चार जाति आधारित पार्टियां हैं- रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी, जीतनराम मांझी का हिन्दुस्तान आवामी मोर्चा, उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समाज पार्टी और मुकेश सहनी की वीआईपी। इनमें सबसे पुरानी पार्टी रामविलास पासवान की है और वे इनमें से सबसे ज्यादा पुराने नेता भी हैं। जनता दल से अलग होकर जब से उन्होंने अपनी पार्टी बनाई है, वे पहले चुनाव को छोड़कर सभी में सौदेबाजी करते हैं। मुख्य गठबंधन के मुख्य पार्टनर से ज्यादा से ज्यादा सीटें पाते हैं और उनमें से कुछ अपने कार्यकर्त्ताओं को, कुछ रिश्तेदारो को देते हैं और शेष को बेच देते है। समझौता करते समय वे ध्यान रखते हैं कि जिस मुख्य पार्टी के पक्ष में हवा चल रही हो, उसी से गठबंधन करें और संभव नहीं हो, तो दूसरे पक्ष से गठबंधन कर लें, पर वे अकेले चुनाव में नहीं जाते, क्योंकि तब उनकी पोल खुल जाएगी।
इस बार ज्यादा से ज्यादा टिकट पाने के लिए उनके बेटे ने नीतीश पर ही हमला बोल दिया, लेकिन यह खेल उलटा पड़ गया। अब उनसे टिकट बंटवारे को लेकर कोई बात नहीं कर रहा है। नीतीश कुमार का दल कह चुका है कि उनकी पासवान की पार्टी से गठबंधन करने में रुचि नहीं और यदि भाजपा चाहती है, तो अपने कोटे से उन्हें सीटें दे दे, उन्हें इस पर कोई आपत्ति नहीं। पासवान के बेटे ने राजद कार्ड भी खेला कि उधर उन्हें ज्यादा सीटें मिल रही हैं और उपमुख्यमंत्री पद का ऑफर भी, लेकिन राजद ने कह दिया कि उनसे कोई बात नहीं चल रही है। जबतक उनके पिता मोदी सरकार मे मंत्री हैं, तबतक कोई बात चल भी नहीं सकती। लिहाजा, पासवान पार्टी को समझ में नहीं आ रहा है कि वह करे, तो क्या करे। अकेले चुनाव लड़ नहीं सकते। मोदी मंत्रिमंडल को छोड़ नहीं सकते। इसलिए भाजपा द्वारा दिए गए सीटों पर लड़ने या चुनाव ही नहीं लड़ने का उनके पास दो विकल्प है।
एक और दलित नेता हैं जीतनराम मांझी। उन्होंने अपनी जाति के बल पर एक पार्टी बना रखी है। उनकी सौदेबाजी की ताकत बहुत कमजोर है, क्योकि उनकी जाति की आबादी भी बहुत कम है। उन्हें लगा कि राजद उनको सीटें नहीं देगा, तो वे नीतीश के पाले में चले गए। अब नीतीश अपने हिस्से से जितनी सीटें देंगे, उन्हीं पर लड़ पाएंगे और यदि नीतीश ने कह दिया कि अपने उम्मीदवारों को जदयू के चुनाव चिन्ह पर ही लड़ाओ, तो वह भी उनको करना पड़ेगा।
दो दलित नेताओं के अलावा दो ओबीसी जातियों के नेताओं ने भी अपनी अपनी पार्टी बना रखी है। उपेन्द्र कुशवाहा ने अपनी एक कुशवाहा पार्टी बना रखी है। अकेले चुनाव लड़ने का भी उनका अनुभव है, लेकिन तब उनका एक भी उम्मीदवार कभी नहीं जीता था। नीतीश की कृपा से वे एक राज्यसभा का सदस्य भी बने, लेकिन वे नीतीश के दल के उम्मीदवार के रूप में। एक बार नरेन्द्र मोदी का साथ लेकर वे लोकसभा के सांसद भी बन गए हैं और केन्द्र में एक जूनियर मंत्री भी। उन्हें भी पता है कि यदि अकेले लड़ें, तो उनकी पार्टी का कोई भविष्य नहीं है। उनकी जाति वालों की आबादी बिहार की कुल आबादी का 5 प्रतिशत है और उनका एक चौथाई भी उनके साथ नहीं। वे अपनी ताकत से अपनी जाति के वोटों को अपनी सहयोगी पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में ट्रांस्फर भी नहीं करवा सकते, लेकिन जाति संख्या के बल पर वे बीजेपी से गठबंधन में दो बार टिकट भी ले चुके हैं। 