लोकतंत्रिक मूल्य आधारित सभ्य नागरिक समाज, क्रूर, रूढ़ कबीलाई मानस के इन सामंतांे के भीड़ न्याय से तार-तार हो जाएगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, गरीबी, भूख, आश्रय, सूदखोरी, आत्महत्याओं, हत्याओं, लूटपाट, भ्रष्टाचार जैसे मूल मुद्दों पर कभी ऐसी एकजुटता और दृढ़ता इन पंचायतों में नहीं देखी जाती है। कानून और व्यवस्था अपने मनमाने फैसलों की जद में लपटने की कामना रखने वाले ऐसे वैचारिक प्रवाह को तोड़ना और बदलना जरूरी है।

समाज और कानून में विरोध के बजाय समाज के लिए कानून का भार प्रमुख होना चाहिए। परंपरा और रीति रिवाजों में फंसेंगे तो वापस जंगली जीवन में पहुंच जाएंगें। आदमी ने जिंदगी में समय और परिस्थितियों के अनुरूप सुधार की समझ रखी है तभी हम उतरोत्तर सभ्य होने की दिशा में बढ़ रहे हैं, प्रचीन पंरपराओं का हवाला देने वाले किस स्तर पर जाकर रूकेंगे? क्योंकि हमेशा परिवर्तन होते रहे हैं। यदि हम ध्यान से अध्ययन करें तो बहुत सारे तौर तरीके कोई भी अपनाना नहीं चाहेगा। सगोत्रीय विवाह ठीक नहीं है। ठीक है, मगर इस आधार पर हत्या तो बेहद पाश्विक निर्णय है।

समाज के सुधीजन-विद्वजन, सामाजिक परिस्थितियों, समय व जरूरत के हिसाब से जीवन बेहतर तरीके से गुजारने की कला में सुधार हेतु संशोधन करते रहे हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि पुराने तरीके पर चलने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाए या नए संशोधित मार्ग पर चलने वाले को ही खत्म कर दिया जाए। कई बार संशोधन भी तत्काल स्वीकार नहीं होते लेकिन परिस्थितियां समाज को नए बेहतर रास्ते पर चलने को प्रोत्साहित करती हैं। फिर एक नई पंरपरा बन जाती है। अगर कुछ गड़बड़ लगता है या उससे समाज को नुकसान हो सकता है तोे विचार विमर्श से उसमें संशोधन होना चाहिए या तुगलकी फरमान जारी होना चाहिए?

एक व्यक्तिगत दृष्टांत है, जिसका वर्णन करके मैं इस परिदृश्य को प्रस्तुत करना चाहूंगा। एक करीबी रिश्तेदार की मृत्यु पश्चात बिजली दहन चिता के इस्तेमाल पर घर में बहस छिड़ी करीब 500 मील दूर से आए एक रिश्तेदार ने एकदम से पंरपराओं का हवाला देते हुए लकड़ी के इस्तेमाल की जंग सी छेड़ दी। मेरी हार्दिक इच्छा हो रही थी कि उनसे पूछंु, आप अपने घर से चलकर बैलगाड़ी पर क्यों नहीं आए? क्योंकि उस काम में पुरातनपंथी हाने के बजाय मारुति कार का इस्तेमाल करने में उन्हें ज्यादा शान नजर आ रही थी ।

कहने का मतलब यह कि समय विशेष में बनी पंरपराएं व नियम में संशोधन समयानुसार होते ही रहना चाहिए। वरना यह कब ठहरे हुए पानी की तरह सड़ने लगेंगे। समाज को आगे चलना है या पीछे जाना है। निश्चित रूप से घुट्टी में पड़े आग्रह-पूर्वाग्रहो से पीछा छुड़ाना मुश्किल होता है। वैसे भी नई उम्र की उठान के दौरान ही थोड़ा बहुत नयापन लोग स्वीकार कर पाते हैं। एक उम्र के बाद तो बदलाव से ही घबराने लगते हैं। ऐसी स्थिति में वह अपने आपको और रूढ़ सख्त व जकड़ा हुआ बना लेते हैं। जो भी समाज ऐसा करता है, वह अपनी प्रगति पर एक तरह से रोक लगा लेता है। ऐसे मामलों में मूलतः कठमुल्लापन हावी हो जाता है।

वैसे भी परिवर्तन संसार का नियम है आदमी भी हमेशा नयापन ढूंढता रहता है ऐसे में खुद को जकड़-बांधकर रखना खास मायने नहीं रखता है। अभी ही हम अपने आस-पास थोड़ा दूर देखंे तो हर परिवार, जाति, वर्ग, समूह, धर्म व समाज में भिन्नताएं बेशुमार नजर आएंगी कहीं भी बिल्कुल एक समान तौर तरीके दो वर्गों में नहीं नजर आते हैं। इनके बावजूद जाने कौन सा भाव या अस्मिता की पहचान का भय सब पर तारी है।

हमारे एक ऐसे ही मित्र ने मुस्लिम समाज में शरीयत को लेकर अपनाए जा रहे कठोर रूख की बात कही। उनके विचारों का सच यह है कि शरीयत में भी सामाजिक व्यवहार पर संशोधन हो रहे हैं, अलग-अलग मुस्लिम फिरके अलग-अलग संशोधनों से बेहतर जीवन पद्धति अपना रहे हैं। हां, वहां यह प्रक्रिया कुछ धीमी है, फिर भी पहले की सजा वगैरह के प्रावधानों से तो खुद मुस्लिम समाज असहमत है और उस पर अमल भी नहीं होता है।

इसका कतई मतलब नहीं कि जातिगत खाप प्रशासनिक व कानून मामलों में जघन्य किस्म के फैसले को उचित ठहराएं। बच्चों ने शादी कर ली तो उन्हें मार डालना किसी भी बाप की ख्वाहिश नहीं हो सकती है। ऐसा करना इंसानियत के खिलाफ है। हमें दूसरा महाभारत नहीं चाहिए। सभ्य समाज को उठ खड़ा होना पडे़गा। पूरे जोर के साथ इसका विरोध करना ही पड़ेगा।