कोरोना का संक्रमण अपनी जगह है और इसका खौफ भी अपनी जगह, लेकिन बिहार के मतदाताओं में केन्द्र की मोदी सरकार और बिहार की नीतीश सरकार के खिलाफ जबर्दस्त असंतोष है। दोनों सरकारो ने जिस तरह से कोरोना संकट को हैंडिल किया, उससे प्रदेश के लोगों में नाराजगी है। कुछ लोग विस्थापित मजदूरों के साथ केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा किए गए बर्ताव से नाराज हैं। कुछ इस बात से नाराज है कि कोरोना को बहुत बड़ा संकट बताकर आर्थिक गतिविधियों को बेकार ही ठप किया गया। उनका मानना है कि यह उतना बड़ा संकट नहीं था, जितना प्रचारित किया गया। आर्थिक गतिविधियों के ठप होने के कारण भारी बेरोजगारी हो गई है और उसके लिए मोदी और नीतीश को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।
निजीकरण के कारण भी मोदी से भारी नाराजगी है। बिहार के लोगों के लिए सरकारी नौकरी अपनी हैसियत बदलने या बढ़ाने का एक बड़ा माध्यम है और सरकारी नौकरियों में होने वाली कमी एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। रेलवे का हो रहा निजीकरण लोगों को खासकर के खल रहा है। लाखों अभ्यर्थियों ने रेलवे की नौकरियों के लिए आवेदन कर रखे हैं। आवेदन शुल्क के रूप में उन्होंने अपने पैसे भी लगा रखे हैं। इसलिए जब रेल स्टेशनों और रेलगाड़ियों के निजीकरण की बात सामने आई, तो सबसे ज्यादा विरोध बिहार के युवाओं ने ही किया। वे लाखो अभ्यर्थी और उनके परिवारों के बीच नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा है।
उधर बिहार के शिक्षक नीतीश कुमार से नाराज हैं। शिक्षा मित्र अपनी सेवाओं का नियमितीकरण चाहते थे, लेकिन उनकी मांग पूरी नहीं हुई। वे सुप्रीम कोर्ट में भी हार गए हैं। इसके लिए वे नीतीश कुमार से नाराज हैं। जो नियमित शिक्षक भी हैं, वे भी इस घोषणा से डरे हुए हैं कि 50 साल के बाद उनके काम की समीक्षा की जाएगी और समीक्षा असंतोषजनक पाए जाने पर उन्हें रिटायर कर दिया जाएगा। एक बड़ी फौज वित रहित कॉलेजों में पढ़ा रहे शिक्षकों की भी है। उन्हें मामूल वेतन मिलता था। उनमें ज्यादातर ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करते थे। कोरोनाबंदी ने उनके ट्यूशन के पेशे को बंद कर दिया, क्योंकि ट्यूशन पढ़ने वाले छात्रों के परिवारों की आय समाप्त या कम हो गई। उसके अलावे उन्हें राज्य सरकार से जो थोड़ा बहुत मानदेय मिलता था, वह भी नीतीश कुमार ने अभी बंद करवा रखा है।
बिहार में नीतीश से नाराज शिक्षकों की संख्या करीब 20 लाख होगी। यदि उनपर निर्भर रहने वाले परिवार में औसतन तीन मतदाता भी मान लें, तो कुल संख्या 60 लाख हो जाएगी। यह उठना स्वाभाविक है कि क्या उनकी नीतीश से नाराजगी चुनाव में रंग दिखाएगी या मतदान देने के दिन फिर वे जाति आधार पर मतदान करेंगे? गौरतलब हो कि बिहार की जाति राजनीति इस समय नीतीश कुमार और भाजपा के अनुकूल है। उसके कारण ही दोनों का गठबंधन जबर्दस्त तरीके से चुनाव जीत जाता है। 2010 के विधानसभा चुनाव में इस गठबंधन ने 243 में 200 से भी ज्यादा सीटों पर चुनाव में जीत हासिल की थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इसी कारण से इस गठबंधन को 40 में से 39 लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्ह हुई थी।
जिस तरह का असंतोष लोगों मोदी और नीतीश के खिलाफ व्याप्त है, उसे देखते हुए कोई भी राजनैतिक पर्यवेक्षक प्रमुख विपक्षी दल या मोर्चे की जीत की भविष्यवाणी करना चाहेगा, लेकिन इस तरह की भविष्यवाणी करना भी आसान नहीं है। यदि लालू यादव जेल से बाहर रहते और वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार होते, तब यह शायद संभव हो जाता, लेकिन वे न तो चुनाव लड़ सकते और न ही जेल में होने के कारण अपनी पार्टी का प्रचार कर सकते। इसका जिम्मा उनके बेटे पर है, लेकिन बेटे में वह राजनैतिक प्रौढ़ता नहीं आई है कि वे मोदी-नीतीश के खिलाफ लोगों में व्याप्त जन असंतोष को अपने पक्ष में बदल सकें।
तेजस्वी गठबंधन को अंतिम रूप देने में ही अभी तक मशगूल हैं। गठबंधन तो बन जाएगा, लेकिन गठबंधन का मुख्यमंत्री चेहरा कौन होगा, इसको लेकर गैर राजद पार्टियां एक मत नहीं हैं। लेकिन यह बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, असली मुद्दा चुनाव के लिए सही उम्मीदवारों का चयन है। अभी से राजनैतिक क्षेत्रों में यह चर्चा तेज हो गई है कि तेजस्वी पैसे लेकर टिकट बांट रहे हैं। इस तरह की चर्चा पार्टी को कमजोर ही करती है। उत्तर प्रदेश में मायावती के पतन के पीछे टिकटों को बेचना ही है। लालू यादव पर इस तरह का आरोप पहले कभी नहीं लगा, लेकिन अब ऐसा आरोप उनपर भी लग रहे हैं।
नीतीश सरकार के खिलाफ असंतोष को यदि अपने पक्ष में तेजस्वी नहीं भुना पाए, तो इतना तय है कि इस बार छोटी पार्टियों से अनेक विधायक जीतकर आ सकते हैं और निर्दलीयों की संख्या भी बढ़ सकती है। टिकट नहीं मिलने वाले विक्षुब्ध भी अधिक संख्या में इस बार जीतकर आ सकते हैं। अगर किसी मोर्चे का बहुमत आ गया, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि विधानसभा त्रिशंकु रह गई, तो फिर पैसों का खेल होना तय है और इस खेल में इस समय भारतीय जनता पार्टी को केई पराजित नहीं कर सकता। (संवाद)
कोरोना काल का बिहार विधानसभा चुनाव
क्या मोदी-नीतीश के खिलाफ असंतोष का लाभ उठा पाएंगे तेजस्वी?
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-09-26 16:16
भारत के निर्वाचन आयोग ने बिहार विघानसभा के आमुचनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है। एक अक्टूबर से शुरू होकर 10 नवंबर तक चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और 10 नवंबर को ही पता चल जाएगा कि वहां फिर किसकी सरकार बननी है। चूंकि यह चुनाव कोरोना काल में हो रहा है और लोगो में इस महामारी का खौफ बिहार के मतदाताओं के ऊपर भी है, इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि मतदान का प्रतिशत कितना होता है। वैसे यदि आंकड़ों को देखा जाय, तो बिहार में कोरोना का संक्रमण राष्ट्र के औसत संक्रमण से कम है। हालांकि कुछ लोग इस बात पर आश्चर्य कर रहे हैं कि जब पड़ोसी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल में कोरोना का संक्रमण बहुत ज्यादा है, तो बिहार में यह कम क्यां है?