कांग्रेस का यह संकट 2014 के चुनाव में उसकी ऐतिहासिक हार के बाद से ही बना हुआ है। उस लोकसभा चुनाव के बाद सोनिया गांधी ने अपनी खराब सेहत की वजह से अध्यक्ष पद छोड दिया था और पार्टी की कमान राहुल गांधी ने संभाल ली थी। राहुल ने भी 2019 के चुनाव में मिली करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। इस्तीफा देते वक्त राहुल ने कहा था कि नया अध्यक्ष उनके परिवार में से नहीं होगा। करीब ढाई महीने की मशक्कत के बाद भी जब पार्टी गांधी परिवार के बाहर के किसी नेता को नया अध्यक्ष नहीं चुन पाई तो उसने सोनिया गांधी से ही नेतृत्व संभालने की गुहार की। तय हुआ कि एक साल के भीतर पार्टी अपना नया अध्यक्ष चुन लेगी और तब तक सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर पार्टी की कमान संभालेंगी।

पिछले कुछ दिनों से जैसे-जैसे अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया का कार्यकाल पूरा होने को आ रहा था, वैसे-वैसे पार्टी में नया पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनने के लिए आवाजें उठने लगी थीं। इसी सिलसिले में पार्टी के 23 वरिष्ठ नेताओं की ओरे से पिछले दिनों एक बडी पहल हुई थी। इन नेताओं ने पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष को एक पत्र लिखकर अपनी बेचौनी का इजहार करते हुए जल्द से जल्द पूर्णकालिक अध्यक्ष चुने जाने की मांग की थी। इसी मसले पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में लंबे विचार-विमर्श और आरोप-प्रत्यारोप के बाद यह तय हुआ कि आगामी छह महीने तक सोनिया गांधी ही अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर पार्टी का नेतृत्व करती रहेंगी और इस दौरान पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाकर उसमें नया अध्यक्ष चुना जाएगा।

पार्टी का नया अध्यक्ष गांधी परिवार से ही कोई होगा फिर कोई अन्य नेता, इस बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं गया, लेकिन कार्यसमिति की बैठक में जिस तरह सभी नेताओं ने अध्यक्ष पद के लिए अपनी पहली पसंद फिर से राहुल को ही बताया, उससे यह तो साबित हो गया कि पार्टी अभी नेतृत्व के सवाल पर गांधी परिवार के बाहर किसी के नाम पर विचार करने को तैयार नहीं है। इसलिए यह लगभग तय है कि राहुल गांधी ही पार्टी के अगले अध्यक्ष होंगे और कांग्रेस अधिवेशन में उनके नाम पर मुहर लगाई जाएगी।

दरअसल कांग्रेस को अगर गांधी परिवार के बाहर के ही किसी नेता को अध्यक्ष चुनना होता तो वह यह काम उसी समय कर लेती जब पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफा दिया था। हालांकि कुछ नेताओं ने ऐसा करने की कोशिश की भी थी, लेकिन किसी भी नाम पर सहमति नहीं बन पाई थी और सभी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि अगर गांधी परिवार के बाहर से किसी नेता को अध्यक्ष बनाया गया तो पार्टी बिखर जाएगी।

कहा जा सकता है गांधी परिवार कांग्रेस की मजबूरी है भी और कांग्रेस के लिए जरूरी भी। इसीलिए सोनिया गांधी के लगातार 19 साल पार्टी अध्यक्ष बने रहने के बाद राहुल गांधी को पार्टी की बागडोर सौपी गई थी। करीब डेढ साल अध्यक्ष रहने के बाद राहुल ने जब इस्तीफा दिया तो फिर सोनिया गांधी को ही एक साल के लिए अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया और अब एक साल बाद छह महीने के लिए उनका कार्यकाल फिर बढा दिया गया।

नेहरू-गांधी परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता के लिए राजनीतिक हलकों और मीडिया में अक्सर उसका मजाक भी उडाया जाता है। लेकिन हकीकत यही है कि नेहरू गांधी परिवार ही कांग्रेस की असली ताकत और वह तत्व है जो पार्टी को जोडे रख सकता है। यह स्थिति ठीक वैसी है जैसे भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच नाभि-नाल का रिश्ता है। अगर भाजपा से संघ को अलग कर दिया जाए तो भाजपा के वजूद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भाजपा किस हद तक संघ पर आश्रित है या संघ का भाजपा में कितना दखल है, इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। वैसे भी अनौपचारिक तौर तो भाजपा को संघ की राजनीतिक शाखा ही माना जाता है।