2015 की विधानसभा चुनाव में तो वे बुरी तरह पिट गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुत जोर लगाकर उन्होंने राजद से टिकट हासिल किए। दो पर तो खुद लड़ गए और एक टिकट कांग्रेसी दोस्त के बेटे को दे दिया। उनके सभी उम्मीदवार चुनाव हार भी गए।
कुशवाहा पार्टी की समस्या है कि उनसे टिकट बंटवारे को लेकर कोई बात नहीं कर रहा। राजद के नेता लालू यादव को अहसास हो गया है कि कुशवाहा वोट उपेन्द्र कुशवाहा के साथ नहीं है। उन्हें यह भी पता है कि कुशवाहों का वोट नीतीश कुमार के पक्ष में ज्यादातर जाता है, इसलिए वे उपेन्द्र कुशवाहा को घास नहीं डाल रहे। यही हाल मुकेश सहनी का भी है। उन्होंने अपने आपको निषादों का नेता घोषित कर रखा है, लेकिन निषाद उनके नाम पर कितना वोट देते हैं, यह लालू यादव ने पिछले चुनाव में देख लिया है। इसलिए इसबार मुकेश की भ्ी पूछ नहीं हो रही है।
अब तो राजद नेताओं ने कहना भी शुरू कर दिया है कि उनका सिर्फ कांग्रेस और वाम पार्टियों से ही गठबंधन होगा। वे कुशवाहा और निषाद पार्टी को अपने खिलाफ बोलने का मौका नहीं देना चाहते, इसलिए कुछ सीटें दोनों के लिए छोड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन कितनी और कौन सीटें निषाद और कुशवाहा पार्टियों के लिए छोड़ें, इसका फैसला एकतरफा होगा। अब यदि दोनों को राजद का एकतरफा फैसला पसंद आया, तो वे राजद गठबंधन में रह सकते हैं, अन्यथा उन्हें अपना अलग रास्ता तय करने के लिए कह दिया गया है। लगता है जीतन राम मांझी को इस बात का अहसास हो गया था, इसलिए उन्होंने समय रहते नीतीश कुमार का दामन थाम लिया। उनकी वह दुर्गति नहीं हो रही है, जो पासवान, निषाद और कुशवाहा पार्टियों की हो रही हैं। उन्होने नीतीश की छाया में अपने को सुरक्षित कर लिया है, लेकिन अन्य तीन जातीय पार्टियों के दिन लदते दिखाई दे रहे हैं। (संवाद)
बिहार विधानसभा चुनाव: तीन जातिवादी नेता पड़े हैं सांसत में
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-09-23 10:07
इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में एक दिलचस्प बात देखने को आ रही है और वह है गठबंधन के दौर में जाति आधारित पार्टियों की पूछ का कम हो जाना। बिहार में चार पार्टियां ऐसी हैं, जिनका आधार उनके नेता की जाति है। वे नेता अपनी जाति का आंकड़ा बताकर और उसके एकछत्र नेता का दावा करते हुए गठबंधन में अपनी पार्टी के नाम पर ज्यादा से ज्यादा टिकट मुख्य दलों से ले लेते हैं और उनमें से कुछ सीटें बेचकर मालामाल भी हो जाते हैं। इस बार जब चुनाव नजदीक आया, तो इन पार्टियों ने भी अपना दबाव बढ़ा दिया और अपने लिए ज्यादा सीटों की माग करने लगे। लेकिन इस बार उन्हें महत्व नहीं दिया जा रहा है, इसलिए वे परेशान हैं।