो तो वैसे लोकतंत्र से क्या उम्मीद की जा सकती है ?#