इस सिलसिले में भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष की स्थिति को भी देखा जा सकता है। कहने को जेपी नड्डा पार्टी के अध्यक्ष बना दिए गए हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर पार्टी वैसे ही चल रही है जैसे अमित शाह के अध्यक्ष रहते चल रही थी। पार्टी का प्रचार करने, चुनाव लडने और संगठन चलाने का तरीका आदि सब कुछ वैसा चल रहा है, जैसा अमित शाह के अध्यक्ष रहते चलता था। विपक्ष शासित राज्य सरकारों को गिराने या विधायकों को तोडने आदि का काम भी पहले की तरह जारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अध्यक्ष की कुर्सी पर अमित शाह की जगह जेपी नड्डा बैठे हैं, जो अध्यक्ष बनने के एक साल बाद भी अपनी पसंद के पदाधिकारियों की नियुक्ति नहीं कर पाए हैं। कांग्रेस में भी कमाबेश यही स्थिति रहना है, भले ही अध्यक्ष कोई भी बन जाए।

भाजपा और कांग्रेस की स्थिति में फर्क इतना ही है कि भाजपा और उसका पूर्व संस्करण जनसंघ शुरू से ही संघ की ताकत पर निर्भर रहा है, जबकि कांग्रेस की नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भरता का दौर जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु और इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू हुआ।

आजादी के बाद से अब तक कुल 18 कांग्रेस अध्यक्ष हुए हैं, उनमें सिर्फ पांच ही नेहरू-गांधी परिवार के हुए हैं बाकी 13 अध्यक्ष इस परिवार के बाहर से बने हैं। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक जितने भी कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू परिवार से इतर बने वे सभी स्वाधीनता संग्राम के चमकते सितारे और करीब-करीब नेहरू के समकालीन थे। उन सभी ने अध्यक्ष के तौर पर स्वतंत्र रूप से काम किया और नेहरू ने भी कभी उनके काम में अनावश्यक दखलंदाजी नहीं की। लेकिन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थिति बदल गई। जगजीवन राम, शंकरदयाल शर्मा और देवकांत बरुआ पार्टी के अध्यक्ष जरुर रहे लेकिन पार्टी में होता कमोबेश वही था, जो इंदिरा गांधी चाहती थीं। 1978 में कांग्रेस के विभाजन के बाद तो उन्होंने खुद ही पार्टी का नेतृत्व संभाला अपने जीवन के अंतिम समय तक वे ही अध्यक्ष रहीं। उनकी मृत्यु के बाद पार्टी की कमान राजीव गांधी के हाथों में आई। वे भी 1985 से 1991 तक मृत्युपर्यंत पार्टी के अध्यक्ष रहे।

राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिंह राव ने पार्टी की कमान संभाली। लंबे अरसे बाद कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष मिला, जो न सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का था बल्कि उस परिवार की छाया से भी मुक्त था। नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री रहते हुए पार्टी को भी अपनी तरह से चलाया। वे पांच साल तक अध्यक्ष रहे। उनके बाद अध्यक्ष बने सीताराम केसरी यद्यपि दो साल से भी कम समय तक ही पद पर रह सके लेकिन उन्होंने भी अपनी मर्जी के मुताबिक पार्टी को चलाया। उनके बाद सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली और वे पूरे 19 वर्षो तक लगातार पार्टी अध्यक्ष रहीं, जो कि कांग्रेस के 134 वर्षों में एक रिकॉर्ड है।

बहरहाल, यह लगभग तय है कि राहुल गांधी ही फिर से कांग्रेस की बागडोर संभालेंगे। अगर किसी कारण से ऐसा नहीं भी होता है और गांधी परिवार के बाहर का कोई नेता अध्यक्ष बनता है तो वह भी गांधी परिवार की छाया से बाहर रह कर काम नहीं करेगा। यानी परोक्ष रूप से पार्टी पर नियंत्रण तो राहुल गांधी का ही रहेगा। यह भी संभव है कि राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बन जाए और किसी वरिष्ठ नेता को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया जाए, जैसे राजीव गांधी ने अपने समय में पहले कमलापति त्रिपाठी को और फिर बाद में उमाशंकर दीक्षित को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। हालांकि उन दोनों ही बुजुर्ग नेताओं की स्थिति शो पीस से ज्यादा नहीं थी। इसलिए कहा जा सकता है कि अभी भी चाहे जैसी व्यवस्था हो जाए, पार्टी का नियंता तो गांधी परिवार ही रहेगा। (संवाद)